दीयों की जगमगाहट में साँसों का सफ़र
टिमटिमाते दियो की एक लंबी श्रंखला थी अंधेरे को चीरते हुए ये नन्हे
दिये जब एक साथ जलते तो लगता मानो आसमान
से कोई रोशनी की लड़ लटक रही है धरा पर और आहिस्ता-आहिस्ता सारा अंधेरा भाग जाएगा
और तिमिर में छिपे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे. यही दिये थे छोटे-छोटे जिनमें कोई
डिजाइन नहीं था, कोई लकदक चमक नही थी, परंतु मिट्टी के बने हुए इन दियों की जो
खुशबू थी वह आज भी जेहन में बसी हुई है, ठेलों पर या बाजार में नीचे बैठकर बेचती
कोई बूढी माई से मोल भाव कर दियों के साथ लक्ष्मी की मूर्ति लाना और उसे आँगन में
बने अस्थाई मिटटी के घर में बसाना कितना कौतुक भरा काम होता था. इसके सुकून का
वर्णन करना आज बहुत ही मुश्किल है.
नवरात्रि से शुरू हुए त्योहारों की श्रृंखला आरम्भ होती. बचपन
में हजब महू जाते थे, दादी के घर जहां जन्मा था, तो दयाशंकर पान वाले के चौराहे से
दशहरे के दिन एक लंबा जुलूस निकलता था और इस जुलूस में सारे लोग शामिल होते थे,
दिन भर दौड़ होती, खेल होते, कुर्सी दौड़ होती, जगह - जगह पर मिलना जुलना होता और
शाम को एक बग्गी में सजधज कर राम, लक्ष्मण, मेघनाथ और हनुमान अपनी वानर सेना के
साथ दशहरा मैदान जाते और तीर मारकर रावण को जलाते, यह कल्पना करके ही बदन में
झुरझुरी होने लगती है, लगता है मानो रामायण के सारे चरित्र सामने आ गए हैं - आदर्श
पुरुष, राम राज, शांति के लिए युद्ध, मूल्यों के लिए युद्ध, भलाई की बुराई पर जीत..
रावण को मरने का दंभ भरते हुए हम सोना पत्ती लेकर लौटते और घर और मोहल्ले में सबके
घर जाकर बड़े लोगों को सोना देते और उनसे आशीर्वाद लेते बदले में अठन्नी या चवन्नी
मिलती या घर का बना हुआ कुछ पकवान - यह कितनी बड़ी बात थी पर समय बदला, आज जब रावण
रिमोट से जलने लगा है तो डर लगता है कि भलाई और बुराई में कितना बारीक और महीन
फर्क रह गया है मानो एक कोई पतली सी रेखा हो जिस पर हम खड़े हैं और सोच नहीं पा
रहे हैं कि हम किस तरह हैं - चारों ओर हल्ला है, शोर है.
मां और पिताजी अपनी बचत से 2 जोड़ी कपड़े खरीदवा
देते थे - एक जोड़ी हम दशहरे पर पहनते और एक जोडी दीवाली के लिए बचा कर रखते हैं. ₹100 में लगभग पटाखे आ
जाते थे जिसमे मुख्य रुप से सांप की गोली, टिकली, चाकरी, राकेट और छोटी लड़ का पैकेट,
कभी-कभी मोहल्ले में कोई रेल नामक एक पटाखा लेकर आता जिसे लंबी सुतली बांधकर चलाते,
ये रेल जब सुतली तोड़कर कहीं और घुस जाती तो सुईईईईई की आवाज के साथ तो बहुत निश्चल
भाव से मोहल्ले के सारे बच्चे ठहाका लगाकर हंसते और तालियां पीटते थे, मोहल्ले की खुरदरी जमीन पर या आंगन ओसारे में
पीतल की बरात में चकरी रखकर चलाने का जो मजा था वह कहाँ खो गया है, लक्ष्मी पूजन
के अगले दिन सुबह थाली में घर में बने दीवाली के प्रसाद के साथ बेसन चक्की, पोहे
का या परमल का चिवडा, चकली, गुझिया, बेसन के लड्डू और कोई अन्य पदार्थ लेकर अपने
परिचितों के घर जाना – एक साफ़ थाली में सजे हुए ये पकवान क्रोशिया से बने रुमाल के
साथ ढके होते थे और जब घर वापस होते तो मोहल्ले की चाची, ताई या मौसी उस थाल को
पूरा भर कर दे देती थी अपने घर के बने हुए पकवानों के साथ कि बर्तन खाली नही भेजते
है और कहती थी चकली चखकर बताना कैसी बनी है - अबकी बार चक्की वाले ने चकली के आटे
में लगता है मिलावट कर दी और खूब जोर से हंसती थी, कभी कोई मोहल्ले की दीदी क्रोशे
का रुमाल रख लेती थी और कहती थी इसका डिजाइन देख कर लौटा दूंगी अभी यहीं छोड़ जाओ
दो-चार दिन में वापस कर दूंगी और उसके बाद हम लोग किसी मैदान में चले जाते जहां
पाड़ा लड़ाई होती थी, खूब मजे से दोपहर तक वह देखते या कभी-कभी गौतमपुरा में
हिंगोट युद्ध देखने चले जाते और मोहल्ले में सबको धौंक देते और इस तरह से भाई दूज के
बाद धीरे-धीरे दीवाली का असर खत्म होता और उसकी उर्जा, ताकत और स्मृतियाँ ज़ेहन में
बस जाती थी जो साल भर तक धौंकनी की तरह काम करती थी. दशहरे दीवाली की छुट्टियां
मिलती थी तो मामा और मौसी के घर जाना और लौटने में कभी-कभी आते समय उनके द्वारा
दिए हुए कपड़े या कोई उपहार को बहुत सहेज कर संभाल कर रखना - यह जीवन की सबसे बड़ी
उपलब्धि लगती थी.
धीरे धीरे समय बदला है, बाजार रंगीन हुआ दीयों में अब ना सिर्फ रंग है
बल्कि उनके डिजाइन भी है, मिट्टी भी बदली है पर मिटटी का सौंधापन बचा नही है उसकी
सुवास गायब है. अंधेरों से लड़ने के लिए अब बिजली की लड़ो का इस्तेमाल होने लगा है,
दीवाली को बदलते देख थोड़ा अचरज जरूर हुआ - परंतु लगने लगा कि अब हम कुछ कर नही पा
रहें हैं. छोटे बड़े कुम्हार धीरे-धीरे बेरोजगार होते गए है, उनके बने दिये ना बिकते
है और ना ही किसी के काम आते थे – चाक पर
दोनों हाथ चलाते हुए उनकी आंखें आसमान तक ताकती है, रंगीन और डिजाइन वाले दियों में रोशनी तो है पर भावात्मक
जुड़ाव नहीं है, जब रोशनी के दिये दिखावट बन जाए और लोगों में प्रतिस्पर्धा करवाने लगे तो
फिर त्योहारों का कोई महत्व नहीं रह जाता. दीवाली के बाजारों में जगह-जगह भव्य
पंडाल हैं, 50% कम दामों पर चीजें बिकने लगी है - एक भीड़ है जो अंदर घुसती है
और जब बाहर निकलती है तो खुशी-खुशी ठगे जाने को महसूस भी करती है और अपने आप को
तृप्त भी मानती है. लगता है मानो हमारी सारी इंद्रियां बाजार नामक छठी इंद्री के
कब्जे में है और पांचों इंद्रियों को चला रही है त्योहारों का माहौल खत्म हो गया
है लगता ही नहीं है कि कोई त्यौहार आया और चला भी गया. मुझे याद है मोहल्ले में
सुबह तीन चार बजे उठकर महिलाएं कार्तिक माह की स्नान पूजा करके अपने दिन की शुरुआत
करती थी और मंदिरों में भीड़ रहा करती थी, पर ना कोई भोंपू होते थे और ना कोई
चुनरी यात्राएं और ना कोई भागवत - परंतु धर्म का उतना ही महत्व था, जितना सनातन
संस्कृति में रहा है परंतु आज न तो कार्तिक माह के स्नान है और ना ही मंदिरों में
श्रद्धालुओं की भीड़ - जो दिखता है वह बहुत बड़ा दिखावा जैसा है - जहां भोंपू हैं,
माइक है, चौबीसों घंटे कर्कश दुनिया है, और रास्तों पर लगे भव्य पोस्टर, होर्डिंग
और द्वार हैं जिस पर अलाने फलाने भैया के नाम और फोटो हैं जो स्वागत कर रहे हैं दीवाली
के बाजारों में मिठाइयां अपना स्वाद खो चुकी हैं.
हाल ही में 16 वर्ष की एक लड़की ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित
किया है - जब वह ललकार कर कहती है कि आप लोग हमें विरासत में एक प्रदूषण भरी
दुनिया देकर जा रहे हैं जिसमें जीना और सांस लेना मुश्किल हो गया है - क्या हम में
से किसी के पास भी उस लड़की का प्रश्न का जवाब है, जाहिर है - नहीं है, मूल रूप से
हम रोशनी की चकाचौंध में अपना भला बुरा ही देखना भूल गए हैं. अब हालात इतने खराब
हो गए है कि अपनी सांस बचाने के लिए हमें न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है,
न्यायालय हमें आदेशित कर रहा है कि हम कब पटाखे चलायें और कौनसे चलायें ताकि सांस
लेने का मूल अधिकार बचा रहें. क्या यह विपदा नहीं है ? उजालो की चकाचौंध में हमने
अपने अंधेरों की तासीर को महसूसना भी बंद कर दिया है. रोशनी इतनी है कि उनमें हमें
अब अंधेरे ढूंढने होंगे और शायद एक बेहतर समाज के मनुष्य के रूप में हमारा यह काम
भी है कि अंधेरों में हमें रोशनी ढूंढनी है और जब बहुत ज्यादा रोशनी हो जाए तो
हमें अंधेरों को खोजना होगा, तभी हम बच भी पायेंगे और रच भी पायेंगें.
धूल धुएं और प्रदुषण के संजाल में फंसे हम लोग कुछ नहीं कर पा
रहे - हर कोई यह कहता है कि मुझे इससे क्या, मेरे अकेले के करने से क्या होगा - इस
वर्ष जो गर्मी पड़ी है उसका नतीजा हमने देखा है, इस जाते हुए मानसून में पानी की विभीषिका का तांडव हम देख ही
रहें है तो क्या हमें थोड़ा रुक कर और ठहर कर नहीं सोचना चाहिए कि हम कहां जा रहे
हैं त्यौहार सिर्फ बाजार की प्रतिस्पर्धा का त्यौहार ना बने, हम बाजार की कठपुतली
ना बने, लुभावने आकर्षणों के लालच और दबाव में हम अपनी गरिमा और संस्कृति को ना खो
दें बल्कि मोहल्ले में जो आपसी मेल- मिलाप था, भाईचारा था, प्रेम था, सहकार्य था -
वह फिर से बनाएं उसे लौटाने की कोशिश करें. यदि हम सिवैया खा रहे हैं तो अपनी गुझिया
भी किसी रशीदा या शाहरुख के साथ बांटे. इस
अंधेरे समय में रोशनी खोजने को एक छोटा सा दिया उस कुम्हार से खरीद कर लाए जो लंबे
समय से मिट्टी को रौंधकर कड़ी मेहनत करके अपने हाथों से आपके जीवन का अंधियारा
मिटाने के लिए बेताब है - उसकी आस टूटने ना दें. हमें ध्यान रखना होगा उस 16 वर्ष की बच्ची का
प्रश्न - वह बच्ची हमारी, आपकी और सबकी है - उसके प्रश्न सिर्फ विश्व के बड़े
समुदाय से नहीं है बल्कि दूरस्थ अंचल में बसे हुए एक गांव के बहुत सादे से व्यक्ति
से भी हैं जो चकाचौंध में धंसकर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहा है और उसका नतीजा
यह हुआ है कि उसके सामने अभी आजीविका का संकट पैदा हो गया है - क्योंकि सोयाबीन की
फसल बुरी तरह से सड़ चुकी है उसके लिए त्यौहार के कोई मायने नहीं है पर फिर भी उसकी
जीवटता ही उसे जिंदा रखेगी - यह बात हम सब
जानते हैं. दीवाली और त्यौहार सब मनाएं पर बहुत सचेत होकर रहें यही त्योहारों
की गरिमा भी है और परम्परा भी.
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