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जदि तोर डाक शुन कोई ना आवे Abhijit Bainarjee Nobel Prize for Economics 14 Oct 2019

जदि तोर डाक शुन कोई ना आवे


आजादी के आंदोलन के महत्वपूर्ण नेताओं को देखें तो हम पाएंगे कि अधिकांश लोग देश में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करके ब्रिटेन में पढ़ने गए, वहां जाकर उन्होंने देखा कि वहां सामाजिक भेदभाव लगभग नही था, महिलाओं की भागीदारी शिक्षा में बहुत थी यह लोग जब लौटकर आए तो इन्होंने भारतीय शिक्षा के बुनियादी स्वरूप को बदलने की बात की
राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी को सती होते हुए देखा था गांव में - इसलिए वे बहुत आहत थे, उन्होंने विशेष रूप से लिखा था कि " हमें यूरोप की वह अंग्रेजी शिक्षा चाहिए जो हमें समतामूलक समाज बनाने में मदद करें - जहां भेदभाव ना हो और लोग बहस करें, चर्चा करें और महिलाओं की शिक्षा में बराबरी से भागीदारी हो "
हम सब जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत में आकर कोलकाता में अपना सबसे पहले साम्राज्य स्थापित किया था और वहीं से कपड़े खरीदने का व्यवसाय आरंभ किया था - स्थानीय बंगालियों ने अंग्रेजों के रहन-सहन और शिक्षा आदि का फायदा लेकर या सीखकर अपने जीवन में अंग्रेजीयत को भी ओढ़ा और शिक्षा प्राप्त की, धीरे-धीरे हम देखते हैं कि बंगालियों की संस्कृति, शिक्षा और रहन-सहन में अंग्रेजी का और अंग्रेजीयत का बहुत प्रभाव है , बंगाली विलक्षण रूप से मेधावी , संस्कृति प्रेमी और बहुत शिक्षित दीक्षित होते हैं
कालांतर में एक विशेष तरह की विचारधारा के साथ उन्होंने बंगाल का विकास करने का स्वप्न भी देखा, ये दीगर बात है कि मिखाइल गोर्बाचोव के " पेरेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त " के मॉडल के बाद वहां भी पतन शुरू हुआ और बंगाल मॉडल भी फेल हुआ, भीषण अकाल के बाद भी वे लोग उससे उबर के आए - इसलिए गरीबी को, भुखमरी को और उसके तात्कालिक एवं दीर्घकालिक उपाय भी बहुत अच्छे से जानते हैं - हम देखते हैं कि चारू मजूमदार से लेकर भारतीय राजनीति की विचारधारा में सशक्त और बेहद ठोस , संगठित और वैचारिक हस्तक्षेप करने वाले लोग बंगाल से ही आते हैं
अर्थशास्त्र की बात करें तो अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी जैसे लोग बंगाल से ही आए हैं - जिन्होंने गरीबी, भूखमरी को देखा है , समझा है और उसे हल करने के लिए वैकल्पिक मॉडल भी दिए हैं - इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव लंबे समय तक बंगाल के पूरे परिवेश पर रहा है ; केरल में ठीक इसके विपरीत मिशनरियों ने 130 साल पहले अपना काम आरंभ किया परंतु केरल साक्षरता , स्वास्थ्य शिक्षा और विकास के उच्च पैमानों के अतिरिक्त कुछ खास कंट्रीब्यूट नहीं कर पाया, नॉर्थ ईस्ट से लेकर असम तक में भी मिशनरियों का जाल रहा, अंग्रेजी शिक्षा रही - परंतु वर्नाकुलर स्कूल के अलावा वहां कुछ बहुत अधिक हो नहीं पाया
यह समझना रोचक होगा कि बंगाल में आखिर ऐसा क्या था जो लोगों को न मात्र शिक्षित - दीक्षित कर गया , बल्कि आज भी दुनिया में जब बुद्धि मेधावीता, तर्क और विलक्षणता की बात होती है तो बंगालियों की बात पहले की जाती है - चाहे फिर वह सत्यजीत रे रहे हो , रवींद्रनाथ टैगोर हो , शंकर हो, नियोगी हो, सुनील गंगोपाध्याय, शरदचन्द्र रहे हो, बंकिमचंद्र हो, राजा राममोहन राय हो ईश्वर चंद्र विद्यासागर हो , अमर्त्य सेन हो या आज नोबल से नवाजे गए अभिजीत बनर्जी और सबसे मजेदार बात यह है कि इन सारे लोगों ने व्यवस्था, सत्ता यानी पावर और समाज की कुरीतियों की जड़ों पर प्रहार करते हुए बहुत ठोस बदलाव की बात की है
अभिजीत बनर्जी का हार्दिक अभिनंदन और यह हम सबके लिए गर्व की बात है कि वे जेएनयू से पढ़े हुए हैं उन्होंने और उनकी पत्नी ने राजस्थान के दूरदराज इलाकों , थार के रेगिस्तान और भयानक सूखे की स्थितियों में रहकर शिक्षा, स्वास्थ्य, मनरेगा, पंचायती राज, विकेंद्रीकरण, सुशासन, बालिका शिक्षा, पानी और विकास के व्यापक मुद्दों का गहरा और विशद अध्ययन किया है, गरीबी को समझा है, उसका विश्लेषण किया है और न्यूनतम मासिक आय [ Universal Basic Income ] जैसे सामाजिक आर्थिक न्याय के सिद्धांतों की व्याख्या कर और वैश्विक विचारों को सामने रखकर वैकल्पिक मॉडल का भी प्रस्तुतीकरण किया है - इस वर्ष सम्पन्न हुए चुनावों में कांग्रेस ने यह प्रचार में रखा था, परन्तु दुर्भाग्य से यह शायद भारतीय जनमानस की मूर्खता है कि इसने एक वैश्विक और सफल मॉडल को अपनाने के बजाय कुंठित , सांप्रदायिक और हिंदुस्तान को पत्थर युग में ले जाने वाले मॉडल को अपनाने और आदिम युग में जाने का , अपनाने का फैसला किया और चुनाव के बाद एवम सरकार बनने के बाद बहुत जल्दी ही यानी 4 से 6 माह में ही परिणाम भुगतना आरंभ कर दिया है
बहरहाल अभिजीत बनर्जी को बहुत-बहुत बधाई

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