● ज़िन्दगी आगे बढ़ती हुई जो ख़ाली जगह छोड़ती जाती थी, उसमें गुज़री हुई घटनाएँ अपना घर बनाती जाती थीं…क्या एक उम्र के बाद आदमी जीता एक तरफ़ है और जागता दूसरी तरफ़? जब सचमुच जागता है, तब पता चलता है, जीने का अर्थ पता नहीं कहाँ रास्ते में छूट गया…क्या यह सबके साथ होता है…या सिर्फ़ मेरे साथ हो रहा है?
● वो [ज्ञान] जब आता है, तो बहुत देर हो चुकी होती है
- निर्मल वर्मा (अंतिम अरण्य)
इन दिनों फिर से पढ़ रहा हूँ "अंतिम अरण्य", और नए अर्थ खुल रहें हैं - जीवन, रिश्तों और समझ के , कम से कम दस बार तो पढ़ चुका था पर होता है ना, जब आप किसी पात्र से एकाकार हो जाये, जीवन की गति मन्दसप्तक से होते हुए धैवत और पता नही कहाँ - कहाँ चली जाए तो लगता है सब छोड़कर, सारे तनाव भूलकर अपने - आप से समानुभूति रखनी चाहिये - अपने आप के उस किरदार से जो आपको लगातार कचोटता है, धिक्कारता है, सतर्क करता है, पुचकारता है, आपको अपराध बोध में रखकर शोशेबाज बनाता है, सवाल पूछता है, भय दिखाता है और बार - बार एहसास दिलाता है कि सब त्याग दो, मुक्त हो जाओ और निकल पड़ो - बगैर डरे हुए उस मार्ग पर जो अंततः अनिवार्यतः आएगा ही एक न एक दिन
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