मालवा के कबीर भजन विचार मंच – पुनर्जीवित पर संकट
में एक स्वस्थ परम्परा
संदीप नाईक
रात का समय है, ठण्ड अपने चरम पर है, चारो ओर कुहासा है, खेतों से ठंडी हवाएं आ
रही है,
बिजली नहीं है परन्तु
गाँव के दूर एकांत में कंकड़ पर लोग बैठे है, बीडी के धुएं और अलाव
के बीच लगातार भजन जारी है और सिर्फ भजन ही नहीं उन पर जमकर बातचीत भी हो रही है
कि क्यों हम परलोक की बात करते है, क्यों कबीर साहब ने
आत्मा की बात की या क्यों कहा कि “हिरणा समझ बूझ वन चरना”। लोगों की भीड़ में
वृद्ध,
युवा और महिलायें बच्चे
भी शामिल है. यह है मालवा का एक गांव। यह कहानी एक गांव की नहीं कमोबेश हर गांव की
है जहां एक समुदाय विशेषकर दलित लोग रोज दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद शाम को अपने
काम निपटाकर बैठते है और सत्संग करते है, कोई आडम्बर नहीं, कोई दिखावा नहीं और कोई
खर्च नहीं. ये मेहनतकश लोग कबीर को सिर्फ गाते ही नहीं वरन अपने जीवन में भी
उतारते हैं।
देवास का संगीत से बहुत गहरा नाता है इस देवास के मंच पर शायद ही कोई ऐसा
लोकप्रिय कलाकार ना होगा जिसने प्रस्तुति ना दी हो. और जब बात आती है लोक शैली के
गायन की तो कबीर का नाम जाने अनजाने मे उठ ही जाता है. यह सिर्फ कबीर का प्रताप
नहीं बल्कि गाने की शैली, यहाँ की हवा, मौसम, पानी और संस्कारों की
एक परम्परा है, जो सदियों से यहाँ निभाई जा रही है. गाँव गाँव मे
कबीर भजन मंडलियां है इसमे वो लोग है जो दिन भर मेहनत करते है- खेतों मे, खलिहानों मे और फ़िर रात
मे भोजन करके आपस मे बैठकर सत्संग करते है और एक छोटी सी ढोलकी और एक तम्बूरे पर
कबीर के भजन गाये जाते है. किसी भी दूर गाँव मे निकल जाईये यह रात का दृश्य आपको
अमूमन आपको हर जगह दिख ही जाएगा. इन्ही मालवी लोगों ने इस कबीर को ज़िंदा रखा है और
आज तक,
तमाम बाजारवाद और
दबावों के बावजूद भजन गायकी की इस परम्परा को जीवित रखा है शाश्वत रखा है आम लोगों
ने जिनका शास्त्रीयता के कृत्रिमपन से कोई लेना देना नहीं है.
बात बहुत
पुरानी तो नहीं पर पिछली सदी का अंतिम दशक था जब हम लोग एकलव्य संस्था के माध्यम
से देवास जिले कुछ जन विज्ञान के काम कर रहे थे शिक्षा, साक्षरता, विज्ञान
शिक्षण के नए नवाचारी प्रयोग, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में भी
कुछ नया गढ़ने की कोशिशें जारी थी. एक दो बार हमने घूमते हुए पाया कि मालवा में
गाँवों में कुछ लोग खासकरके दलित समुदाय के लोग कबीर को बहुत तल्लीनता से गाते है
और रात भर बैठकर गाते ही नहीं बल्कि सुनते और गाये हुए भजनों पर चर्चा जिसे वे
सत्संग कहते थे, करते
है. यह थोड़ा मुश्किल और जटिल कार्य था हम जैसे युवा लोगों के लिए कि दिन भर की
मेहनत और फिर इस तरह से गाना बगैर किसी आयोजन के और खर्चे के और वो भी बगैर चाय
पानी के. थोड़ा थोड़ा जुड़ना शुरु किया, समझना शुरू किया, पता
चला कि कमोबेश हर जगह हर गाँव में अपनी एक कबीर भजन मंडली होती है. बस फिर क्या था
दोस्ती हुई और जल्दी ही यह समझ आ गया कि भजन गाने की यह परम्परा सिर्फ वाचिक
परम्परा है.
पिछले सैंकड़ों बरसों से यह गाने बजाने की परम्परा मालवा में चली आ रही है.
कबीर भजनों की इस परम्परा का पता जब एकलव्य संस्था के लोगो को लगा था तो सबसे पहला
प्रश्न यह था कि इन लोगों में दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद ऊर्जा कहां से
आती है कि रात भर बैठकर भजन गाते है और खुलकर चर्चा करते है.
स्व नईम जी और दीगर लोगों से सीखा कि कबीर की वाचिक परम्परा मालवा और देश के कई राज्यों में बरसों से जारी है और स्व पंडित कुमार गन्धर्व ने भी इसी मालवे की कबीर की वाचिक परम्परा से प्रभावित होकर बहुत कुछ नया गुना, सुना और बुना था. बस फिर दोस्ती हुई नारायण देल्म्या जी से जो तराने के पास के गाँव बरन्डवा के रहने वाले थे वे हमारे गुरु बने, फिर प्रहलाद सिंह टिपान्या जी से दोस्ती हुई धीरे धीरे हमने देवास में एकलव्य संस्था में एक अनौपचारिक "कबीर भजन एवं विचार मंच" की स्थापना की. हमारे साथी स्व दिनेश शर्मा इस काम में जी जान से जुट गए और हम लोग भी साथ में थे. हमारे साथ डा राम नारायण स्याग थे, मार्ग दर्शन के लिए.
हर माह की दो तारीख को आसपास की मंडलियाँ आती भजन गाती और सत्संग होता. बहुत वैज्ञानिक धरातल पर बातचीत होती थोड़ा शुरू में विवाद हुआ क्योकि जिन पाखंडों और दिखावों का कबर विरोध करते थे ये मंडलियाँ उन्ही बातों को करती थी फिर लम्बी चर्चा होती और धीरे से हम सीखते कि इस वर्ग में चेतना बहुत जरुरी है और यह कबीर के माध्यम से निश्चित ही आ सकती है. भारतीय इतिहास और अनुसंधान परिषद् के सहयोग से हमने एक छोटा सा दस्तावेजीकरण करने का कार्य अपने हाथों में लिया जिसमेहम इस वाचिक परम्परा को लखित रूप में दर्ज कर रहे थे. होता यह था कि दिनेश मै या अन्य साथी कबीर मंडलियों के साथ बैठते और जो वो गाते या बोलते थे या उनके पास कोई डायरी होती हम उसमे से लिख लेते उसे टाईप करा लेते और फिर कबीर के मानकीकृत बीजक में से मिलान करते और फिर मंडलियों से चर्चा करते कि यह शब्द क्यों बदला गया या अर्थ क्या है आदि आदि. प्रहलाद जी की पहली भजन के कैसेट डा सुरेश पटेल के साथ हम लोगों ने सतप्रकाशन इंदौर से बनवाई थी और फिर यह लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि इसका जिक्र करना ही मुश्किल है. गत वर्ष प्रहलाद जी को पदम् श्री से विभूषित किया गया है. इस बीच कबीर भजन विचार मंच का काम बहुत आगे बढ़ा तथाकथित कबीर पंथियों को इस कार्यक्रम से दिक्कतें भी हुई.
साहित्य, ललित कलाओं और गीत
संगीत मालवा की खासियत रही है। शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक पंडित कुमार
गन्धर्व ने इस शहर को अपने जीवन में जो स्थान दिया वह तो सभी जानते है। टीबी जैसी
बीमारी होने के बाद जब उनका एक फेफड़ा निकाल दिया गया तो हवा बदलने के लिए वे इस
शहर में यहां आये और फिर यही के होकर रह गए, बीमारी के दौरान जब वे
अपना इलाज करवा रहे थे तो अपने आसपास कबीर मंडलियों को इकठ्ठा कर लेते थे और ध्यान
से सुनते थे. कालान्तर में उन्होंने बाकी सब छोड़कर कबीर की ऐसी चदरिया बुनी कि
सारी दुनिया देखती रह गयी। इस बीच
स्टेनफोर्ड विवि अमेरिका से प्रोफ़ेसर लिंडा हैज़ हमसे एक बार आकर मिली तो उन्हें यह
बहुत अच्छा लगा और फिर उन्होंने ऐसा काम हाथ में लिया कि पिछले दस वर्षों से वो
यही काम कर रही है. इस बीच वे प्रहलाद जी को अमेरिका ले गयी. वहाँ उनके कार्यक्रम
कई विश्व विद्यालयों में करवाए है. प्रो. लिंडा ने खुद हिन्दी सीखी और गहरा काम
किया आज वे देश-विदेश में कबीर की वाचिक परम्परा की विशेषग्य है. मालवा के भजनों और कबीर
की सुवास लिंडा के लिए यह काम बड़ा आश्चर्यजनक था कि कैसे सैकड़ों बरसों से लोग
वाचिक परम्परा को निभाते चले आ रहे है, बस फिर क्या था लिंडा पहुँच
गयी मालवा और गांव-गांव में घूमकर भजन इकठ्ठे किये। भजनों का अंग्रेज़ी अनुवाद किया
गया और फिर ऑक्सफ़ोर्ड प्रेस से उनकी किताबें आई। लिंडा यही नहीं रुकी उन्होंने देश
में और अमेरिका में भी मालवी भजनों को पहुंचाया। प्रहलाद सिंह तिपान्या और उनकी
मंडली को तीन माह तक अमेरिका के दर्जनों विश्वविद्यालयों में घुमाया और उनके
कार्यक्रम आयोजित किये। बेंगलुरु की शबनम वीरमनि ने जब यह सुना तो वे
भी दौड़ी चली आई और चार फिल्में फोर्ड फ़ौंडेशन के साथ मिलकर बना डाली। इस तरह से
मालवी कबीर के भजनों की प्रसिद्धी देश-विदेश में पहुंची. प्रहलाद सिंह टिपान्या को भारत सरकार ने पदमश्री से समानित किया. मालवा के
अंचल में पसरी यह निर्गुणी भजनों की यह वृहद और सशक्त परम्परा इस बात की इस परंपरा
के जरिये समाज के निचले तबके से बदलाव की कोशिशें जारी है।
पिछले कई बरसों में यह कबीर भजन एवं विचार मंच का काम छुट गया था परन्तु आस
पास के लोगों में एक बेचैनी थी कि कैसे इस काम को शुरू किया जाए क्योकि इस कार्य
के पहले हिस्से में एकलव्य संस्था ने आर्थिक सहयोग जुटाया था और भारतीय इतिहास
अनुसन्धान एवं शोध परिषद् से अनुदान भी लिया था परन्तु अब यह मामला थोड़ा टेढा था.
नारायण जी को सबसे ज्यादा दुःख था कि एक अच्छा कम बंद हो गया था. नारायण जी बताते
है कि पहले इस तरह के कार्यक्रमों से हमारे दलित समुदाय में चौका आरती करके कबीर
गाने वालों की संख्या ज्यादा थी और यह सब ब्राह्मण समाज की नक़ल था जिसमे समाज के
गरीब लोग फंसते थे, और उनका आर्थिक शोषण भी कबीर पंथी करते थे, भजन विचार मंच शुरू
होने से इस बुरी प्रथा पर गहरी चोट पडी थी, और यह काम नौ दस बरस चलने के बाद बंद
हो जाना दुर्भाग्य पूर्ण था. अतः हमने तय किया कि हम इसे फिर से शुरू करेंगे सबसे
बड़ा संकट वित्त का था क्योकि मंडलियों को आने जाने का किराया देना, उनके खाने और
एक रात रहने की व्यवस्था करना मुश्किल था. सो हमने दोस्तों के साथ यह कम हाथ में
लिए और शबनम वीरमणि, रवि गुलाटी, राम नारायण स्याग, अरविन्द सरदाना, आसिफ शेख,
राजेश खिन्दरी, सुरेश मिश्र प्रोफ़ेसर लिंडा हैज़, आदि जैसे दोस्तों ने शुरुआती दौर
में मदद की और हमने 2 जून 2014 को फिर से कबीर भजन विचार मंच की शुरुआत की. इस साल
में हमने महिला मंडलियों को ज्यादा आमंत्रित किया और उनसे बात की क्योकि सबसे
ज्यादा वे ही आध्यात्मिक शोषण की शिकार होती है. अस्तु ज्यादा मंडलियाँ महिलाओं की
आई और उनसे हमने भजन भी सुनें और चर्चा भी की. कबीर के साथ मीरा, रविदास, गोरखनाथ,
आदि जैसे संतों की बातों का सत्संग किया. अब आगे यह है कि हम इस काम को जारी रखना
चाहते है पर वित्त और जगह की बड़ी समस्या है, यदि देवास नगर निगम हमें कोई जगह माह
की हर 2 तारीख को निशुल्क मुहैया करवा दे तो हमें दिक्कत नहीं होगी. हमारा मानना है
कि इस समय कबीरदास का लिखा दर्शन और जीवन पद्धति बहुत मौंजू है क्योकि समाज में
स्थितियां विकट होती जा रही है. सत्तर साल के नारायण जी गत 55 बरसों से कबीर के
साधक है और भजन गा रहे है उन्होंने कबीर को जिया है और लोगों को जीना सिखाया भी
है.
यह जरुरी है कि मालवा की इस जागृत लोक परम्परा को संरक्षित रखा जाए और जो
बेहतरीन काम हुआ है उससे सीख लेकर आगे बढ़ा जाए. स्थानीय प्रशासन और सुशासन के
प्रतिनिधि इस काम को आगे बढ़ाकर इसमे एक नई भूमिका अदा कर सकते है साथ ही पंडित कुमार
गन्धर्व संगीत कला अकादमी, देवास इसमें महत्वपूर्ण
रोल अदा कर सकती है.
http://khabar.ibnlive.com/blogs/sandip/kabir-das-malawa-378275.html
http://khabar.ibnlive.com/blogs/sandip/kabir-das-malawa-378275.html
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