Nilesh Desai, Praxali Desai की संस्था "संपर्क", पेटलावद (झाबुआ) से लौटकर शिक्षा की अवधारणा और आज के सन्दर्भ में अपने जीवन के कई बरस एक बोगस और निरर्थक तंत्र में गुजारने के बाद याद आता है यह कथन............
"कभी -कभी सोचता हूँ कि शिक्षित होकर मै एक तरह से घाटे में रहा. दरअसल मैंने अपनी जगह से बाहर निर्जन स्थलो या पर्वतों में शिक्षा नहीं पाई. यह कुछ ऐसी बात है जिस पर पश्चाताप का एक शब्द भी मै न कहता. मेरे पिछले अध्यापकों ने यह सब नहीं समझा, पर मै चाहता हूँ कि यह पढाई कही कंदराओं, गुफाओं और निर्जन खंडहरों में हुई होती, जहां मेरे दोनों तरफ पत्थर होते. भले ही इस तरह की पढाई में मेरे गुण उभर कर न आते लेकिन प्रकृति की शक्ति से ये गुण बढाकर लंबे हो जाते. यह सब सोचकर ही मै कहता हूँ कि शिक्षित हो कर ही मै कई दृष्टियों से घाटे में रहा शिक्षित होकर पछताने की बात बहुत लोगो के साथ होगी. माँ -बाप, कितने ही सगे संबंधी,घर आने -जाने वाले लोग, अनेक लेखक और खासकर घर का वाह खानसामा- जो एक वर्ष तक मुझे स्कूल लाता, ले जाता रहा और फ़िर अध्यापकों की पूरी कतार - जो धीरे- धीरे टहलती हुई हमारी क्लास में चली आती थी - सब मुझे याद है. यह सारी शिक्षा समाज पर एक छुरे जैसी लगती है. कभी यह छुरा आगे तो कभी पीछे नजर आने लगता है .........."
-फ्रेंज़ काफ्का
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