दलित आंदोलन के साथ वामपंथ क्यों नही है या यूं कहें कि दलित आंदोलन वामपंथी क्यों नही है जबकि वे भी पीड़ित, शोषित और आज भी हाशिये पर पड़े तड़फ रहें है और बेचैन है - सत्ता, पद और सामंती व्यवस्थाओं में धंसने को - जो पांच छह पीढ़ी से सब पा गए है उनका " सवर्णिकरण " तो हो ही चुका है
एक जमाने में संसद में 40 के करीब वामपंथी सांसद थे - आज दो भी है नही सब समान है , 30 वर्ष बंगाल में ज्योति बसु ने अकेले और फिर बुद्धदेव ने राज किया, फिर नन्दिग्राम और सिंगुर हुआ और महाश्वेता देवी जैसी महिला भी ममता के समर्थन में आ गई
हुआ क्या ऐसा कि दलित आंदोलन भी वामपंथ आंदोलन से दूर हुआ जबकि वामपंथ के टारगेट ही श्रमजीवी, दलित, किसान, मजदूर, ग्रामीण, स्त्रियां या वंचित थे और वामपंथ को दलित नेतृत्व ने भी नकार दिया
एक चर्चा में आज ये सवाल उठे तो लगा कि मामला गम्भीर है दोनो तरफ के लिए - मेरी सवाल पर समझ ना उठाते हुए अपनी बात रखें और चलताऊ भसड़ वाले लोग स्माइली बनाकर, लाईक कर या घटिया कमेंट ना करें - यदि प्रश्न की समझ ना हो तो निकल लें
और संघी भाजपाई तो बिल्कुल नही , यह प्रश्न तुम्हारे ना बस का है ना समझ आएगा - तुम लोग जिनपिंग के गुणगान करो - बाप आ गया है झालर बेचने और अब मोदी के साथ उसके भाषण सुनो और जेब ढीली करो - वो यहां बासी दशहरे पर किसी को धौंक देने नही आया है बल्कि राष्ट्र प्रेमियों की पेंट उतारने आया है, तुम्हारे बालाकोट प्रेमी इमरान को जादू की झप्पी और पप्पी देकर
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सुसभ्य, सुसंस्कृत और एलीट लोगों के संगठन और साहित्यिक मंच को गांधी जैसा सॉफ्ट व्यक्ति ही चाहिए और फिर विवाद भी क्रिएट होंगे तभी चर्चा में आएंगे ना
मजेदार यह है कि क्रांतिकारी, बहुत बड़े क्रांतिकारी भी इन मंचों पर सब कुछ वह कहते है जो लोग सुनना चाहते है फिर ये सामाजिक - साहित्यिक क्षेत्र में भले ही दलित, विपन्न, वंचित और तानाशाही के लिए लिखकर ही इन मंचों पर पहुंचे हो
दास्तानगोई है , रुपयों की महिमा और हवाई यात्राओं के सुख की अपनी चमत्कारिक व्याख्याएं और आख्यान हैं
सन्दर्भ - रज़ा का मजमा और जलसा
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