Anurag Pathak, युवा कहानीकार और पाठक.
आजकल संदीप नाईक का कहानी संग्रह “नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं” पढ़ रहा हूँ. चार कहानिया पढ़ ली है. कहानिया जीवन का लेख है. संदीप जी की यात्राओं और उन यात्राओं की त्रासदियों की अभिव्यक्ति हैं, ये सर्वथा अलग तरह की कहानियां है जो बहुत गहरे में उतरती है. इनका कहानी कहने का तरीका अत्यंत आत्मीय है एकदम अपना सा लगता है. पढ़ने पर जैसे हमारी अपनी ही कहानी है, मानो हमारी अपनी यात्रा है हमारी अपनी ही व्यथा है. सतना, उत्कल एक्सप्रेस, हंसती हुई माधुरी दीक्षित पढी है बहुत अच्छी है. दरअसल ये सब आत्मकथ्य हैं पर शायद जीवन घटनाओं और विचारो की दृष्टी से इतना व्यापक और संश्लिष्ट है कि संदीप जी का आत्मकथ्य "शेखर - एक जीवनी" जैसा महत् लेख बन जाता है. पता नहीं क्यों ये सारी कहानिया पढ़कर मुझे शेखर याद आ गया, वह भी इसी तरह अपने विचारों और कर्मों में इसी तरह भटकता रहा था और यह भटकना किसी सार्थक की खोज में था, आपका भटकना भी किसी सार्थक की खोज के लिए इन कहानियों में दिखता है. आपकी यात्रायें वस्तुतः अपने भीतर की यात्राएं ही है, शेखर भी तो अपने भय को जीतता है आपकी कहानियां - लगभग सभी, किसी भय को जीतने की कोशिश ही तो हैं. शुरु में मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा था पर मैंने कुछ और कहानिया पढी तो उनकी वास्तविकता समझ आई. ये कहानिया एक ऐसे व्यक्ति के जीवन अनुभव है जिसने जीवन सामान्य न जीकर अलग तरह से जिया है, जो किसी खोज में निरन्तर है इसी खोज के रास्ते में माधुरी जैसी बेचैन करने वाली कहानी मिलती है. मैं एक बात और कहना चाहता हूँ. आपकी सारी कहानियां एक करके एक उपन्यास बन सकता था - एक बेहतरीन उपन्यास, जिन्हें पूरा करने की अभी भी संभावना है.
ये मेरे निजी विचार है, लोग असहमत हो सकते है, दूसरा मैं कोई मान्य आलोचक नहीं हूँ मेरी समझ सीमित हो सकती है, फिर ऐसा करते हैं कि मैं पूरी कहानियाँ पढ़ लूं फिर लिखूंगा. वो कहीं लगाना ठीक रहेगा.
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