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एक आंसू गुनगुनाता रहा उम्र भर...चण्डीदत्त शुक्ल






(कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द)

मुस्कान ही हमेशा सब कुछ नहीं कहती। आवाज़ में हर बात बंधी नहीं रहती। एहसास आंसुओं के जरिए भी बयां होते हैं। उनकी भी होती है जुबान। बेहद असरदार। मन को गुदगुदाती खुशी हो या हताशा के पल, आशा की आहट हो या फिर आशंका की धमक – आंखें अक्सर छलक उठने को बेकरार रहती हैं। ऐसी ही है निहारिका, जिसे प्रेम मिला, साथी मिला और फिर सब छूट गया। उसके साथ हर वक्त रहे आंसू, जीवन संगी बनकर और जब वह सबसे ज्यादा निराश थी, भीगी आंखों ने ही समझाया – आने वाला कल होगा बहुत खूबसूरत... बस, आस न छोड़ो... ये एहसास एक बार फिर से उसकी आंखें नम कर गया। हो भी क्यों न, आंसुओं की जुबान बे-आवाज़ बहुत जोर से सुनाई देती है...



रात का दामन ठिठुरा हुआ था। लगातार गूंजने वाली, जागते रहो की आवाज़ कोहरे से डरकर कंबल में कहीं गुम हो गई। दिशाओं ने मुंह पर चुप्पी की पट्टी बांध ली। कड़वाहट भरी नज़रें पलकों में ढकने की कोशिश करते परिंदे अलसाते रहे। हाथों की पहुंच से बहुत दूर, निगाह के नजदीक, माथे के ऊपर तारों की बारात उमड़ने लगी। एक के बाद एक कर, इठलाते तारे आते और फिर छुपन-छुपाई खेलने लगते, मद्धम-सी चमक बिखेरकर। कढ़ाई से सजे किनारे वाली एक सफेद चादर नील में डुबाकर किसी ने आसमान पर उछाल दी। ब्लैक कॉफी से भरे मग की खाली होती सतह देख निहारिका बुदबुदाई – सो जाओ कि रात बहुत गहरी है, काली है... पर नींद का नाम-ओ-निशान तक नहीं था। मॉनिटर भले बंद था, लेकिन सीडी चल रही थी। एसडी बर्मन टीस बिखेरते हुए – मोरे साजन हैं उस पार...मैं इस पार...। तभी मोबाइल चहका – सोईं नहीं अब तक? तुम्हारे कमरे में खुदकुशी के सारे सामान मौजूद हैं न!
मल्हार का संदेश पढ़ निहारिका को गुदगुदी सी हुई। अगरबत्ती सुलगने के आखिरी कगार तक पहुंचकर थम चुकी थी, लेकिन महक ऐसी, ज्यूं बहार ने दरवाजे पर ताजा-ताजा दस्तक दी हो। निहारिका नए-नए प्रेम में थी, अंखुआ ही रहा था उसका और मल्हार का प्रेम। दूसरे दिन की शुरुआत के ऐन पहले, इस पहर, उसके घर से आठ सौ किलोमीटर दूर, किसी और ही शहर में मौजूद है इस वक्त मल्हार, पर दोनों कितने जुड़े हुए हैं — यही सोचते हुए, हंसते-हंसते जाने कैसे छलक उठे निहारिका के नयन। बिना कुछ कहे, भीगी आंखों ने बयां कर दिया सब हाल!

प्यार सबको होता है न कभी-कभार। जब-जब ये आता है, दुनिया में कुछ और बाकी नहीं बचता। दिल की लगी से निकलने के बाद भी कहां कुछ शेष रहता है, लेकिन निहारिका को कहां होश था। रात यूं ही गुजरती रही। मल्हार के संदेश पढ़ते और जवाब में बार-बार कुछ लिखते-मिटाते हुए। कॉफी खत्म हो चुकी थी, लेकिन यादें अंतहीन हैं। एक सिरा टूटता तो दूसरा उभर आता।
`बहुत ब्लैक कॉफी पीती हो तुम, देखना काली हो जाओगी', कभी मल्हार ये कहता तो अगले ही पल ये – `थोड़ी चीनी डाल लो, मुझसे नहीं पी जाती तुम्हारी बदसूरत कॉफी'। निहारिका नाराज होती, इससे पहले ही खिलखिलाहट की घंटियां बजाने लगता – `अच्छा, अच्छा! अब रंगभेद की नीति पर लेक्चर मत शुरू कर देना। सॉरी-सॉरी। याद आ गया, गोरा-काला कुछ नहीं होता... और ये भी कि तुम्हारे प्रिय भगवान कृष्ण श्याम रंग के हैं। चीनी नहीं तो अपनी लंबी अंगुलियां ही कॉफी में घोल दो, मीठी हो जाएंगी।' निहारिका बेसाख्ता हंस पड़ती और साथ ही उंगलियों से पलकों की कोर टटोलने लगती — गीली जो हो गई होतीं तब तक, निगाहें उसकी। मल्हार बोलता – `अपने आंसू जमीन पर मत गिरने देना, ये मोती टूट जाएंगे।' क्या कहती निहारिका, बस इतना सा ही तो – `धत! एकदम फिल्मी!'

ऐसा हरदम ही होता। निहारिका के बैग में दो जोड़ी रुमाल हमेशा मौजूद रहते। पर्मानेंट जुकाम की पेशेंट है वो। आंखें और नाक पोंछती हुई, न...न, रोती नहीं थी, पर मल्हार हंस देता – `इनसे मिलिए, एकता कपूर के सीरियल्स की बड़ी बहू। इनका हंसना-गाना, खाना-पीना, सब आंसुओं के साथ होता है।'
बस, ऐसी ही है निहारिका। जिसकी जो मर्जी, सोच ले। उसको शर्म नहीं आती। बुक्का फाड़कर, मजलिस के बीच भी, क्लास रूम में, जब चाहे, जहां जी करे, रो देने वाली। उसकी समझ में नहीं आता कि हंसना-रोना कौन-सी अभद्रता की बात है, जो उसके लिए `एक्सक्यूज मी, एक्सक्यूज मी' का रट्टा लगाती फिरे, इसलिए `मिस इमोशनल' का तमगा लग जाने से भी वो नहीं डरती।
दिन गुजरते रहे, साल-दर-साल, मल्हार और निहारिका का प्रेम मजबूत होता गया। प्यार में कंट्रोल की स्टियरिंग अपने हाथ में कहां होती है। मेहंदी हसन की आवाज़ में अक्सरहा सुनते हुए ग़ज़ल — प्यार जब हद से बढ़ा सारे तक़ल्लुफ़ मिट गए, आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गए, दोनों नजदीक-दर-नजदीक आते गए।

***
निहारिका ने सीने में दम भर सांस कैद कर ली
और फिर फूंक बाहर निकाली। डायरी पर जमा धूल पूरी तरह बेदखल होकर मेजपोश के कोनों में सिमट गई। कितने ही दिन गुजर गए। निहारिका और मल्हार अब पति-पत्नी हैं, लेकिन दोनों का साथ रहना अब भी मुमकिन नहीं हो पाया है। अलग-अलग शहरों में नौकरियों में ज़िंदगी खर्च करते हुए, बस तनहा रातें हैं और ब्लैक कॉफी के भरते-खाली होते कप। डायरी के पहले ही पन्ने पर मल्हार ने लिख दी थी एक इबारत ...

रोना नहीं, कभी न रोना

यादों की पछुआ हवा निहारिका का तन-मन सिहरा गई। याद आए, वे पल, जब प्रेम पर पढ़ाई-लिखाई का बोझ भारी पड़ने लगा था। रात-रात भर मल्हार संदेश पर संदेश भेजता रहता और उसकी अंगुलियां टेक्स्ट बुक के पन्ने पलटने में मुस्तैद रहतीं। एक्जाम के बाद, बहुत अरसा गुजरने पर जब दोनों मिले तो मल्हार चीखने वाले अंदाज में शिकायतें सुनाता रहा। वो खोई रही, गुमसुम और फिर वही हुआ... उसकी आंखों में पानी ठहरा हुआ था। छलछलाया हुआ... टपक पड़ने को बेकरार। ये देखकर मल्हार हंस दिया – `मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का / उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले'। निहारिका क्या कहती। बोली – `शब्दों में प्रेम करना तो कोई तुम से सीखे मल्हार।'

***
प्रेम के दिन भी कितने गिने-चुने होते हैं। कोटे से मिले राशन की तरह,
खर्च होने की उतावली में। उनकी शादी तो हो गई, लेकिन कितनी ही मुश्किलों से जूझते हुए। मां बचपन में ही रूठकर दुनिया से चली गई थीं। पिता ने नन्ही नीहू को बहुत-से अरमानों के साथ बड़ा किया था। विजातीय लड़के से शादी की बात सुनकर उन्होंने धैर्य की पूंजी खो दी थी। वे गुस्से की कैद में थे। मां के फोटो की रंगत तांबई हो चुकी थी। उदास निहारिका एक बार फिर, आसमान से बिना कुछ कहे, बातें करती चुपचाप लेटी थी, तभी एक तारा टूटा, बेआवाज़। निहारिका ने दुआ के लिए हाथ जोड़ लिए। पलकें बंद थीं और आंखों के आंचल में सिमटा था, वही सदा का साथी – आंसू।

भोर में सबसे पहले पिता का ही स्वर सुनाई दिया। उन्होंने पुकारा – नीहू! उनकी पुकार में गुस्सा न था, बस आशंका और दुख के कुछ निशान थे। आंखों में पूरे बदन का लहू इकट्ठा था, पर मुंह से आवाज़ का कतरा भी न निकला, टपका सिर्फ एक आंसू। निहारिका ने हिम्मत कर उन्हें फिर से मल्हार के बारे में बताया। उसने पिता की हथेलियां कसकर थाम ली थीं। पिता ने सारी बात सुनी और फिर उसके थरथराते हाथों पर एक बूंद आंसू टप से गिरा। निहारिका ने पलकें बंदकर बदले में भी आंसू ही लौटा दिए।

***

डायरी के पन्ने पर एक और रात टंकी थी, लेकिन तारों से भरी नहीं। नहाकर ताजादम हुई एक धुली रात। मल्हार के साथ ज़िंदगी शुरू करने की गवाही देती हुई। बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर मल्हार को देखते हुए निहारिका बोली – `ये ख्वाब है या मेरी ख्वाबगाह, जहां मैं आ गई हूं?' मल्हार ने कहा – `न्यू पिंच' और उसके कंधे पर चुटकी भर ली। ततैया ने डंक मारा हो, ऐसे चिंहुक पड़ी निहारिका और आंख में फिर लहलहा उठी एक नदी।
`गीजर के पानी से नहाकर आई हो क्या, तुम्हारे आंसू बहुत गुनगुने हैं?'
अपने पोरों पर मल्हार की आंख से रिसा हुआ एक आंसू थामती हुई निहारिका गुनगुनाई – `और तुम्हारे आंसू इतने नमकीन क्यों हैं? अरब महासागर का सारा नमक एक ही में सिमट गया लगता है। इसमें ज़िंदगी के सब दुख घोल लिए हैं क्या?
दूर कहीं एक दीवाना रेडियो पर भूले-बिसरे गीत सुन रहा था।

***

बस, इतनी-सी थी उनकी कहानी? नहीं... ज़िंदगी बहुत लंबी होती है, सो उन दोनों की भी थी।
कभी साथ रहते हुए, कहीं बरसों तक, बस मिलने की चाह में गुजरती हुई। एक दिन, मल्हार ने हमेशा के लिए निहारिका का साथ छोड़ दिया। किसी तरह की बीमारी का संकेत भी नहीं दिया था उसने। छुट्टियों में घर आया था, तब एक दिन बुखार से बदन तपने लगा। निहारिका अस्पताल ले गई तो पता चला – कैंसर की आखिरी स्टेज है और फिर दोनों बिछड़ गए। वायलिन का उदास सुर अब निहारिका के कानों में अक्सर बजता है और उसे वह अकेले सुनती है। पुरानी डायरी के पन्ने पलटती हुई। दूसरे कमरे में सो रही है गुलाब की पंखुरी-सी बेटी – कोमल!

***
`मम्मा! मैंने कल रात ही कहा था कि सुबह कढ़ी-चावल खाऊंगी। बनाया क्या?'
निहारिका बुदबुदाई— `नहीं ! बेसन लाना भूल गई।' कोमल रूठ गई, लेकिन निहारिका को सुध नहीं थी। उसके कानों में कुछ संवाद उभर रहे थे –
मल्हार से वह लड़ रही थी – ` तुम खटाई नहीं लाए। अब कढ़ी कैसे बनाऊं?'
वह बोला – `कढ़ी में खटाई थोड़े ही पड़ती है। इसमें तो तुम अपना गुस्सा ही घोल देना।'
` हां, और की जगह आंसू, है न...!'
और दोनों ठठाकर हंस दिए थे। उनके खिलखिलाते चेहरों पर होली के सब रंग जवान हो गए थे।
निहारिका ने खिड़की के पार देखा। सुबह अब दोपहर से मिलने चल पड़ी थी। एक गड्ढे में जमा पानी में कमर तक डूबी हुई कोमल कुछ ढूंढ रही थी।
निहारिका ने आवाज़ लगाई – `क्या कर रही हो? पानी से बाहर निकलो, ठंड लग जाएगी।'
कोमल घर के अंदर आई। उसके हाथ में एक भीगा हुआ खरगोश था। कांपता हुआ। निहारिका ने कोमल के गुलाब जैसे हाथ अपनी हथेली पर फैला लिए और उसकी लकीरों में कुछ तलाशने लगी। दुख के समुद्र के पार, उम्मीद का एक कल उन सबको पुकार रहा था। निहारिका की आंख में कुछ कांप रहा था, खरगोश की पलकें भी भीगी थीं।

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