यकायक वह कमरे में घुस आई और मेरे हाथ में चाकू देखकर अचकचा गई , बोली ये क्या ? मैं थोड़ा सा लज्जित हुआ और दुसरे हाथ में रखा घर से लाया आम आगे करते हुए बोला कि कुछ नही आम काट रहा था और आप आ गयी, आम खायेंगी ? वो बोली नही, मैं फ़ालतू चीजें नही खाती। कप उठाकर लौट गयी। कल से इस जंगल में बने गेस्ट हाउस में हूँ पंद्रह कमरों में हम कुल जमा दो लोग है एक मैं और एक ऑस्ट्रेलियन आर्मी का केप्टन जो तीन साल की छुट्टी लेकर भारत के आदिवासियों के लिए बिजली की समस्या और सौर ऊर्जा के विकल्पों पर काम कर रहा है। दिन भर सोता है और रात को गाँवों में निकल जाता है लैम्प देखने, बड़ा विकट लौंडा है। हमारे यहां तो पक्की नोकरी मिल जाए तो जिंदगी ऐय्याशी में बीतती है. फिलिप्स मर्फी नाम है अभी म्यांमार होकर आया है।
ये गेस्ट हाउस की देख रेख एक अधेड़ महिला करती है जो सारे दिन प्रदीप के गाने जोर से टेप चलाकर सुना करती है , ना जाने क्या दर्द है इसके भीतर, कुछ पूछो तो काटने दौड़ती है पर बड़ी तन्मयता से दोनो समय नाश्ता, खाना और बढ़िया सी चाय पिला देती है। जंगल मानो इसके भीतर से उगा और खत्म हो गया...।
एक नीलकंठ फिर दिखा आज घने जंगलों में
शायद कह गया कि गरल पान करते रहो जब तक ज़िंदा हो
(लिखी जा रही कहानी का अंश "नीलकण्ठ का सपना")
विष्णु बहुत याद आओगे तुम.........
Vishnu Govindwad कल गढी बालाघाट में मुझसे मिलने आया, यानी लेपटोप बाबा से। आजकल ये मण्डला में FES में कार्यरत है। कहाँ बावल गाँव लातूर जिले का और कहाँ यह मण्डला, पर दुनिया गोल और छोटी है. तुम कब मिलोगे Satyajit Kale ??? विष्णु सन् 2011 में टाटा संस्थान तुलजापुर में प्रथम वर्ष का छात्र था , हम लोग वहाँ चार माह का एक आवासीय पाठ्यक्रम कर रहे थे। ये बच्चे समाजसेवा का ककहरा सीख रहे थे। विष्णु की हिंदी कविता में बहुत रूचि थी बस यही वजह थी जो हमे आजतक जोड़े रखी है दिल से। कल देर रात तक हम खूब बातें करते रहे। विष्णु ने कल रात और आज भोर में अपनी दो चार ताजा कविताएँ सुनाई। अपने गाँव का सरपंच बनने का सपना देखने वाला विष्णु बहुत कुछ करना चाहता है। बदलाव के लिए जमीनी स्तर पर नोकरी चुनने वाले 64 में से 11 छात्रों में से एक है जो महाराष्ट्र के लातूर को छोड़कर यहां मप्र के मंडला जैसे दुरूह जिले के बिछिया ब्लाक में काम कर गाँवों की राजनीति और विकास के बीच ज़िन्दगी का ताना बाना बुन रहा है। 64 में से मात्र 11 जमीनी काम कर रहे है, शेष बचे छात्र दिल्ली बम्बई की संस्थाओं में वातानुकूलित कक्षों में बैठकर प्रेजेन्टेशन बनाते है और पालिसी पर काम करते है, विष्णु का इशारा टाटा सामाजिक संस्थान के संस्कारों और प्रशिक्षण पर बहुत साफ़ था। अफ़सोस कि अब "एक्टिविज्म" सरकार भी खत्म करने पर तुली है।
बस, विदा हुआ तो गमगीन था, पता हम फिर कब मिलें और कहाँ, अभी जाते समय मैंने यही कहा - जा तेरे स्वप्न बड़े हो....
उन घरों में , उन गलियों में और उन शहरों में सिर्फ और सिर्फ लोग रहते थे बस दीवारें नही थी... फिर ईंटें आयी, रेत आई, चुना और सीमेंट जोड़ा गया कि सब कुछ पुख्ता हो सकें ... फिर दीवारें बनी ऊंची ऊंची और लोग खत्म हो गए.....
Vishnu Govindwad के साथ बालाघाट के गढी स्थित जंगल के एक गेस्ट हाउस में बातचीत टाटा सामाजिक संस्थान तुलजापुर की बेहतरीन स्मृतियों को शिद्दत से याद करते हुए.
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