अभी बाजार गया था पता नही क्या- क्या उठा लाया.............याद आया बचपन- जब पिताजी रसोई में एक लंबे से ऊँचे स्टूल पर बैठते थे और माँ एक- एक डिब्बा खोलकर बताती थी कि क्या खत्म और क्या लाना है, मसलन इस माह में प्रदोष और शिवरात्री है साथ ही संतोषी माँ के चार उपवास तो साबूदाना और मूंगफली के दाने दो-तीन किलो लाने होंगे ....नवरात्री है सो मेहमान आयेंगे, इस तरह से पूरी लिस्ट बनती और माह के पहले रविवार को हम तीनों भाई पिताजी के साथ बाजार जाते, बनिए को लिस्ट थमाते, कटिंग बनवाते और लौटते समय पिताजी के साथ बनिए के यहाँ से सामान और चतरू मामा के यहाँ से गरमा- गर्म जलेबीयाँ लेकर लौटते !!! क्या दिन थे फ़िर घर आकर माँ के साथ सामान भरवाने में मदद, दीवाली पर उन पीतल के डिब्बों की चमक आज भी अँधेरे में कौंध जाती है, माँ के साथ हम इमली को घिस घिस कर रगडते थे, और अपनी मेहनत साल भर उन डिब्बों पर दमकती रहती थी. आज ना घर है, ना माँ- बाप, हाँ बड़ा बाजार है. वो पीतल के डिब्बे भी माँ के साथ गायब हो गए, कहा पता नहीं??? आज हम बाजार जाते है तो पूछते है कि ये क्या है, और इसका क्या होता है या इसे कैसे बनाते है और रंग बिरंगी चमचमाती पन्नियों में लिपटी सामग्री उठा लाते है और घर में वो महीनों पडी रहती है युही, फ़िर जैसे- तैसे उसे बना कर अपने पेट में कचरा इकठ्ठा करते है.........कहा है वो बनियों की दुकाने, कहा है पीतल के डिब्बे और माँ-बाप जिन्होंने सिखाया था कि "उतना ही सामान लेना जितना इस्तेमाल कर सकते हो, बाजार भाग थोड़े ही रहा है कही......" पर मै, तुम, हम, सब एक के साथ एक फ्री के चक्कर में घर में इतना सामान ले आये है कि अपने रहने की ही जगह बची नहीं है, फ़िर रिश्ते, भावनाएं और संबंधों के लिए जगह कहा बचेगी और दोस्त- यार- रिश्तेदार इसलिए दूर हो गए .....पता नहीं मै आज फ़िर से उसी देवास के बाजार में जाना चाहता हूँ एक रविवार को फुर्सत से, और लौटते हुए जलेबी लाकर इत्मीनान से खाना चाहता हूँ , अपने पीतल के डिब्बों के साथ इमली रगडते हुए......और उस चमक को आज खोते हुए समय में फ़िर से अपने भीतर जगाना चाहता हूँ.......
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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