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प्रशासन पुराण 43

गधा प्रसाद अपनी तरह का एक ही था जो जिले में एक प्रमुख विभाग का अधिकारी था अब था तो था, उसके दो ही अस्त्र थे पहला वो मुहब्बत से पेश आता था क्योकि श्रीराम का अनुयायी था और रोज अपने कमरे में आने के बाद आधे घंटे तक तन मन से पूजा करता था और धन बाकी आने वाले ग्राहक ला देते थे जैसे काजू बादाम अनार, सेवफल, केले, मिठाई, और इसके अलावा दक्षिणा भी होती थी एक लिफ़ाफ़े में, गधा प्रसाद के भव्य ललाट पर सिंदूरी बिंदी उसकी भव्य आस्था और विश्वास को प्रगट करती थी छोटे लोगो से लेकर गरीब और अमीर गुर्गो तक वो सबको उपवास का महत्त्व, सगुनी ईश्वर की धारा, ग्यारस, प्रदोष और नवरात्री का ज्ञान बांटता रहता था फ़िर जाते समय कहता कि गौशाला के लिए अनाथाश्रम के लिए या प्रभु राम के लिए कुछ देकर जाओ..........उसका कहना वाजिब भी था, घर से दूर यहा वो समाज सेवा करने तो आया नहीं था. बस सबसे प्रेम और श्रद्धा से रहता. उसका दूसरा हथियार था अस्त्र एक दिन गधा प्रसाद ने कहा कि भय बिन प्रीत ना होय की तर्ज पर प्रभु राम के समान  अस्त्र उठा लिया और अपने ही खासमखास को निपटा दिया एक ही वार में, चुप तो सब थे शासन प्रशासन पुलिस और मीडिया, समूचे प्रांत में फ़ैली इस खबर पर राज्य में कही कोई असर नहीं हुआ स्थानीय धृतराष्ट्र भी चुप था उसके कौरव भी चुप थे प्रदेश के दूत जो खबरे लाते ले जाते थे, को गधा प्रसाद ने मेनेज कर लिया. समय का चक्र चल रहा है गधा प्रसाद घूमता है फिरता है राज्य के महत्वपूर्ण पद बैठा रोज प्रभु की भक्ति में तल्लीन है और तटस्थ भाव से रोज का धंधा पानी कर रहा है जैसे गधा प्रसाद के दिन फिरे वैसे सबके दिन फिरे ( प्रशासन पुराण 43)

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