Skip to main content

इलाहाबाद का उजास और हिन्दी का समकालीन साहित्यिक जगत

इलाहाबाद में कई लोग मिले और कई मुद्दों पर बातचीत हुई और सबसे अच्छा यह था कि सभी मुद्दे साहित्य और कविता के इर्द गिर्द घूमते रहे. असल में इक्कीसवीं सदी के प्रस्थान बिंदु में बारे में बातचीत सिमट कर रह गयी और जैसाकि होता है कुछ लोग जान बूझकर विवाद खडा करने को कुछ नाम अक्सर व्योम में उछाल देते है जिससे सारी बातचीत एक तरफा हो जाती है, शुक्र यह है कि एक बड़ा वर्ग समझदार और मैच्योर था जिससे यह प्रयास असफल हो गया परन्तु महिमा मंडन हिन्दी की एक पुरानी  परम्परा है और इस समय हिन्दी में आत्म मुग्धता  का बड़ा दौर चल रहा है जहां लेखक एक मल्टीपरपज भूमिका में है. जाहिर है इसमे लिखना एक शगल, विचारधारा थोपना आदत और अपने को श्रेष्ठ साबित करना एक साहस है जिसे कई लोग बहुत सहजता से लेते है और क्योकि अब हिन्दी में अन्य भाषाओं की तरह से विशुद्ध लेखक बचे नहीं है वे एक विधा के निष्णात नहीं वरन वे कविता, आलोचना, कहानी, ब्लोगर, सम्पादक और प्रकाशक भी बन गए है. जाहिर है यह सब जुगाड़ और सेटिंग के बिना संभव नहीं है. 
इसके ठीक विपरीत पाषाण कालीन  मूर्तियों के बीच ऐसी भी जीवंत मूर्तियाँ विराजित थी जो बहुत सहजता से सबसे मिल रही थी और खुलकर अपने मन की बात सबसे कर रही थी. दिन भर बातचीत के बाद रात के अनौपचारिक सत्रों में भी वरिष्ठ साथियों ने जिस सहजता से अपने को खोला और पुराने अनुभवों को बांटा, साहित्य के पारंगतों और पुरोधाओं के चर्चे छेड़े वह अतुलनीय था. 
दो दिन के सत्रों की लम्बी थकान और लगातार दिमाग को जगाये रखना निसंदेह एक जटिल प्रक्रिया थी परन्तु उन कमरों में जो ऊर्जा थी वह बहुत प्राणवान थी. 
सबसे अच्छी बात यह थी कि इस सदी के आरम्भ में प्रयाग में इस कुम्भ में जो समागम हुआ वह शायद इन पंद्रह वर्षों में नहीं हुआ होगा कही. इतने सारे कवियों को देश भर से इकठ्ठा करना, इटारसी स्टेशन पर आग लगने से कई ट्रेन  कैंसिल हो गयी पर फिर भी आयोजकों ने आर्थिक भार वहन  किया और अधिकाँश लोगों को हवाई सुख उपलब्ध करवाया. वहाँ पर आलीशान होटल में व्यवस्था की स्थानीय विश्व विद्यालयों से लेकर मीडिया और अन्य लोगों को, साहित्य भण्डार, हिन्दी साहित्य सम्मलेन के लोगों को, मीरा फाउंडेशन आदि जैसी संस्थाओं को एक जगह एकत्रित करके यह महत्वपूर्ण आयोजन किया उसके लिए पूरा श्रेय दो लोगों को दिया जा सकता है - श्री अनिल मिश्र एवं कर्मठ जितेन्द्र श्रीवास्तव जिनके संयोजन के बिना यह ऐतिहासिक कार्यक्रम अधूरा रह जाता. निश्चित ही ये दोनों साथी कम से कम इस तरह के आयोजन के पाथेय तो है ही. 
इस अवसर पर ज्ञानेंद्रपति जी, केदार नाथ सिंह जी का सामीप्य मिला, ज्ञानेंद्र दादा के साथ तीन दिन का अपनत्व और स्नेह मिला उसको लेकर शीघ्र ही एक संस्मरण यहाँ पोस्ट करूंगा जो कम से मेरे लिए तो धरोहर ही होगा. इलाहाबाद से बनारस आते समय ज्ञानेंद्र दा ने अज्ञेय जी  को लेकर जो अदभुत बातें और अनुभव बांटे है वे बेहद महत्वपूर्ण है. 
शुक्रिया मित्रों, आज अनिल त्रिपाठी जी का फोन आया जिसमे उन्होंने मेरी कविता "सुनो ज्ञानरंजन" का जिक्र कर लम्बी बात की तो लगा कि कम से कम अपने मन की बात तो यहाँ लिख दूं . बाकी शेष रहा.......

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही