लोगो को छाछठ बरस बाद भी अपने हक में बोलने की बात समझ नहीं आई है आज भी चापलूसी, चारण और भांड की परम्परा में हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के सामने बिछ जाते है, सवाल लोकतंत्र और लोक परम्परओं का है समाज की अपनी बदलाव की एक चाल होती है यह माना पर चुने हुए लोग जिस तरह से अपनी मन मर्जी से हमारे ही रूपयो का दुरुपयोग अपने स्वार्थ सिदधि के लिए कर रहे है वो बेहद शोचनीय है. मुझे लगता है कि लोक लुभावन नारे और चाशनी में लिपटी इन जनोन्मुखी योजनाओं को हमें समझ कर बंद करवाना होगा. संविधान में यह भी प्रावधान करना होगा कि सरकार और कार्यपालिका यह उन लोगो से पूछे कि क्या इन योजनाओं की जरूरत है जैसे कन्यादान योजना, यह सिर्फ व्यक्तिगत इमेज बनाने के अलावा कुछ नहीं है, हमें यह भी हक होना चाहिए कि चुनी हुई सरकार क्या करे और क्या ना करे ...चाहे बाँध की बात हो या पाठ्यक्रम की हालांकि कहने वाले कह सकते है कि यह हक तो आज भी है पर कहा है विधायिका में या कार्यपालिका में लोग और हमारे लोग...........आज जब सब कुछ चरम पर पहुँच कर लगभग बे असर हो गया है तो लगता है कि एक बार फ़िर से लोकतंत्र को ठोक बजाकर फ़िर से देख लिया जाए कि क्या यही वो जगह है जहां हम आना चाहते थे..........या पहुँच चुके है......एक विचार तो यह है कि क्यों न कुछ और ठोस विकल्प पर विचार किया जाए............
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