Skip to main content

Drisht Kavi and other Posts from 20 to 22 May 2022

इधर 3 - 4 किताबें साहित्य क्षेत्र के दिग्गजों की पढ़ी, विशुद्ध बकवास के सिवा कुछ नही है, अब जब तक कोई बहुत तगड़ी अनुशंसा नही होगी - कम से कम दस लोगों की, अब पढ़ने में समय बर्बाद नही करूँगा - बल्कि सोना पसंद करूँगा - शरीर को तो आराम मिलेगा इस जीवन में
रूपये का रुपया बर्बाद हुआ, समय - श्रम और ऊर्जा अलग
कचरा क्यों आ रहा है और क्यों छाप रहे प्रकाशक, दिमाग़ गिरवी रख दिये क्या
***
मैं तो कभी से कह रहा कि हिंदी का शोध ना मात्र घटिया है बल्कि दोहराव, पुनरावृत्ति, और नकल के सिवाय कुछ नही है, ये प्रेमचंद से शुरू होते है और कुँवर नारायण पर खत्म हो जाते है, और जितने भी हिंदी के शोधार्थियों से पूछो - वे वही सड़े गले विषय बताते है - जो हजारों साल से ढो रहें है या उनके खब्ती गाइड उन्हें पिला रहें है - क्योंकि गाइड भी जहां थे उसके आगे ना बढ़े, ना वे सीखना चाहते है ; मतलब इतनी बुरी हालत है कि गाइड से बड़ा कुपढ या कुंठित कोई नही, दो - चार छर्रों को जब बोला कि क्यो बै अपने गाइड को रोज सुबह शाम यहॉं चैंपता है तो ब्लॉक करके भाग गया, इन गाइड्स को भी शर्म नही आती छात्रों के हर लिखें को या फोटो को लव की स्माइली देकर उत्साह से भर जाते है, दरअसल में इन्हें ही डाँटना चाहिये कि प्रचार ना करें, मतलब इतने बुरे हालत हैं कि पीएचडी के बाद भी एहसान उतारने को ये छर्रे अपने घर - कॉलेज आदि में बुलाकर भी ढोते रहते है - आख़िर करेंगे भी क्या - सरकारी कॉलेज रास नही आ रहें, केंद्रीय विवि में घुसना है और गाइड के लँगोट - पोतड़े धोए बिना यह संभव नही
Ammber का यह नोट तस्दीक करता है और यह तीखा पर सच है, इसके बाद भी बेशर्मी कम ना होगी , कल से ज़्यादा प्रमाण में गाइड की लीला और आख्यान यहां गीता - बाईबिल की तरह परोसे जाएंगे और रंग बिरंगे फोटो चिपकेंगे
-----
भारतीय विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग और हिन्दी साहित्य
मुझे सबसे ज़्यादा आश्चर्य उन क्रांतिवीर नए कवियों और आलोचकों को देखकर होता है जो किसानों, मज़दूरों और सभी प्रकार के शोषित वर्गों पर लम्बी लम्बी कविताएँ लिखने के बाद अपने शोधाचार्यों के तलवे चाटते हुए उन्हें जन्मदिन, विवाह की वर्षगाँठ ही नहीं बल्कि हर छोटे बड़े मौक़े पर लोट लोटकर बधाइयाँ देते है।
तो क्या कहीं प्रोफ़ेसरी पाना ही इनके जीवन का उद्देश्य है?
इनके आचार्य भी इसी संस्कृति की देन है। आश्चर्य नहीं कि सर्वजन बुद्धिजीवी (public intellectual) बनने के बजाय यह यूनिवर्सिटी के बाड़े के बुद्धिजीवी बनकर रह जाते है।
इनके शोधग्रंथ दोयम दर्जे के है, अधिकांश में घिसी पिटी स्थापनाओं के दोहराव के अलावा कोई नई स्थापना दिखाई नहीं देती। इनकी भाषा इनकी कविताएँ भी लगभग एक जैसी एक ही तरह की पत्रिकाओं में छपनेवाली है।
यह प्रगतिशील, व्यक्तिवादी, छायावादी या प्रयोगवादी न होकर चेलावादी होते है। इन्हें चूँकि कक्षाओं में बोलने का अभ्यास होता है यह धाराप्रवाह कहीं भी बोल सकते है। यह असल में श्राद्ध के घाटों पर बैठनेवाले पिंडोपजीवी पंडों का आधुनिक संस्करण है।
अत्यन्त खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि जहाँ पश्चिम में प्रत्येक दिन कोई नई पांडुलिपि खोज ली जाती है वही हिन्दी में यह काम लगभग पूरी तरह से बंद है। इनके आचार्य भी इनके शोधपत्र देखने के बजाय फ़ेस्बुक पर इनकी गतिविधियाँ जैसे इन्होंने कहाँ लाइक किया, क्या टिप्पणी की, किस लड़की के संग फ़ोटो खिंचाया आदि देखकर ही इन्हें डिग्री देते है।
चंद प्रोफ़ेसर इसके अपवाद है और वह अधिकतर स्त्रियाँ है।
शेष चेले खड़े करने, उनसे खुद के काव्यसंग्रहों पर समीक्षाएँ लिखवाने, नई कवयित्रियों को फ़ोन करने और पुरस्कार पाने की जुगत में लगे रहते है।
केदारनाथ सिंह के बाद हिन्दी विभाग से कोई अच्छा कवि नहीं आया। वैसे कवि बनने का विश्वविद्यालय की नौकरी से कोई सम्बंध नहीं है मगर इन विश्वविद्यालयों को कवियों का मक़तल तो कहा ही जा सकता है।
दुनिया की किसी भाषा में विश्वविद्यालय साहित्य की ठेकेदारी नहीं करते मगर हिंदी विभाग का आचार्य खुद को साहित्य का फ़र्स्ट ग्रेड कॉंट्रैक्टेर मानकर ही पैदा होता है।
आचार्यों और उनके शोधार्थियों के आपसी व्यवहार को लेकर एक
आचारसंहिता बनाना अत्यन्त आवश्यक है— जैसे शोधार्थी आचार्यों की सार्वजनिक चमचागिरी नहीं करेंगे, उनके घर नहीं जाएँगे, उनके लिए सब्ज़ी नहीं लाएँगे, उनकी बहू की डिलीवरी के समय जापे के लड्डू नहीं बाँधेंगे और बेटी के ब्याह में पेटीकोट की तुरपाई नहीं करेंगे आदि।
किसान का बेटा मास्टर बनना चाहता और किसान के लिए कविता लिखकर लड़ना चाहता है यह इस देश की सबसे बड़ी विडम्बना है।
***
अग्रज Banshilal Parmar जी ने अभी बड़ी मजेदार भविष्यवाणी की है एक पूर्व ब्यूरोक्रेट के बारे में कि " हो ना हो यह यह स्व अजीत जोगी की तरह राज्यसभा में जाने को उत्सुक हो", और हो सकता है यह सम्भव भी हो जाये
आमीन
"अपना क्या है इस जीवन में संघ से लिया उधार
सारा लोहा लँगड अपना, उनकी केवल धार"
[ अरूण कमल से मुआफी सहित ]
***

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...