शहरयार तुम सुन रहे हो
शहरयार तुम सुन रहे हो,
कुछ अख़बार,कुछ टीवी वाले आये हैं.
कह रहे हैं, तुम्हारा इंतक़ाल हो गया.
ये कमबख्त कितने पागल हैं , शायर को मरा कहते हैं.
तुम कुछ कहते क्यूँ नहीं इनको शहरयार,
तुम तब कायम रहोगे जब तक बाम-ए-फलक पे सितारे.
कुछ ख्वाबों के पूर्जों को जोड़कर वक़्त ने,
एक खुबसूरत नींद बनायी है.
उसकी बाहों से तुम यूँ लिपटे, यूँ बेसुध हुए,
हमें आवाज़ देना ही भूल गए.
भूल गए तुम लफ्ज़ बैठे हैं तेरे इंतजार में.
याद है कमलेश्वर कहा करता था,
शहरयार इक ख़ामोश शायर है,
समेटे हुए है ख़ुद में इक अंदुरुनी सन्नाटा,
सच भी है शहरयार ,ख़ामोशी और तुम्हारी खूब पटी,
ताउम्र मक़बूलियत से दूर आम ज़िन्दगी जीते रहे.
तुमने बताया 'दिल चीज क्या है',
दुनिया को एक हौसला दिया कहकर,
'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता',
हकीक़त दुनिया की देखकर मुँह से निकला,
'ये क्या जगह है दोस्तों,ये कौन सा दयार है',
ख्य्याम की मौसिकी,तुम्हारे लफ्ज़,आशा की आवाज़,
उमराव जान को मुकम्मल बना दिया.
जगजीत ख़ामोश हुआ, तुमने भी लब सील लिए,
ग़ज़ल तो जैसे तन्हा हो गयी अब दौर-ए-जहाँ में,
भटक रही तीरगी में ग़ज़ल तन्हा-तन्हा,
इस शब की कोई सुब्ह न होगी कभी,
शब भी इतरा रही होगी तुमसे मिलकर तो.
देखा जो 'ख़्वाब का दर बंद है','शाम होनेवाली है',
निकल गए तुम दुनिया की गुलशन में 'सैरे-जहां' को,
जो मैंने पूछा तुमसे कहाँ चल दिए अकेले-अकेले,
कह दिया घबराओ मत 'मिलता रहूँगा ख़्वाब में',
पहचान लेना मुझे, पहने हुए रहूँगा नकाब-ए-ख़ाक.
- धीरज कुमार
शहरयार तुम सुन रहे हो,
कुछ अख़बार,कुछ टीवी वाले आये हैं.
कह रहे हैं, तुम्हारा इंतक़ाल हो गया.
ये कमबख्त कितने पागल हैं , शायर को मरा कहते हैं.
तुम कुछ कहते क्यूँ नहीं इनको शहरयार,
तुम तब कायम रहोगे जब तक बाम-ए-फलक पे सितारे.
कुछ ख्वाबों के पूर्जों को जोड़कर वक़्त ने,
एक खुबसूरत नींद बनायी है.
उसकी बाहों से तुम यूँ लिपटे, यूँ बेसुध हुए,
हमें आवाज़ देना ही भूल गए.
भूल गए तुम लफ्ज़ बैठे हैं तेरे इंतजार में.
याद है कमलेश्वर कहा करता था,
शहरयार इक ख़ामोश शायर है,
समेटे हुए है ख़ुद में इक अंदुरुनी सन्नाटा,
सच भी है शहरयार ,ख़ामोशी और तुम्हारी खूब पटी,
ताउम्र मक़बूलियत से दूर आम ज़िन्दगी जीते रहे.
तुमने बताया 'दिल चीज क्या है',
दुनिया को एक हौसला दिया कहकर,
'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता',
हकीक़त दुनिया की देखकर मुँह से निकला,
'ये क्या जगह है दोस्तों,ये कौन सा दयार है',
ख्य्याम की मौसिकी,तुम्हारे लफ्ज़,आशा की आवाज़,
उमराव जान को मुकम्मल बना दिया.
जगजीत ख़ामोश हुआ, तुमने भी लब सील लिए,
ग़ज़ल तो जैसे तन्हा हो गयी अब दौर-ए-जहाँ में,
भटक रही तीरगी में ग़ज़ल तन्हा-तन्हा,
इस शब की कोई सुब्ह न होगी कभी,
शब भी इतरा रही होगी तुमसे मिलकर तो.
देखा जो 'ख़्वाब का दर बंद है','शाम होनेवाली है',
निकल गए तुम दुनिया की गुलशन में 'सैरे-जहां' को,
जो मैंने पूछा तुमसे कहाँ चल दिए अकेले-अकेले,
कह दिया घबराओ मत 'मिलता रहूँगा ख़्वाब में',
पहचान लेना मुझे, पहने हुए रहूँगा नकाब-ए-ख़ाक.
- धीरज कुमार
'ख्वाब का दर बंद है','शाम होनेवाली है', 'मिलूँगा रहूँगा ख्वाबों में' ,'सैरे-जहाँ' ये शहरयार साहब की कुछ मकबूल किताबें हैं.
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