एक दिन कोविड का
सुबह हड़बड़ाहट में होती है और सामने दिखता है मोरपेन क़ा शुगर नापने वाला यंत्र, रात सपने में इस यंत्र की स्क्रीन दिखती है कभी 648, 576, 349, 232 जबकि मेरा सपना है 90, 95 या 118 पर जीते जी तो यह सम्भव नही हो रहा, उठता हूँ और इस कमबख्त को उठाकर दसों उंगलियों में से किसी एक को खरोचता हूँ - पिन चुभने का एहसास खत्म हो गया है , पिछले बीस वर्षों से इतनी सुईयाँ चुभोई है कि शायद ही चमड़ी अब संवेदनशील बची हो - दर्द मानो स्थाई भाव हो और सुईयाँ उसका रस
सामने स्क्रीन पर शुगर का स्कोर देखकर कुछ नही होता - ख़ौफ़ नही लगता ज्यादा स्कोर से क्योंकि अब इतनी निराशा हो गई है कि लगता नही सामान्य स्तर पर कभी आ भी पाऊंगा - बस बिस्तर छोड़कर बाहर आता हूँ छत पर, आसमान निहारता हूँ - इतना रंग बिरंगा होने लगा है इन दिनों कि रँगों के प्रकार ही समझ नही पाता - आज ही छत गीली थी, कपड़े गीले, तेज़ छत पर सूख रहें प्याज भी गीले हो गए थे पर कोई फ़र्क नही पड़ रहा मुझे, दिन में धूप निकलेगी तो सब फिर सूख जाएगा, व्यायाम तो क्या ही कहूँ, हां थोड़ा स्ट्रेचिंग कर लेता हूँ - श्वास के दो चार आसन करके थक जाता हूँ
सुबह - सुबह चिरायते और गिलोय के साथ रात को भिगोये हुए अजवाइन का काढ़ा पीता हूँ, थोड़ी देर में मशीनीकृत ढंग से फ्रीज खोलकर थायरॉइड की गोली निकालता हूँ और चाय चढ़ाता हूँ , फिर इसी के साथ खाने की तैयारी - भिंडी बनाई आज, एक तरफ चाय उबल रही थी दूसरी तरफ मूंग छिलका शीजाने को कुकर में रख दी, जब तक चाय उबल रही है करीने से भिंडी काटता हूँ, एक प्याज़, दो हरी मिर्च और फिर चाय छानकर पीता हूँ - सिर्फ दूध, पत्ती और पानी है, आजकल खूब अदरख, काली मिर्च, बड़ी इलायची और दालचीनी डाल देता हूँ
सब्जी बघारता हूँ - पकने पर एक छोटे बर्तन में डालकर रखता हूँ और लहसन छीलता हूँ अदरख फिर बारीक काटता हूँ , इन सबके साथ सूखी लाल मिर्च का तड़का देकर दाल बघारता हूँ - शरीर के प्रपंच इतने हो गए है कि सम्हालना अब बहुत मुश्किल हो चला है, खाना है नही पर जब तक जीने का स्वांग करना है खाना भी पड़ेगा ही, कही जाता हूँ तो शर्म आती है कि क्या क्या परहेज बताऊँ और कोई क्यों पालें ये सब नखरे
आठ बजते है - टीवी पर न्यूज लगाता हूँ और रोटी का आटा सानकर रखता हूँ, फ़ूड चैनल देखकर यह समझ आया है कि आटा गूंथकर रख दो कम से कम आधा घण्टा तो रोटियाँ बढ़िया बनती है, धीरे से मुस्कुराता हूँ जैसे रोटी बनाने की प्रतिस्पर्धा में नोबल जीतना हो, फिर आकर न्यूज देखता हूँ और होम्योपैथी की पांच प्रकार की दवाएं लेता हूँ गोलियां है मदर टिंचर में कुछ और है जिनमें एल्कोहल की मात्रा बहुत है - जैसे ही लेता हूँ लेट जाता हूँ आधा घण्टा , न्यूज चलती रहती है और मैं दूर किसी सुरंग में निस्तब्ध होकर यात्रा करता रहता हूँ
रात के बर्तन,सफ़ाई, कपड़े, स्नान आदि करके रोटी बनाकर रखता हूँ - कुल तीन रोटियाँ बनती है दिन के लिए दो और रात के लिए एक - पर है तो बड़ा काम और इसे करना ही पड़ता है ; प्रोटीन शेक सोयाबीन के दूध में बनाकर रखा है फ्रीज में - उसे पीकर शुगर की गोली लेता हूँ और दिन का पहला इंजेक्शन जांघ के मांस में लगाता हूँ - इस बीच कुछ काम करके हिसाब - किताब और कुछ मेल देख लिए, सोशल मीडिया पर झांक लिया, शरीर एकदम टूट गया है मास्क लगा - लगाकर चेहरे पर एलर्जी होने लगी है आंखों में दिक्कत होने लगी है स्क्रीन टाईम कम करना है पर लगता है समय बचाकर करूँगा क्या अब
दोपहर होते - होते खाने का समय हो जाता है, दूसरा इंजेक्शन पेट पर लगाता हूँ, कल रात जहाँ लगा था - वो जगह लाल हो गई है और कड़क भी बरसो से जंघा, हाथ और पेट सुन्न हो गए है कोई संवेदनशीलता बची ही नही है, बीच मे दिन के इंजेक्शन अपने मन से बंद कर दिए थे पर इस कोरोना ने और इसकी दवाईयों ने शुगर इतनी बढ़ा दी कि डाक्टर्स ने हाथ टेक दिए कि "जब तक चारो वक्त इंजेक्शन नही इलाज नही" - आखिर फिर लौट आया - सबसे अच्छा देर रात वाला है लेंट्स जिसका असर सोलह घँटे रहता है न्यून्तम
थोड़ी देर कुछ काम करता हूँ - कुछ मित्र मदद कर रहें हैं थोड़ी आर्थिक रूप से पर शर्म आती है कि मैं उतना बदले में नही दे पा रहा हूँ जितनी उनकी अपेक्षा है ; कमज़ोरी और इस शुगर ने कोरोना में बुरी तरह से तोड़ दिया है - शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना कमज़ोर कर दिया है कि अब चीजें भूलने लगा हूँ, लगता है सच मे बूढ़ा हो गया हूँ एक हफ्ते पहले किसी काम के लिए मोहित को अपना अकाउंट नम्बर देना था तो गलत दे दिया, उसका ना मात्र समय खराब हुआ, बल्कि आर्थिक नुकसान भी कर दिया - रुपये के नुकसान से डॉलर का नुकसान ज्यादा मुश्किल होता है, बेहद शर्मिंदा हूँ अपराध बोध भी हो रहा और अपने बूढ़े होने की प्रक्रिया पर दया भी आ रही है - यह आत्म ग्लानि का समय है और अपने ही जमीर से टकराता हूँ और हर बार और नीचे गिरता हूँ, यह कन्फेशन नही वास्तविकता है
कोरोना का दुष्काल भयावह था - दो बार डोज़ लेना पड़ा, पूरा क्योंकि ठीक नही हो रहें थे संक्रमण ; फेविफलू की गोलियाँ हो या एंटी बायोटिक्स या स्टेरॉइड्स और ये सब कोरोना ठीक तो कर रहें थे पर कमबख्त पुराने जख्मों को हरा कर बढ़ा रहें थे - क्या किया जा सकता था - कोई चारा नही था, जीने की अदम्य इच्छा तो नही, पर एकाध साल में दो - चार काम कर लूँ - यह मोह जरूर है, बाकी तो तटस्थ हो गया हूँ - जीने के ना उद्देश्य बचे है - ना लालसा है कोई
थोड़ी देर में भूख लगती है, दिन भर कुत्तों की तरह से खाने का मन करता है, चने खाता हूं, परमल चबाता हूँ, कुछ काजू - बादाम, नीम्बू पानी लेता हूँ, फिर शाम को होम्योपैथी के डोज़, शाम की गोलियाँ - मुंह कसैला हो गया है, सेवफल, पनीर या लौकी में फर्क समझ नही आता - स्वाद की दुनिया ही खत्म है - फिनाईल, डेटोल और सेनिटाइजर की बदबू इतने भीतर धँस गई है कि सब जगह मुझे यही दुर्गंध एक आकार में साक्षात रूप में नजर आती है
सूरज डूबता है, पक्षियों का कलरव सुन बाहर छत पर आता हूँ, अपने गुलमोहर को निहारता हूँ, ओजस कहता है पेड़ का तना सड़ गया है - बस एक ओर से ही ठीक है बाकी खत्म है - जल्दी ही गिरेगा - मैं मुस्कुराता हूँ कि सही कह रहे हो - इसे अपने हाथों से लगाया था, पेड़ की उम्र भी ज़्यादा नही होना चाहिये - खासकरके फल - फूल वाले पेड़ों की - वे अपने जीवनकाल में ही बड़े हो, फलें फुलें और नजरों के सामने ही खत्म हो जाएं तो इससे बेहतर और क्या होगा
रोज लिखकर रखता हूँ सॉफ्ट बोर्ड पर कि आज किसको फोन लगाना है - एक डेढ़ घँटे दोस्तों से बात करता हूँ - काली चाय पीता हूँ,आकाश निहारता हूँ, माँ - पिता और भाई की स्मृतियों को याद करके भीगता हूँ , उनकी लाशें लगता है मेरे चारो ओर उड़ रही है, वेन्टीलेटर्स नजर आते है, शरीर मे लगी हुई नलियां बारी बारी से खुलने लगती है, मैं चिल्लाता हूँ डाक्टर, डाक्टर पर आवाज गले मे ही फँस जाती है - गों गों गों, और उन तीनों से भीख माँगता हूँ कि अपने पास बुला लें - बिजली अक्सर जाती है तो फोन करता हूँ, वो लड़का जो आपरेटर है कहता है "एकाध घण्टा बिजली ना आएगी तो मर नही जाओगे और आपकी अकेले की ही नही पूरे शहर की बिजली गायब है" - आगे से उसे कौन बताये कि अब जीना - मरना क्या है, सब एक ही है
उम्र बढ़ती जा रही है, यूँ 55 वर्ष बहुत नही होते पर किसी ने एक दिन में दो जीवन जियें हो, एक जीवन में अनेक मुखौटों के साथ कई जिंदगियां जी हो - तो 55 का अर्थ 110 वर्ष भी होता है, रात गहराने लगी है - सुबह का खाना पड़ा है - गर्म करता हूँ , खाता हूँ, फिर दो इंजेक्शन लगाता हूँ - सुबह के लिए गिलोय, चिरायते का पाउडर और अजवाइन गलाता हूँ एक बर्तन में, रात की गोलियाँ लेता हूँ - सोने से पहले कोट्टाकल का अश्वगंधा और धृतपापेश्वर का महासुदर्शन काढ़ा लेता हूँ कि नींद आ जाये, इम्युनिटी बनी रहें जब तक हूँ तब तक कम से कम, सुबह उठ सकूँ, और पक्षियों के वृंदगान सुन सकूँ
जीवन में कभी अनुशासन नही पाला पर कोरोना, शुगर और बाकी बीमारियों ने दवाईयों के बहाने सुबह से रात तक की दिनचर्या बना दी है - सोलह घँटे काम करने वाला मैं, महीने में 28 दिन तक देश भर में घूमने वाला मैं, समय से पहले काम करके देने वाला मैं, खूब कहानियाँ - कविताएँ लिखने वाला मैं, गप्प लड़ाने वाला यारबाश आदमी मैं, चुस्त दुरुस्त और हंसने हंसाने वाला मैं - आज अपने आप पर ही बोझ बनकर रह गया हूँ - धन, संपदा और मोह माया की चिंता नही की और कभी इन पर ध्यान भी नही दिया, बस जीवन अपनी शर्तों पर जीना था - परंतु अफ़सोस आज इन दवाओं पर पूर्णतया आश्रित हो गया हूँ तो बंधन खुलते जा रहें है
अब ना उद्देश्य है, ना जीने की इच्छा, कभी पूर्ण विराम लगाया नही - पर अब एक पूर्ण विराम जल्दी लगाना चाहता हूँ - इसके पहले कि यह फूलों से लदा हुआ गुलमोहर गिर पड़े किसी दिन - मैं मुक्त हो जाना चाहता हूँ ।
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