Total 58 % and than handicapped, women,freedom fighter and others......हो गया बंटाधार सरकार का अब समझ में आया कि सरकारे क्यों नहीं कर पाती कोई काम और क्यों तंत्र इतना सुस्त है ............जय हो...........................कितने आदिवासे इससे लाभ ले पायेंगे यह तो परे है पर सरकारी कामकाज का कितना नुकसान होगा यह अंदाज लगा सकता हूँ मै .........इसका विरोधी नहीं पर कबाड़े को देखते हुए कल्पना सहज है...........मै भी आरक्षण का समर्थक हूँ पर आज जब
सिस्टम में बैठा हूँ तो देख रहा हूँ कि एक काम को करने के लिए कितना कष्ट इन्हें उठाना पडता है और समझ के नाम पर कुछ नहीं एक हिन्दी का पत्र लिखने में युग लग जाते है.साथ ही अपनी दयनीयता और पुरे समय अपराध बोध जो इनकी अस्मिता खो देता है इससे बेहतर है कि ये अपना काम करे कुछ नया करे खेती करे या कुछ और करे बजाय इसके कि सरकारी नौकरी करे शिक्षा में जितना चाहे दे दो पर नौकरी में कुछ नहीं होना चाहिए अगर आरक्षण से सच में ही कुछ बदलता तो निजी क्षेत्र क्यों नहीं देते क्या वहा दलित नहीं है या सेना में लागू करवा दो गंगा तो मै मान जाऊ या कुछ सेवाओं में और इन्हें डलवा दो मै जान जाऊ सिर्फ कोरी बुद्धिजीविता झाडने से कुछ नहीं होगा और जीन्यू में बैठकर देश की असली हालत पता नहीं चलाती, सरकारी नौकरी में अराजकता की स्थिति बना दी है बात बात पर अजा थाणे की धमकिया देते रहते है काम तो कुछ करते नहीं और इन्ही लोगो ने जितना शोषण अजा और अजजा का किया है वो सर्वविदित है मै कतई विरोधी नहीं हूँ पर जिस तरह से सरकारी नौकरिया कम हुई है और लोगो का विश्वास उठा पूरी आरक्षण व्यवस्था से उस पर लोकतांत्रिक सम्मान नहीं होना चाहिए जन भावनाओं का क्या? सवाल तो और भी है और गहरे भी पर यह सब व्यावहारिक धरातल पर सोचा जाए ना कि भावनाओं और राजनीती पर ........हम ऊँचे जगहों पर बैठे लोगो से बेलेंस व्यवहार की अपेक्षा रखते है ना कि पूर्वाग्रह से ग्रसित विचारों की.......बिलकुल क्योकि हमारे सरोकार बड़े है व्यक्तिगत ना होकर आने वाली पीढ़ी के लिए सोचे , क्या लगता नहीं कि हमने आरक्षण के खिलाफ एक समूची पीढ़ी को विरोध में खडा कर समाज में अस्थिरता पैदा कर दी है.................? मै खुद पिछले पच्चीस बरसो से दलितो के बीच काम कर रहा हूँ और मेरा उद्देश्य भी वंचितों को हक दिलाना है पर छ ग सरकार के फैसले को देखेंगे तो यह नक्सली समस्या से प्रेरित ज्यादा है ना कि आरक्षण का हिमायती रमण सिंह नक्सलवाद को छुपाने और आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने हेतु यह कुत्सित प्रयास कर रहे है अगर यह सच में इतना ही वंचितोंमुखी होता तो क्या बात थी क्या पूर्वी राज्यों की समझ नहीं है तुम तो इन पूर्वी छात्रों से रोज दो चार होते हो मेरे भाई फ़िर वहा तो कांग्रेस की सरकारे रही है फ़िर वहा क्यों नहीं किसी को सूझ पडती असल में रमण सिंह की चाल में आदिवासी नहीं नक्सल है और असली समस्या पर ध्यान न देकर वो आने वाले चुनावो की दुदुम्भी पीट रहे है यह सब समझना बड़ा मुश्किल है कमाल यह है कि कामरेडों की नगरी में रहकर इस सीधे से गणित को नहीं देख पा रहे............. Himanshu Kumar जो लंबे समय से है Ilina Sen जो जमीनी मुद्दों पर काम कर रही है इस विषय पर ज्यादा रोशनी डाल सकते है वो शायद मेरे विचारों से सहमत ना हो पर इस ३२ प्रतिशत का राज तो खोल ही सकते है. मेरी तो अल्प बुद्धि है और समझ तो है ही नहीं पर जो देखता हूँ उस पर शक जरूर करता हूँ जो कार्ल मार्क्स बाबा ने सीखाया है.......
- गंगा सहाय मीणा आरक्षण की वजह से ऊंची जातियों के लोग आरक्षण प्राप्त वंचितों से घृणा करते हैं, यह बात सही है. लेकिन इसका दोषी वंचितों को नहीं ठहराया जा सकता. समस्या सवर्णों की मानसिकता में है जिन्हें दूसरों को अपने बराबर आते हुए देखना पच नहीं रहा. सवर्णों को समझना चाहिए कि हजारों वर्षों तक शोषित समुदाय अगर कुछ ऊपर उठ रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है..
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