गुम होता संसार
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रसोई में पड़े है बर्तन - कडछी से लेकर तवा
चम्मच और प्लेट्स, थाली गिलास कटोरी
घर से निकली तो था नहीं कुछ भी - माँ कहती थी
फिर छोटी सी नौकरी और पुरे परिवार की देख रेख.
ननद -देवरों की पढाई, छोटे भाई - बहनों की चिंता
सबकी शादी और फिर जापे में गृहस्थी ख़त्म हो गयी
कैसे इकठ्ठे किये थे ये भगोने और यह परात
यह चकला, ये बेलन और ये टूटी फूटी सी सिगड़ी.
शहर दर शहर में और मकान दर मकान में गुमा नहीं
कोई चम्मच या फूटा नहीं एक भी तिडका हुआ कप
माँ सम्हालती रही इकठ्ठे किये बर्तन, साजो सामान
कभी फूट जाता अचार का मर्तबान, टूट जाती प्लेट.
दुखी हो जाती थी माँ और खाना नही खाती थी
नौकरी से आने के बाद चौकन्नी निगाह रहती थी
घर के हर कोने में कि ये झाडू के तिनके कम कैसे हुए
अपने सारे कामों के बावजूद बर्तनों से मोह था उसे.
माँ की रसोई में हर बर्तन उसका एक स्नेहिल प्रेमी था
करीने से रखे और सजे संवरे बर्तनों की खनक घर में थी
माँ के हाथों में बर्तन यूँ मुस्काते थे मानो किसी परी के
हाथों में मुस्काते है अनजान जगत के रत्न और माणिक.
पिता की मृत्यु के बाद रसोई में जाना कम था माँ का
जब भी जाती तो जरुर पूछती कि वो झारा दिख नहीं रहा
जो शान्ति ने दिया था पहली गोद भराई में मेरी
थालियाँ गंदी है जो मंदा निम्बालकर ने दी थी बच्चों की जनेऊ में
बाटी बनाने का ओवन आने से गैस ज्यादा खर्च होगा
मिक्सी के बाद सिलबट्टा कैसे उदास हो गया याकि
खल बत्ता जिसमे कूटे थे दरिद्रता के दिन और छानकर
निकाले थे उजले स्वप्न जिससे हम सब गुलजार हुए.
अब नजर नहीं आता इस भड्भड में, ख़त्म हुआ सब
बीमारी में भी चिता रहती थी कि पड़ोसन ने दी नहीं चलनी
जो गर्मी में गेंहूं के लिए ले गयी थी - दो दिन का बोलकर
तकाजा करती थी कि कही रात में बर्तन बाहर ना रह जाए.
बर्तनों को गुम होता देख रही थी माँ, फूट गए थे कुछ
फेंके जा रहे थे कुछ और थैले में बंदकर रखे जा रहे थे
बर्तनों की दुनिया बाजार से सपनों के बीच में खडी थी
इस सबके बीच गुत्थम गुत्था थे हम सब और हंसी.
ना अब माँ है और ना बेशकीमती बर्तनों का संसार
जो उधारी और किश्तों के बीच हमारी दुनिया संवार गए
गुमते रहते है, कोई परवाह नहीं करता अब किसी की
कचरे की गाड़ी में फेंक दिए जाते है चम्मच और कड़छी.
फूट जाती है प्लेट और टूट जाते है मग धडाम से
आवाजों के घेरे में सुनाई नहीं देती चीखें और क्रंदन
एक रंगीला संसार है जहां उपयोग करो - फेंको के बीच
हम सब अपने होने को अभिशप्त है बर्तनों की तरह.
छोटे होते जा रहे रसोईघरों से बर्तन गायब हो रहे है
मशीने जगह ले रही है, खाने के टेबल पर सजे है स्वप्न
ताम्बे, पीतल और कांसे का नाम शब्दकोष में जमा है
माँ जैसी दुनिया की स्त्रियाँ बेचैन है सहेजने को सब !!!
- संदीप नाईक
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