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ज्ञानेंद्रपति के साथ उजास के तीन दिन



आज अफसोस होता है की सन 70-74 में अज्ञेय जी जैसे बड़े लेखक हमसे बात करते थे तो हम बेहद अशिष्ट होकर जवाब देते थे, दिल्ली के कनाट प्लेस के सेन्ट्रल होटल में एक शाम उन्होंने मिलने बुलाया था तो चाय पिलाई और दो घंटे तक बात करते रहे और पूछा कि मेरा नया नाटक पढ़ा? तो मैंने कहा कि उसमे नाटक जैसा कुछ नहीं है इससे तो बेहतर मेरा नाटक है. मजे की बात यह है कि यह नाटक अब कही जाकर चालीस साल बाद नॉट नल पर शाया हुआ है. अब अफसोस होता है कि मेरे जैसा आदमी कितना अशिष्ट था..........!!!

क्या आप यह कह रहे है कि आज के युवा साहित्यकार भी इसी अशिष्टता के शिकार है? 

नहीं, नहीं मै कतई यह नहीं कह रहा परन्तु जब अशिष्टता देखता हूँ, सुनता हूँ तो दुःख होता है कि हमने अशिष्ट होकर बहुत कुछ खो दिया, काश सही समय पर सब यह बात समझ से समझ सकें......और कम से कम एक शिष्ट व्यवहार सबके साथ कर सकें , मत भिन्न होना अलग बात है पर अशिष्टता बर्दाश्त नहीं होती, क्योकि मैंने खुद यह अशिष्टता की है, अज्ञेय जैसे व्यक्ति के साथ तो निश्चित ही आज पश्चाताप है. 

दो बार पी सी एस की परीक्षा पास की, मुझे नौकरी तो करना नहीं थी परन्तु पी सी एस निकाली और राजपत्रित अधिकारी भी बन गया, बड़ी दुविधा थी नौकरी बिहार के एक जिले में मिली थी और जेल अधीक्षक का पद था. मेरे पिताजी से बात करने की हिम्मत नहीं थी क्योकि वे नौकरी में थे और बड़े सख्त थे, आसपास के गाँवों में उनकी तूती बोलती थी, पर मेरे बाबा यानी दादा बड़े दयालू थे और मै अक्सर उनके पास जाया करता था दुविधा की स्थिति में. वे हालांकि पढ़े लिखे नहीं थे पर उनका दुनियावी ज्ञान बहुत था और उन्होंने एक मास्टर लगाकर उस उम्र में संस्कृत और उर्दू जुबान सीखकर दो भाषाओं पर मास्टरी हासिल की थी. मैंने बाबा से कहा कि मुझे नौकरी नहीं करनी तो उन्होंने कहा कि देखो ऐसा है जीवन तो यूँ भी चल जाएगा अपने पास इतनी जमीन है कि थोड़ी मेहनत करोगे तो गुजर बसर हो जाएगा परन्तु दुनियादारी में रहना है, शादी ब्याह करना है तो नौकरी करना जरुरी है क्योकि उससे सामाजिक इज्जत मिलती है. यह सत्तर का दशक था और नौकरी करने वाले को समाज में बड़ा सम्मान था. लिहाजा बाबा की बात मानकर नौकरी अक्राने का तय किया पर बाबा से कहा कि बस तीन साल करूंगा और फिर लौट आउंगा छोड़कर. इस तरह से मै बिहार के एक जिले में जेल अधीक्षक हो गया इस आशा के साथ काम शुरू किया कि बस तीन साल में छोड़कर जाना ही है. एक साल के भीतर ही दुर्भाग्य से मेरे बाबा की मृत्यु हो गयी और फिर मै पिताजी के सामने नौकरी छोड़ने का कोई वाजिब कारण नहीं बता पाया. 

लिहाजा यह नौकरी मुझे दस साल करनी पडी. मैंने इस्तीफा दस साल बाद लिखा पर विभाग में आई जी के पद पर मेरे एक मित्र आ गए तो उन्होंने इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और फिर एक सरकारी आदेश के तहत मुझे एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लेकर कुछ पढाई करने को कहा. दस वर्ष की नौकरी के उपरान्त यह छुट थी की आप एक वर्ष का अध्ययन अवकाश ले सकते है. सो मैंने वह बात मानकर अवकाश के लिए आवेदन दे दिया. चूँकि मेरे मित्र ही आई जी  - जेल थे बिहार में सो अवकाश स्वीकृत हो गया. मैंने जेल में कैदियों की मानसिक दशा और निदान को लेकर मनो चिकित्सकीय अध्ययन का कार्य किया और अंग्रेजों के समय से चले आ रहे जेल मैन्युअल को नए सिरे से ज्यादा मानवीय होकर लिखना शुरू किया ताकि कैदियों को जेल में एक मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन मिल सकें. इस बीच एक साल कब ख़त्म हो गया पता नहीं चला, मैंने दूसरे साल के लिए भी अध्ययन अवकाश के लिए आवेदन कर दिया. परन्तु मेरी नौकरी के बीस वर्ष नहीं हुए थे अस्तु यह आवेदन निरस्त हो गया और मुझे आदेशित किया गया कि मै तत्काल प्रभाव से ड्यूटी ज्वाईन करूँ पर मै नहीं गया. मेरे आई जी दोस्त का स्थानान्तरण हो गया था अतः वह अवकाश पत्र कही विभागीय फाईलों में दब गया और मुझ पर लगातार यह दबाव बनता रहा की मै नौकरी ज्वाईन करूँ. पर जब पंछी को पिंजरे के बाहर छोड़ दिया जाता है तो क्या वह पुनः उसमे जाना चाहेगा.....बिलकुल नहीं अतः मैंने पिताजी की नाराजगी मोल लेते हुए अपना इस्तीफा भेज दिया. 


इस बीच अज्ञेय जी से लेकर हिन्दी के बड़े लेखकों से संपर्क होता रहा और मै लिख भी रहा था और लगातार छप भी रहा था. बनारस मुझे खींचता था. बस नौकरी के ओर फिर मुड़कर नहीं देखा. मेरे देयकों का भुगतान आज तक नहीं किया गया, मैंने लम्बी लड़ाई लड़ी परन्तु चूँकि इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ था अतः देयकों का भुगतान भी सम्भव नहीं था. अब पलटकर नहीं देखता 

(ज्ञानेंद्रपति जी......अपने अनुभव साझा करते हुए)

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