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Khari Khari, Yousuf Beg, Pravee Shrivastava, Note on Ravish 's post , Corona Positive, Rg Telang's write up on me, and other poss between 15 to 30 April 2021

 

Ravish Kumar

का श्रद्धाजंलि देने का यह अंदाज़ देखिये - एकदम मासूमियत भरा लेख लगता है पर मुझे लगता है कि यह एक कुटिलता से परिपूर्ण टिप्पणी है

रोहित सरदाना को दिल से नमन और श्रद्धांजलि पर मेरा मानना है कि देश के हर नागरिक को, जो कोविड में मर रहा है, इतने ही मुआवजे का हक है ; पत्रकारिता रोहित का पेशा था, इसके बदले तगड़ा वेतन, बीमा, सुविधाएँ और अन्य पर्क्स भी शामिल थे
रोहित के लिए दुख है, परिवार और बेटियों के लिए दुआएँ भी पर पांच करोड़ का मुआवजा अतिशयोक्ति है - ऐसा कोई महान कार्य पत्रकार नही कर रहे है, यूपी में चुनाव के दौरान 500 शिक्षक मर गए, हजारों डाक्टर मर गए, हमारे हजारों एनजीओ कर्मी मर गए जो धरातल पर कार्यरत है - एक एंकर पूरी टीम के शोध, ग्राफिक्स और ऑनलाइन सम्पादन टीम के साथ सजधज कर सिर्फ प्रस्तुति कर कौन से शेर मार रहें है खासकरके रोहित, रजत, सुधीर, अंजना, श्वेता, निधि या कि रवीश खुद भी या प्रिंट मीडिया के भड़ैत भी क्या तीर मार रहें है - इन गोबर गणेशों ने इतना कबाड़ा किया है कि 50 % अखबार बिकना बन्द हो गए और अल्प ज्ञानी भी न्यूज़ नही देखता आजकल
सब अपने मोर्चे पर जुटे है - काम करके भुगतान ले रहे है बल्कि आम आदमी और आप एंकर्स की तनख्वाह में 1:100000 गुना अनुपात का अंतर है, मनरेगा में 12 घँटे हाड़ तोड़ धूप में मजूरी का 279/- मिल रहा है, आपकी तो चाय ही 500/- की होगी
रोहित सरदाना को नमन और बेटियों को शुभाशीष, उनकी सालाना पढ़ाई, कॉपी किताब का खर्च मैं दे सकता हूँ , पर 5 करोड़ जनता के मेहनत के टैक्स के रुपये बर्बाद करने का तुगलकी सुझाव मत दीजिये या देश की हर डेथ टोल को 5 करोड़ दीजिये
और माफ कीजिये आप जिस दम्भ से लिख रहे है कि कभी मिलें नही, देखा नही वह स्वयं पत्रकारिता बिरादरी की solidarity, fraternity का स्तर कितना घटिया और गिरा हुआ है - दर्शा रहा है, मतलब एक ही लाइन के लोग - कमाल है या तो एंकर्स हमे बेवकूफ समझ रहें है या खुद इतने पतित हो गए है कि मरने के बाद भी पहचान ना दिखाकर अपने आका की नजर में बने रहना चाहते है
कितना घृणास्पद है यह सब - छि !
आपसे यह उम्मीद नही रवीश बाबू
***
आज तक के एंकर रोहित सरदाना के निधन की ख़बर से स्तब्ध हूँ। कभी मिला नहीं लेकिन टीवी पर देख कर ही अंदाज़ा होता रहा कि शारीरिक रुप से फ़िट नौजवान हैं। मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि इतने फ़िट इंसान के साथ ऐसी स्थिति क्यों आई। या इतनी तादाद में क्यों लोग अस्पताल पहुँच रहे हैं? क्या लोग अपने लक्षण को नहीं समझ पा रहे है, समझा पा रहे हैं या डाक्टरों की सलाह को पूरी तरह से नहीं मान रहे हैं या एक से अधिक डाक्टरों की सलाह में उलझे हैं? मैं नहीं कहना चाहूँगा कि लापरवाही हुई होगी। यह सवाल मैं केवल रोहित के लिए भी नहीं कर रहा हूँ। हमें ध्यान रखना चाहिए कि बात सिर्फ़ दिल्ली की नहीं हो रही है। ज़िलों और क़स्बों की हो रही है। मैं लगातार इस सवाल से जूझ रहा हूँ कि घरेलु स्तर पर इलाज में क्या कमी हो रही है जिसके कारण इतनी बड़ी संख्या में लोग अस्पताल जा रहे हैं? कई जगहों से डाक्टरों के बनाए व्हाट्स एप फार्वर्ड आ जा रहे हैं। जिनमें कई दवाओं के नाम होते हैं। उसके बाद मरीज़ और डाक्टर के बीच संवाद रहता है या नहीं। मैं डाक्टर नहीं हूँ। लेकिन कोविड से गुज़रते हुए जो ख़ुद अनुभव किया है कि उससे लगता है कि मरीज़ और डाक्टर के बीच संवाद की कमी है। इस वक़्त डाक्टर काफ़ी दबाव में हैं। और मरीज़ डाक्टर से भी ज़्यादा डाक्टर हो चुके हैं।
इसलिए मैंने एक कमांड सेंटर बनाने का सुझाव दिया था जहां देश भर से रैंडम प्रेसक्रिप्शन और मरीज़ के बुख़ार के डिटेल को लेकर अध्ययन किया जाता और अगर इस दौरान कोई चूक हो रही है तो उसे ठीक किया जाता। जो अच्छे डाक्टर हैं उनके अनुभवों का लाभ ज़िलों तक एक साथ पहुँचाया जा सकता ताकि डाक्टरों की दुनिया अपने अनुभवों को लगातार साझा करती रहे। यह काम कमांड सेंटर से ही हो सकता है क्योंकि निजी तौर पर अब डाक्टर के पास कम वक़्त है। मैं रोहित के निधन से स्तब्धता के बीच इन सवालों से अपना ध्यान नहीं हटा पा रहा हूँ। बात भरोसे के डाक्टर की नहीं है और न नहीं डाक्टर के अच्छे बुरे की है। बात है इस सवाल का जवाब खोजने की कि क्यों इतनी बड़ी संख्या में मरीज़ों को अस्पताल जाने की नौबत आ रही है?
कई लोग लिख रहे हैं कि आज तक ने रोहित सरदाना के निधन की ख़बर की पट्टी तुरंत नहीं चलाई। मेरे ख़्याल से इस विषय को महत्व नहीं देना चाहिए। आप सोचिए जिस न्यूज़ रूम में यह ख़बर पहुँची होगी, बम की तरह धमाका हुआ होगा। उनके सहयोगी साथी सबके होश उड़ गए होंगे। सबके हाथ-पांव काँप रहे होंगे। आप बस यही कल्पना कर लीजिए तो बात समझ आ जाएगी। दूसरा, यह भी मुमकिन है कि रोहित के परिवार में कई बुजुर्ग हों। उन्हें सूचना अपने समय से हिसाब से दी जानी है। अगर आप उसे न्यूज़ चैनल के ज़रिए ब्रेक कर देंगे तो उनके परिवार पर क्या गुज़रेगी। तो कई बार ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं। इसके अलावा और कोई बात हो तो वहाँ न्यूज़ रूम में खड़े उनके सहयोगी सच का सामना कर रही रहे होंगे। बात भले बाहर न आए, उनकी आँखों के सामने से तो गुज़र ही रही होगी।
ख़बर बहुत दुखद है। कोविड के दौरान कई पत्रकारों की जान चली गई। सूचना प्रसारण मंत्रालय उन पत्रकारों के बारे में कभी ट्विट नहीं करता। आप बताइये कि कितने पत्रकार देश भर में मर गए, सूचना प्रसारण मंत्री ने उन्हें लेकर कुछ कहा। उन्हें हर वक़्त प्रधानमंत्री की छवि चमकाने से फ़ुरसत नहीं है। इस देश में एक ही काम है। लोग मर जाएँ लेकिन मोदी जी की छवि चमकती रहे। आप लोग भी अपने घर में मोदी जी के बीस बीस फ़ोटो लगा लें। रोज़ साफ़ करते रहें ताकि उनका फ़ोटो चमकता रहे। उसे ट्वीट कीजिए ताकि उन्हें कुछ सुकून हो सके कि मेरी छवि घर घर में चमकाई जा रही है।
आम लोगों की भी जान चली गई । प्रभावशाली लोगों को अस्पताल नहीं मिला। आक्सीजन नहीं मिला। वेंटिलेटर बेड नहीं मिला। आप मानें या न मानें इस सरकार ने सबको फँसा दिया है। आप इनकी चुनावी जीत की घंटी गले में बांध कर घूमते रहिए। कमेंट बाक्स में आकर मुझे गाली देते रहिए लेकिन इससे सच नहीं बदल जाता है। लिखने पर केस कर देने और पुलिस भेज देने की नौबत इसलिए आ रही है कि सच भयावह रुप ले चुका है। जो लोग इस तरह की कार्रवाई के साथ हैं वो इंसानियत के साथ नहीं हैं।
इस देश को झूठ से बचाइये। ख़ुद को झूठ से बचाइये। जब तक आप झूठ से बाहर नहीं आएँगे लोगों की जान नहीं बचा पाएँगे। अब देर से भी देर हो चुकी है। धर्म हमेशा राजनीति का सत्यानाश कर देता है और उससे बने राजनीतिक समाज का भी। ऐसे राजनीतिक धार्मिक समाज में तर्क और तथ्य को समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। इसलिए व्हाट्एस ग्रुप में रिश्तेदार अब भी सरकार का बचाव कर रहे हैं। जबकि उन्हें सवाल करना चाहिए था। अगर वे समर्थक होकर दबाव बनाते तो सरकार कुछ करने के लिए मजबूर होती।
अब भी सरकार की तरफ़ से फोटोबाज़ी हो रही है। अगर उससे किसी की जान बच जाती है तो मुझे बता दीजिए। जान नहीं बची। आँकड़ों को छिपा लीजिए। मत छापिए। मत छपने दीजिए। बहुत बहादुरी का काम है। बधाई। आप सबको डरा देते हैं और सब आपसे डर जाते हैं। कितनी अच्छी खूबी है सरकार की। घर- घर में लोगों की जान गई है वो जानते हैं कि कब कौन और कैसे मरा है।
रोहित सरदाना को श्रद्धांजलि। उनके परिवार के बारे में सोच रहा हूँ। कैसे उबरेगा इस हादसे और ऐसे हादसे से भला कौन उबर पाता है। भारत सरकार से माँग करूँगा कि रोहित के परिवार को पाँच करोड़ का चेक दे और वो भी तुरंत ताकि उसके परिवार को किसी तरह की दिक़्क़त न आए।सरकार को पत्रकारों की मदद करने में पीछे नहीं हटना चाहिए। बिल्कुल दूसरे पत्रकारों को भी दे। कम से कम इसी बहाने इस बात की शुरूआतें होनी चाहिए कि जिन पत्रकारों की कोविड से मौत हुई है उनके लिए सरकार क्या सोच रही है। आज तक में रोहित के सहयोगियों को इस दुखद ख़बर को सहने की ताक़त मिले।
रवीश कुमार
नोट- जो लोग रोहित के निधन पर अनाप-शनाप कहीं भी लिख रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि फ़र्ज़ इंसान होने का है। और यह फ़र्ज़ किसी शर्त पर आधारित नहीं है। तो इंसान बनिए। अभी भाषा में मानवता और इंसानियत लाइये। इतनी सी बात अगर नहीं समझ सकते तो अफ़सोस।विनम्र बनिए। इससे बड़ा कुछ नहीं है। किसी को पता नहीं है कि कौन किससे बिछड़ जाए। सारे झगड़े और हिसाब-किताब फ़िज़ूल के हैं इस वक़्त।
***
डाक्टर विनायक सेन, डाक्टर वंदना शिवा, डाक्टर नरेंद्र गुप्ता जैसे डॉक्टरों को इस समय में कोविड मैनेजमेंट के काम में जोड़ने की सख्त जरूरत है
सरकार घटिया पूर्वाग्रह छोड़कर इन जैसे कर्मयोगियों को अविलंब आपदा प्रबंधन में ससम्मान जोड़े
***
और इस तरह से कोरोना के "घरवास" को 14 दिन सम्पूर्ण हुए मित्रों
लगभग 30 % बेहतर है हम सब घर के लोग
Dr Sanjay Bhalerao, Dr
Aniruddha Vyas
, Dr Arpan Dubey, Dr
Munira Zakir Hasan
, Dr Isha Samadhiya जैसे प्यारे दोस्त / विद्यार्थी साथ नही होते तो बचना ही मुश्किल था - इन सबने 24x7 वीडियो से वॉइस कॉल से दवाई, जाँच, परामर्श दिया और मैंने किसी डाक्टर को दिखाया ही नही क्योकि अपने इन युवा दोस्तों पर भरोसा है ये इतने काबिल है तो कही और क्यों जाऊं
Girish Sharma
,
Sachin
,
Shashi
,
Manoj
,
Arti
,
Arti
,
Rohini
,
Ali Asgher Zakir
Shivu Bajpai
आदि के साथ घर के लोगों के बिना यह जीवन पुनः पाना असंभव था
अभी स्थिति थोड़ी ठीक है पर पूरा ठीक होने में समय लगेगा लगभग तीन माह
आप सबके प्यार, सम्मान और गहरे सरोकार के लिये आजीवन ऋणी रहूँगा मेरे लायक जो भी मदद हो निसंकोच कहिएगा
बहुत प्यार प्रार्थनाएँ और दुआएँ आप सबके लिए
सुरक्षित रहिये
***
नेटफ्लिक्स पर नाना पाटेकर की अदभुत मनोवैज्ञानिक फ़िल्म
बुजुर्गों की समस्या और मुम्बई की जिंदगी पर बनी इतनी भयावह, सस्पेंस से भरपूर शानदार फ़िल्म नही देखी आजतक
जरूर देखें 3 + 2 कलाकारों से निर्मित इतनी परिपक्व फ़िल्म है कि कब शुरू हुई और खत्म हुई कि मालूम नही पड़ा
सतीश राजवाड़े का कसा हुआ निर्देशन , सुमित राघवन और इरावती हर्षे के साथ नाना पाटेकर का मेरे हिसाब से यह श्रेष्ठ कार्य है
***
रामनाथ कोविंद
नरेंद्र मोदी
अमित शाह
हर्ष वर्धन
योगी
शिवराज
राहुल गांधी
मुलायम
ममता
नीतीश
प्रियंका गांधी
अखिलेश
तेजस्वी
अरविंद केजरीवाल
उद्धव ठाकरे
फड़नवीस
त्रिभुवन सिंह
अशोक गहलोत
सिंधिया
येचुरी
वृंदा करात
मायावती
जैसे निकम्मे लोग होने के बाद देश को कोरोना क्या बर्बाद करेगा - इन ग़ैर जिम्मेदार, लापरवाह, भ्रष्ट, लालची और कमीनो ने देश को आज मौत के ढेर में बदल दिया है
चुनाव के समय यदि आप आर्तनाद और यह संताप भूल गए तो आप भी नरक के कीड़े है और मर गए है
***
मंजूर एहतेशाम साहब कल चले गये, सिर पर उनका साया होना बड़ी आश्वस्ति थी, भोपाल में एक घर कम हो गया - इससे बड़ी त्रासदी हो सकती है कि इस भू भाग पर आपके हक से जाने वाली जगह कम हो जाये, एक बार देवास आये थे, दो दिन रुके थे - शहर घूमा, टेकड़ी पर साथ गए, फास्टर के सागर महल को देखा था मेरे साथ - साथ
कितनी बातें थी, फिर भोपाल जाने पर मिल आता था, उन्हें एक बार बातचीत में उन्हें मालूम पड़ा कि मैं आया था और साइकिल के कार्यक्रम में 3, 4 दिन रुका था, मिलने गया नही - अगली बार मिलने पर बोलें - " आकर दो मिनिट ही मिल लेते, मुझे फिक्र थी कि तुम्हे वे कमबख्त लोग परहेज वाला खाना देंगे या नही, तेल वाला सालन ना खिला दें और तुम भी सब खा लेते हो, मीठा भी चाव से खा जाते हो मियाँ, कम से कम खाना तो अपनी शर्तों पर खाया करो, इतनी मेहनत करते हो", न्हारी से लेकर तमाम तरह के उम्दा व्यंजन कैसे खाते है यह तमीज़ मुझे उन्होंने सिखाई थी, चाची के हाथों में जो स्वाद था वो दुनिया मे कही नही था, प्रेम से खिलाती थी और मजाल कि मीठे चावल को मैं हाथ लगा लूँ, कहती थी - "अपनी शुगर रिपोर्ट दिखा 80 वाली फिर एक कड़छी दूँगी", पहले चाची और अब मंजूर साहब - सोचिये कि जब कोविड में पड़ा हूँ तो उस घर भी जा नही पाया उस पेड़ के पास कौन मिलेगा अब, जाने पर जो देखते ही चिंहुक उठते थे कि - "अरे सुनो, ये आया है देवास महाराज, फास्टर का खजाना लेकर "
ख़ुश रहें - जहां भी रहें मंजूर साहब - कितना कुछ है लिखने को बतियाने को, पर अब उस सबको सराहने वाला ही कोई नही
पिछले आठ दिनों में सैंकड़ों अपने दोस्त, रिश्तेदार, छात्र, परिजन और निज जनों को हारते हुए देख चुका हूँ - जीवन सिंह ठाकुर जी की पत्नी यानी हमारी मधु काकी, आशु कुमार, अशोक परिहार से लेकर दर्जनों नाम है कितने अभागे है हम कि व्यवस्था की चपेट में आकर ये सब लोग यूँ खत्म होते गए मानो एक सरकारी व्यवस्था एक वेदी है और लोग बलि चढ़ने को अभिशप्त है - सब हिसाब होगा आहिस्ता नही डबल धमाके से - सत्ता के भूखों जो नँगा नाच तुमने करके हम सबको बर्बाद किया है ना वह बहुत महंगा पड़ेगा - याद रखना यही होगा हिसाब
***
बहुत गुस्से में हूँ
इन दो तीन चार हराम खोरों को मौत नही आ रही बस बाकी तो जानवर से बदतर और नीच हो गए है कुत्ते कही के
सूअरों ने इतना मल खा लिया, मूत्र पी लिया, देश खा गए,दवाई, आक्सीजन, डाक्टर, बिल्डिंग सब खा गए कमीने 2014 से आज तक तब भी पेट नही भर रहा कुत्तों का, कहाँ जाकर भुगतेंगे गुजरात के व्यापारी मरोगे तो कीड़े भी नही मूतेंगे तुम पर
हम घर मे 5 लोग कोविड में है पर अस्पताल, डाक्टर, दवा, कुछ नही - लैब, सीटी स्कैन वालों से नारियल बेचने वाले तक साले लूट रहें है मप्र में 18 वर्षों से दलाल शिवराज सरकार ने इस समय मे अक्ल दिल-दिमाग सब बेच दिया है, अबै सम्हल नही रहा तो नर्मदा घाटी में कूद जा घटिया छिछोरे आदमी, तेरी सरकार से घण्टा नही पाया कुछ - 18 वर्षों में बेच दिया तूने सब और पूरे प्रदेश को नँगा कर दिया- पिछले साल सरकार खरीदकर नीचता की सीमा पार की, पर कमीनो पर असर भी नही होता पचास हजार सुअर मरें तब पैदा हुए लगता है तुम सब लोग
पूरी भाजपा, संघ और नारंगी गैंग हत्यारे है, इनके बाप माँ इन्हें पैदा नही करते तो भला होता, इन सुअरों का जन्मते ही गला घोट देना था
राष्ट्रपति अलग निठल्ला है सफेद हाथी है ससुरा और राज्यपाल तो है बूढ़े ऐयाश
जब कुछ नही देना है जनता को तो काहे की जीएसटी, काहे का इन्कम टैक्स और काहे के बाकी सारे टैक्स दें तुमको सफेद हाथियों - तुम मरोगे तो तुम्हारे दांत का एक पैसा नही मिलेगा - मित्रों, बंद करो टैक्स देना, इस नालायक के 8000 करोड़ के हवाई जहाज के या सूट या मेकअप के लिए हम खून जलाएं या इस दुष्ट के मशरूम आटे के लिए पसीना बहाए
देश कोरोना से नही इन हड़के कुत्तों से परेशान है , इनको उड़ाओ पहले
[ कोई ज्ञान देने नही आये जिसे भी भाजपा या अपने 3 - 5 गुंडों से सहानुभूति है जो देश चला रहे है किसी भड़वे की तरह जो कोठा चलाता है, वह भी ज्ञान ना दें ज्यादा दिक्कत है तो निकल लें - पस्त हो गया हूँ बुरी तरह से कोई डाक्टर अस्पताल में है नही, एक डाक्टर शहर में बचा है तो वहां भीड़ इतनी कि पुलिस लठ्ठ चला रही है - मजाक बना दिया साला स्वास्थ्य तंत्र को, लोग मर रहें है - इसलिए जिसे भला - बुरा नैतिक - अनैतिक लग रहा है - वो निकल लें just get lost, पर ज्ञान ना दें - बहुत हुआ चुतियापा ]
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And finally positive 19 April 21
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A Face from the Facebook: 19April 21 By Rag Telang , Bhopal
खास फेसबुक के लिए पुस्तक समीक्षा/व्यक्तित्व आधारित मेरा यह काॅलम शुरू हुआ है शीर्षक है " चेहरों की किताब- किताब का चेहरा " / A Face from the Facebook।
इसके तहत परिचित मित्रों के कलाकर्म एवं उनके प्रेरक व्यक्तित्व,संस्मरण, सोच व उनके फेसबुक पोस्ट्स पर आधारित संक्षिप्त नोट होगा और अगर उनकी कोई प्रकाशित किताब है तो उसके मर्म पर भी चर्चा का प्रयास होगा ( जाहिर है यह विस्तृत समीक्षा तो नहीं ही होगी)। जैसा कि आशा थी इस पहल का आप सबने दिल खोलकर स्वागत किया । यह इसलिए भी कि हमारे आसपास बहुतेरे मित्र हैं जिनके आत्म लेखन के प्रति संकोची भाव/अरूचि (या जिन्हें अपने बारे में बात करना पसंद नहीं,गरिमामय स्वभाव के चलते) के कारण हम उन्हें नहीं जान पाते जबकि उनमें बहुत कुछ ऐसा होता है कि हम कुछ न कुछ तो सीख ही सकें। मैं इन दिनों ऐसे ही मित्रों पर भी फोकस कर रहा हूं । ऐसे लोग जरूरी नहीं कि लेखक/ कलाकार हों वे सिर्फ अच्छे इंसान हैं इतना बहुत है और आज की जरूरत भी यही है । इन दिनों जब सब लाॅकडाऊन की कैद भुगत रहे हैं तब ऐसे में कुछ आकाशीय मित्र हैं जो अपनी गतिविधियों से आपको ढांढस बंधाते हैं, आज लगा कि उनका भी जिक्र जरूरी है ।
मित्रों के फीडबैक के आधार पर तय किया है कि लॉक डाऊन अवधि के पश्चात यह कॉलम प्रति रविवार को प्रकाशित किया जाये। आपके मत क्या हैं जरूर बताएं।
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गत एपिसोड 12 में आप मिले यायावर व फोटोग्राफर मित्र आशुतोष बुच (वडोदरा) और भगवान थावरानी जी (राजकोट) से।
आज मिलते हैं यारों के यार और मेरे कुछेक जीनियस मित्रों में से एक ,सखा संदीप नाईक (देवास) से ।
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...जीवन में जितने होते हैं मित्र उतने खंडों में जीता है आदमी उतने पन्नों की होता है वह एक किताब ...।
देवास निवासी संदीप नाईक मेरे प्राचीन मित्र हैं, बोले तो जवानी के दिनों के,उन दिनों की उसकी छवि याद करता हूँ तो देखता हूँ वह आज भी वैसे का वैसा ही है । शहद जैसा हमेशा ताजा और मिठास में बेमिसाल। उसे खादी से आज भी उतना ही प्रेम है,उतना ही स्नेही है,उतना ही पढ़ाकू है और वही मासूम-सा तार्किक लड़ाकू भी । इतना पढ़ चुकने और उससे कई गुना जमीनी काम कर चुकने के बाद आदमी स्वत: फाइटर में तब्दील हो ही जाता है । आज इस जीनियस का जितना भी मित्र आधार है इन्हीं विविध भाव-स्वभाव के चलते है । यह दोस्त एनालिटिकल है हर चीज के दूसरी से वाबस्ता या कहूँ गुंफित होने के कारणों को जानता-बूझता है,आप उसकी तमाम अभिव्यक्तियों में यह विशेष गुण देख सकते हैं।
संदीप के प्रति अनुराग मुझमें उन दिनों में पनपा जब हमारे स्ट्रगल के दिनों में मुझे किसी ने सूचित किया कि संदीप ने अपने घर की दीवार पर मेरी एक कविता पोस्टर बनाकर लगा रखी है,यह कोई पैंतीस साल पहले की बात होगी । मैंने कविता को लेकर और अपनी कविता संबंधी क्षमताओं पर इसके पहले कभी नहीं सोचा था पर संदीप की इस क्रिया ने मुझे अहसास कराया कि कविता का रेडिएशन या प्रसारण किसी जुगाड़ या माध्यम का मोहताज नहीं, बस कंटेंट में दम होना चाहिए, कविता अंतर्मन को छूने वाली होना चाहिए। यह सूत्र मुझे संदीप के जरिए ही मिला जिन दिनों मैं आर्गेनिक पोएट होने की जद्दोजहद से दो-चार हो रहा था ।
संदीप अंदरूनी तौर पर बेहद शांत हैं यह असीम निर्वैयक्तिकता संदीप की कुछेक दार्शनिक पोस्ट्स में झलक आती हैं, मगर संदीप के आसपास जो अव्यवस्था है,लुच्चापन है वह संदीप के फाइटर को चुनौती देता है और संदीप बाबा भारती की तरह निकल पड़ते हैं, दो-दो हाथ करने । संदीप नाईक ने कई युवाओं को आत्मविश्वासी व दूरंदेशी बनाया फिर वह चाहे फार्मल तरीका हो या अनफार्मल, शासकीय गैरशासकीय मंच हों या अन्य स्वैच्छिक संगठन उसने हर प्लेटफार्म पर अपने होने का दायित्व निभाया । संदीप भाई को लिखना जुनून की हद तक पसंद है,यूँ इस तरह वह सामाजिक लेखक है,उसके पाठकों का संसार बहुत व्यापक है,उसने कई बार सब तथाकथित बड़े लोगों को उनकी गैरजिम्मेदारी के लिए लताड़ा भी है,उसकी लेखनी में मंत्रों जैसी शक्ति है ऐसी कि मुर्दे में भी प्राण फूंक दे बशर्ते मुर्दे में इच्छा शक्ति बची हो । मस्तमौला संदीप भाई की उम्दा साहित्यिक सेहत का राज ही यही है कि वे अपने काम को दिल से करते हैं, एन्जॉय करते है,बिना किसी की परवाह किए।
यह है संदीप के व्यक्तित्व का एक कोण,अन्य आयामों में वह बेहद करीबी भाऊ भी है ,पारिवारिक-फिलासाफर दोस्त भी,यही अन्य आयामों में विचरण करता संदीप कुल मिलाकर कुछ ऐसी शख्सियत बन जाता है कि उसपे प्यार आ जाता है । पुस्तकालय आंदोलन के दिनों का साथी संदीप कब चलती-फिरती लाइब्रेरी हो गया पता ही न चला ! तभी तो मैंने शुरू में ही कहा कि आदमी चलती-फिरती एक किताब होता है ।
जिंदगी में हमारे आसपास होने के लिए नुस्खे के तौर पर अगर जरूरी दवा टाइप के लोगों की सूची बनाई जाए तो उसमें मैं संदीप जैसे मित्रों को जरूर रखूंगा। आज पता नहीं क्यों भाऊ संदीप नाईक के प्यारे व्यक्तित्व पर इतना लाड़ उमड़ आया या फिर इस कॉलम की तासीर ही कुछ ऐसी है जो इतना कुछ लिख गया ।
आपका- राग तेलंग
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Yousuf Beg
- आदमी नही मुकम्मल बयान
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18 April 21
पन्ना का पर्याय मंदिरों का शहर कभी नही रहा मेरे लिये, पन्ना मतलब यूसुफ भाई, समीना भाभी, फैजल, आफरीन और मित्र छत्रसाल, रवि पाठक, रामविशाल और सैंकड़ों आदिवासी परिवार,सिलिकोसिस के मरीज, पत्थर खदान मजदूर संघ के पदाधिकारी और बच्चे ढेरों युवा साथी
इन सबके साथ मुझे जोड़ने की एक ही कड़ी थी - यूसुफ बैग, मतलब एक आदमी जो चलता फिरता मुक़म्मल बयान था - संघर्ष, ईमानदारी, लड़ाई, स्नेह और दोस्ती का - कुछ भी हो "यूसुफ भाई ये करना है" - जवाब आता "सर हो जायेगा" - आज तक उस बन्दे ने कभी ना नही की, कभी गुस्से में नही देखा उन्हें, खदान ठेकेदार से संघर्ष का प्रतीक और सिलिकोसिस योद्धा जैसे आइकॉन बनने तक की यात्रा हम सब लोगों ने देखी है - कैसे दिल बदला उनका और सिलिकोसिस के मरीजों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी और गाइड लाइन बनवाने में जी जान लूटा दी
रोज बात होती थी, "जिंदाबाद सर" - से बातचीत की शुरुवात और फिर देर तक सवाल, क्या करना कैसे करना "आप पन्ना आईये, मैं सतना लेने आता हूँ ", कभी पन्ना पराया लगा ही नही, रहते होटल में थे हम लोग पर मजाल कि कही चाय पी लें, नाश्ता खाना घर से ले आएंगे और इतना कि समझ ही नही आता, हम डाँटते कि क्या भाभी को तकलीफ़ दे रहे - "नही सर , घर है तो बाहर क्यो"
यूसुफ भाई धोखा दे दिए - ये तो कोई बात नही बॉस और एक बार हम सबकी नही, पर फ़ैज़ल और आफरीन के लिए ही सही वेंटिलेटर का इस्तेमाल कर लेते, ये क्या जिद थी कि जो "वेंटिलेटर पर चढ़ता है - वो लौटता नही है "
फ़ैज़ की किताब "ख्वाबे सहर" आपके लिए मंगवाकर रखी है - अपने उस गिफ्ट को लिए बग़ैर ही अनंत यात्रा पर चले गए आप - हम सबको गम के साये में डुबोकर हमेशा के लिये
यूसुफ भाई ने कल देर रात दम तोड़ दिया सतना के एक निजी अस्पताल में, मुश्किल से चार दिन लगे होंगे और सब ख़त्म
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सनद रहे -
पन्ना जिला मुख्यालय के अस्पताल में वेंटिलेटर नही, ऑक्सीजन नही, दवाईयां नही - उन्हें कुछ नही मिल पाया - जबकि वो एक दमदार आदमी थे, इसी अस्पताल के लिये उन्होंने कितनी लड़ाईयां लड़ी, सुविधाएँ दिलवाई, जब कुछ नही हो पाया तो आखिर सतना लाकर मुश्किल से एक बेड की व्यवस्था कर पाएं थे, कुछ मित्रों और अधिकारियों की मदद से कल एक रेमडेसिविर का एक इंजेक्शन लगवा पाएं थे - प्रमुख सचिव , कमिश्नर स्तर की सिफारिश के बाद - सोचिये आम आदमी की स्थिति अभी क्या है
पूरा तंत्र मर गया है और "हम भारत के लोग" अनाथ हो गए है - यह है दांडी यात्रा के 75 वें वर्षगांठ का हश्र - पूछिये मत - बोलिये मत - जनहितकारी सरकार काम पर है
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घर के सामने रहने वाले सुभाष चौहान का भी निधन हो गया 1980 में हम लोगों के मकान लगभग साथ साथ ही बनें थे, इतना लंबा साथ और अचानक सब खत्म हो गया - घर घर मौत का खेल चल रहा है
दिमाग शून्य और सुन्न
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लश्करे तोइबा जिम्मेदारी लें अब
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मित्रों, अपने पार्षद, विधायक और सांसद को रोज फोन करें
यह महामारी नही सरकार प्रायोजित आपदा है - पिछले साल इसे आपदा मान सकते थे पर साल भर कुछ नही किया आपने बल्कि भीड़ बढाने और इमेज बनाने के चक्कर मे बेवकूफियाँ करते रहें लगातार
आज अस्पतालों पर दबाव है जरा गहराई से देखेंगे तो ये दबाव जिला मुख्यालयों पर है क्योंकि हमने प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर कभी ध्यान ही नही दिया मप्र में प्रबीर कृष्ण ने बीमोक और सीमोक बनवाये बहुत कोशिश की पर हम सिर्फ चमक दमक में रह गए, सुपर स्पेशलिटी की जरूरत है पर 10 % को सबको नही
अभी भी समय है कि हम अपने जमीनी स्तर के ढाँचों पर जोर दें, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के रुपये ग्रामीण, ब्लॉक स्तर के स्वास्थ्य गत ढाँचों में खर्च करें, वहां का स्टाफ बढ़वाये, वहां मशीनें दें, कर्मचारियों को नियुक्ति कर उनके कौशल दक्षता वृद्धि के प्रशिक्षण करें, स्वास्थ्य विभाग में स्वास्थ्य के आदमी को प्रशासक बनायें, दवा खरीदी से लेकर वित्तीय संसाधनों का विकेंद्रीकरण करें, आशाओं और बहुउद्देशीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ पैरा मेडिकल स्टाफ की भर्ती ज्यादा करें, डॉक्टर्स को सिर्फ गम्भीर मरीज ही डील करने दें, जाँच की सुविधाएँ ब्लॉक स्तर पर पुख्ता करें - यही कुछ सुझाव है जो सम्भव करेंगे बिगड़े स्वास्थ्य का सही इलाज
जिला मुख्यालयों पर बरसों से जमे डाक्टर्स को हटाये, सीएमएचओ और सिविल सर्जन को राजनीति और कलेक्टर के दबाव से मुक्त करें - वे बेहतर जानते है कि क्या करने से क्या ठीक होगा, संविदा नियुक्ति नही - स्थाई नियुक्ति दें, प्रोत्साहन राशि और पुरस्कार बढ़ाये
मौत का ताँडव देखा नही जा रहा, घर के सामने अभी एक डाकसाब गुजर गए जिनका बेटा आस्ट्रेलिया में है - बताईये वो वहाँ बैठा रो रहा है - आ भी नही सकता, सागर मेडिकल कॉलेज में एक मित्र की माताजी आज सुबह गुजर गई, पन्ना का रहने वाला यह युवा साथी खंडवा में काम कर रहा है, कितना वीभत्स है - एक 35 वर्षीय युवा फोन पर बिलख रहा है "दादा आ जाओ, अम्मी को दिलवा दो - ये लाश दे रहें है, इन्हें कहो कि जैसे लाया था - वैसी ही लौटा दो, नही कराना इलाज" फिरोज खान मप्र विद्युत मंडल में काम करते है, मित्र प्रवीण श्रीवास्तव आज छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए ही है
कोई सरकार, कोई व्यक्ति, कोई व्यवस्था यानी कोई भी जिम्मेदार नही - जो आकर कहें कि मैं इसकी ज़िम्मेदारी लेता हूँ -अब क्या लश्करे तोइबा से उम्मीद करें कि इन सब मौतों की नैतिक जिम्मेदारी लें - उधर एक बेशर्म आज भाषण दे रहा है
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मित्र, वरिष्ठ पत्रकार और सम्पादक प्रवीण श्रीवास्तव भी आखिर आज चले गए
उफ़्फ़ बहुत ही दुखद
इस परिपक्व उम्र में माँ को लेकर इतना संवेदनशील व्यक्ति जो घर जाने पर सिर्फ अपनी माँ के पास रहता हो, आरती करता हो, बुजुर्गों के लिये इतना समर्पण कि कुछ भी करने को तैयार, बाहर से आकर भोपाल बसना और पूरे भोपाल को अपना बना लेना कोई बिरला ही कर सकता था
परसो किसी पोस्ट पर कि मप्र में "व्यवस्था ठीक है और सही काम कर रही है" -विषय पर उनसे बहस हो रही थी, मैंने कहा " भाई, आप इतने वरिष्ठ होकर इस व्यवस्था का समर्थन कर रहें हो " पर वो बन्दा अड़ा रहा कि नही सब ठीक है कि अस्पतालों की संख्या बढ़ी है, मुफ्त में इलाज हो रहा है, दवाईयां मिल रही है सबको, "मुझे शुगर की दवा अस्पताल से मिल रही है", "दवा के प्रभाव के लिए परहेज भी करना पड़ता है संदीप भाई" एक झिड़की भी थी मेरे लिए, क्या पता कि यह आखिरी बहस होगी, शायद अस्पताल में भर्ती होंगे पर जाहिर नही किया
ऐसे तो ना जाते प्रवीण भाई बरसों का साथ था और बहस करने और वल्लभ भवन के देखने समझने का जो आपका नज़रिया था वो कहाँ अब
बहुत दुखद
नमन, ओम शांति
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दवा की दुकान, पैथोलोजी लेब, डाक्टर का क्लीनिक या सीटी स्कैन करवाने वाली जगह - हर जगह भयानक भीड़ है आप घंटो धूप में खड़े रहो तब कही आपकी बारी आएगी और फिर हर जगह मनमाना रुपया, बहस तो दूर एक शब्द मत बोलिये दुकान वाला या डाक्टर या लैब वाला आपको खींचकर एक ओर कर देगा और अगले को बुला लेगा, हर जगह नगद चाहिये डिजिटल गया भाड़ में , इस सबसे निपट कर आप आये फ़ल या नारियल पानी लेने तो मनमाँगे भाव है और आपको "लेना हो तो लो - नही तो निकलो" फ़ल वाले इसलिये भी मुंहजोर हो गए है कि रमज़ान चालू है और रोज़ेदार तो झक मारकर आएगा ही
रुपया यूँ बहता है जैसे आप जुए घर में बाज़ी पर बाज़ी हारते जा रहे है ऊपर से भीड़, रिस्क, ज़िल्लत और जगह जगह बदतमीजी सहते जाओ
लगता है यही असली राम राज है
हे ईश्वर कहाँ हो
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परिस्थितिया इतनी खराब हो गई है कि आप ग्रुप पर Birthday का फोटो डालो तो भी लोग ॐ शांति लिखते है
एक वाट्स एप समूह में 5 अप्रैल के जन्मदिन पर मिली हुई मंगलकामनाएं देख कर जवाब लिख रहा था अभी - एक मित्र ने मेरे एक फोटो के साथ पोस्ट डाली थी तो दो - तीन सदस्यों ने लिखा ओम शांति और
RIP Sandip Sir
सुरक्षित रहें , सावधान रहें
विश्राम में पूर्ण विश्राम होगा
ख्याल रहें
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मित्रों कोविड अब लगभग हर घर में पाँव पसार रहा है तो क्या करें दवाईयां और डॉक्टरी सलाह तो है ही पर हम मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय घरों में ज्यादा दिक्कत है
मुझे लगता है अब हम इसे मलेरिया की तरह माने और टेस्ट करवाएं, दवाई लें और सावधानी रखें - बस सब ठीक होगा
ज्यादा न्यूज ना देखे और पैनिक ना हो, सब लोग युवा है और प्रतिरोधक क्षमता सबकी अच्छी है
हमारा मराठी / मालवी भोजन बहुत पौष्टिक है , बस थोड़ा पनीर बढ़ा दें - प्रोटीन के लिए और सलाद ताकि जिंक आदि मिल सकें, अगर अंडा खाते हो तो एक अंडा रोज लें
परेशान ना हो, फिल्में देखें, पढ़े, गाने सुनें, गप्प करें , फोन लगाएं - समय की चिंता ना करें, रात को दो बजे जगा दें भले, किसी को भी - सब अपने ही है, अपने परिवार के वाट्सएप समूहों में अंत्याक्षरी खेलें, पुरानी बातें याद करें, शादी - ब्याह के पुराने फोटो शेयर करके सुहानी स्मृतियों को याद करें , चुहल करें, झगड़ा करें कि नागिन डांस क्यों नही करने दिया था, खाना खराब क्यों बना था, एक शर्ट पीस ही क्यो दिया विदाई में, एक दूसरे को छेड़े और मस्ती करें
अपने अनुभव लिखें और सकारात्मक रहें बस ज्यादा तनाव नही लेना, हम सबकी बही कही ना कही लिखी रखी है - क्यों चिन्ता करना, वैसे भी यह शरीर और संसार नश्वर है - यही समय है जब हम थोड़ा अपने भीतर झाँके, अंदर की यात्रा करें, आत्म मंथन करें और विचार करें कि क्या खोया क्या पाया
जीवन मे हमने बड़ी बड़ी चुनौतियां फतह की है तो 10 - 12 दिन तो यूँ निकल जाएंगे
किसी को बात करना हो, गप्प करना हो, निंदा पुराण करके भड़ास निकालना हो तो मैं यहाँ हूँ 24 ×7
विचलित ना हो - सिर्फ यह देखे कि इस सारे के बावजूद हम अभी भी बेहतर है - घर है, छत है, राशन है, रोज के खर्च के लिए कुछ रुपये हैं, दोस्त है रिश्तेदार है उनका सोचिये जो सड़कों पर है और नितांत अकेले है
आप सबके लिए दुआएँ और खूब प्यार



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