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बिन ब्याही औरते जो सपने नहीं देखती

जब जिम्मेदारिया ओढकर खुद सामने आ जाती है
और खींचती रहती है ज़िंदगी के पहिये
अपने माँ बाप और परिवार के साथ
तो शोभा हो या नीलिमा
अमर बाला हो या तबस्सुम
ये सिर्फ औरते नहीं रह जाती
बहुत कठोर और शुष्क हो जाती है
चेहरे मोहरे से ही नहीं
वरन भाव और पीड़ा से भी
ये खींचती रहती है
एक पृथ्वी का बोझ
जिसमे शामिल होता है इनका आर्तनाद,
खत्म हो चुकी गूँज और हंसी
रिसते हुए, दुखते हुए वीरान कोने
जहां अब कोई नहीं आता-जाता. 
जीवन के सन्नाटो में इनकी चुप्पी
चेहरे को भोथरा और दिलो-दिमाग को
बेहद शुष्क कर देती है
किसी यंत्रचलित सी ये औरतें
चुपचाप चलती है जैसे नींद में जा रही हो
किसी एक ऐसे व्योम की ओर जहां
एक उम्मीद हो कि एक चिथड़ा सुख तो मिलेगा
सूखी पडी रागिनियों में हर्ष के तार छेड़ देगा कोई 
और फ़िर ये समा जायेगी
जीवन के कलरव में.
जो औरते उठा लेती है घर- परिवार की
जिम्मेदारिया वो औरतें, औरतें नहीं रह जाती
वे एक मशीन बन् जाती है
सतत, स्वचालित और स्वयंसिद्धा
बिन ब्याही औरते सपने नहीं देखती
सिर्फ आदर्शो, मूल्यों और तिलान्जलियों की बातें करती है
उनके हंसने पर खिल उठती है कलियाँ 
गुनगुना देती है ओंस की बूंदें
और सडकों पर पसर जाती है धूप
जिम्मेदार औरतें जिम्मेदारी निभाती है
दे देती है सब कुछ जीवन का
और अंत में रह जाती है एकदम
रितती हुई जीवन के बियाबान में
पृथ्वी की  तरह.




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