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अक्सर लोक लुभावन और लोक को समझने  में भी हम सब कुछ गुथम्गुत्था कर देते है और अंत में पाते है कि सब कुछ खत्म हो  गया मुझे लगता है कि ज्यादा नहीं पिछले दस बरसो के जनांदोलनो को ही देखा जाए तो वे बेहद संकीर्ण और संकरे रास्ते पर चले है और आपसी कलह और तनावों में वे खत्म हो गए और अंत में ऐसा लगा कि लोक नामक चीज को उन्होंने सिर्फ इस्तेमाल किया इस सबसे व्यापक जन समुदाय का हिस्सा ना वे बन् सके ना ही सत्ता को न्यायपालिका को वे अपने पक्ष में खडा कर पाए सिर्फ एक झुनझुना बन् कर रह गए आज जब मेरे जैसे लोग या कोई और कार्यकर्ता कहते है कि हमने अपना जीवन लोक और जन आंदोलनों में दे दिया तो लोग बहुत शक से ताकते है और हमें नज़ारे मिलाते हुए शर्म भी आती है क्योकि मेरे पास कुछ बताने को है ही नहीं ना नर्मदा आंदोलन ना किसी परमाणु संयंत्र का रुकना ना किसी विस्थापन का रुकना ना ही कोई बिल का पास होना ना किसी जन आंदोलन के नेता का विधायिका में स्थापित होना (सुनीलम जैसे लोग एक राजनीतिक पृष्ठभूमि से आये थे) इसलिए मेरा यह भ्रम भी टूटा ही है कि ये छुटपुट बातें कुछ कर सकती है असल में बात है कि मै खुद ही अपने कम्फर्ट झोन से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ तो किस राज्य या सत्ता से भिडू.......और फ़िर मेरे साथ कौन है अपने को ज़िंदा रकने के प्रयास में मैंने अपने साथियो को व्यवस्था का हिस्सा बनते देख लिया है तो मेरा विश्वास टूटना स्वाभाविक ही था पर आज जब बेचैनी बढ़ रही है तो लगता है कि यह समय अभी भी नहीं बीता है एक बार फ़िर से सबको कम्फर्ट झोन से खीचकर मैदान में ले आऊ और कहू..........एक चिंगारी  कही से ढून्ढ लाओ दोस्तों / इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है ..............

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