।।छाप तिलक सब छूटी - तोसे नैना मिलाय के।।
[ तीन खूबसूरत दिन भोपाल को समर्पित ]
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"When life itself seems lunatic, who knows where madness lies?
Perhaps to be too practical is madness. To surrender dreams - this may be madness. Too much sanity may be madness - and maddest of all: to see life as it is, and not as it should be ".
◆ Miguel de Cervantes Saavedra
तीन दिन भीगी हुई शामें थी ये, भोपाल का आदिवासी संग्रहालय यूं तो अक्सर गुलजार होता है परंतु इन तीन दिनों में जो जोश जज्बा मैंने देखा - वह शायद ही कभी देखा हो. पहले दिन बरसात थी इन कार्यक्रमों के वक्त बहुत तेजी से पानी गिरा लगभग हर दिन और भोपाल में सड़के जाम हो जाया करती हैं, लिहाजा पहले दिन बहुत सारे लोग रचना पाठ में नहीं आ पाए फिर भी जो आए उन्होंने अनिल सिंह, राजेश जोशी, स्वयं प्रकाश, प्रभात और उदयन वाजपेई की रचनाओं का पाठ सुना. हालांकि मेरे जैसे लोग कम ही होंगे जो बहुत दूर से आए थे और सिर्फ इस कार्यक्रम के लिए तीन दिन भोपाल में रुके - उन्हें संतुष्टि नहीं मिली, क्योंकि प्रभात की एक ही कहानी सुनी, स्वयं प्रकाश जी की एक कहानी सुनी, तेजी को सिर्फ 15 मिनट सुन पाए - अफसोस तो बहुत हुआ पर क्या करते हैं. बड़े शहरों के अपने दस्तूर होते हैं और कायदे भी.
दूसरा दिन अमोल पालेकर ने रियाज़ अकादमी में 3 वर्षों के दौरान बनाये चित्रों की प्रदर्शनी को उदघाटित किया और शाम का पहला हिस्सा बातचीत में निकल गया, अमोल जी ने काफी सारी बातें की परंतु जिस तरह की उम्मीद थी उनसे वह शायद पूरी नहीं हुई . कई सारे प्रश्नों को वह गोल गोल करके दबा गए और लगभग 40 मिनट में अपना वक्तव्य और बातचीत समाप्त की. इस बीच 15 मिनट के गेप में भोपाल के पुराने कई मित्रों से मिलना हुआ जिसमें न जाने कौन-कौन से मित्र थे जिनसे बरसों बाद मिला था पर रिश्तो की गर्माहट उतनी ही थी जितनी बरसों पहले थी , बहुत अच्छा लगा और यह सारा ऊर्जा देने वाला था
दूसरे दिन का आखरी कार्यक्रम अशोक वाजपेयी जी का वक्तव्य था "कला में होना" - विषय पर, अशोक जी ने जिस जोश खरोश के साथ अपनी बातचीत शुरू की और कला को लेकर समाज, साहित्य, प्रशासन , राजनीति के बरक्स अपनी बातें मुख्य रूप से 10 बिंदुओं में रखी वह अवर्णनीय है. अशोक जी को सुनना हर बार अपने आपको समृद्ध करना होता है और लगता है कि उन्हें सुनते ही जाएं - सुनते ही जाएं , चाहे वह कविता के आस्वाद पर बात कर रहे हैं , मालवा के कुमार गन्धर्व पर बात कर रहे हो , कबीर पर बात कर रहे हो या फिर घनानंद के साहित्य पर बात कर रहे हैं हो - निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय या मनोहर वर्मा को उद्धत करते हुए अपने मन की बात की, अपने स्थापनाओं की प्रतिपुष्टि भी करते हैं और पुष्टि भी करते हैं , और एक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ अपने श्रोताओं के समक्ष एक चुटकी भी ऐसी छोड़ते हैं कि पूरे सदन में हंसी की किलकारियां गूंजती रहती है - लोग मुस्कुराते हैं तब तक वे गंभीर किस्म की परिकल्पना लेकर आ जाते हैं और बहुत गंभीर बात कह देते हैं . अशोक जी का पूरा जीवन इतना वृहद और विस्तृत है कि मुझे लगता है अब उस पर काम करने की जरूरत है कभी कभार लिखते हुए उन्होंने पाठकों को और एक बड़े वर्ग को विश्व कविता से ना मात्र परिचित करवाया बल्कि कला और कला से जुड़े अनुषंगिक विषयों पर, ज स्वामीनाथन, रजा पर या हुसैन पर बहुत सारी बातें कही है. लगता है कि इन सब को समेटकर अब अशोक जी के कामों का एक वृहद काम सामने आना चाहिए - बल्कि अशोक जी पर काम आना चाहिए - यह अगर कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
तीसरा दिन सबसे अनूठा दिन था - हिमांशु वाजपई, बिंदु मालिनी, वेदांत भारद्वाज, अजय टिपानिया और देवकरण जी का अमीर खुसरो पर केंद्रित कार्यक्रम. इन तीन दिनों की मेहनत का सबसे सफल और आनंददाई कार्यक्रम था. अंकित चड्ढा से दास्तानगोई सुनने का चस्का लगा था परंतु 2 साल पहले जब अंकित की पुणे में मृत्यु हुई तो लगा कि सब कुछ खत्म हो गया - एक विधा जो सदियों से चली आ रही थी, संस्कृति बनते जा रही थी और देश के लोग उसमें रुचि ले रहे थे उसमें अंकित का यूं असमय गुजर जाना एक बहुत बड़ा शून्य था, परंतु कहते हैं ना किसी के चले जाने से कुछ बदलता नहीं है - दुनिया अपने कर्म पर, अपनी गति पर चलती रहती है. हिमांशु वाजपेयी नाम का युवा व्यक्तित्व सामने आया, इस युवा को पहली बार सुनने - देखने का मौका मिला और गया बेमन से था पर जब धैर्य के साथ सुना तो इसके मुरीद हो गए हम, तब से कुछ ऐसा चस्का लगा है कि हिमांशु का कार्यक्रम जहां भी होता है वहां पहुंच जाता हूं - सिर्फ इसलिए नहीं कि हिमांशु से व्यक्तिगत दोस्ती हो गई है, बल्कि इसलिए भी की दास्तानगोई की विधा में इस बहाने से हिंदी, उर्दू भाषाओं का सिर्फ ज्ञान ही नहीं बढ़ता, उच्चारण ही नहीं सुधरता बल्कि ये कार्यक्रम ऐसी खिड़कियां खोलते हैं कि ज्ञान , संस्कृति और गंगा - जमुनी तहजीब का अनूठा संगम सामने आता है
हिमांशु के कई कार्यक्रम अटेंड करने के बाद यह लगता है कि दास्तानगोई जैसी विधा को वर्तमान में सभी महाविद्यालयों से लेकर प्रशासनिक संस्थाओं के प्रशिक्षण संस्थानों में अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देना चाहिए - ताकि लोगों को समझ में यह आएगी, समाज के विभिन्न उजले पक्ष क्या है और किस तरह से यह समाज विकसित होते हुए कैसे एक दूसरे के साथ मिलजुल कर रहना सीखता है, सामंजस्य बिठाता है और आपस में मिलजुल कर एक देश को जिंदा रखता है और शायद यही महत्वपूर्ण कार्य हिमांशु और उनके मित्र लोग कर रहे हैं. आज भी हिमांशु ने अमीर खुसरो पर आधारित जहां एक और कहानी सुनाई वही बिंदु और वेदांत ने अमीर खुसरो की फारसी, ब्रज और हिंदवी की गजलें और गीत सुना कर महफिल लूट ली. देवकरण जी ने जहां दो बेहतरीन बंदीशें से प्रस्तुत की - वही अजय के हाथों के कमाल ने पूरे महफिल में जान डाल दी, यह कार्यक्रम इतना संवेदनशील और भावुक था कि आखिर में जब बिंदु गा रही थी - " आज रंग है री " तो पूरे खचाखच भरे हॉल में लोगों की आंखों में आंसू थे और अंत में लोग खड़े हो गए और ताली बजाकर उन्होंने इन पांचों कलाकारों को स्तब्ध कर दिया, " गायक और कलाकार हमेशा जिंदा रहना चाहिए" - यह बात मैं बार बार कहता हूं . कल अशोक जी ने जब अपना वक्तव्य दिया था तो उन्होंने कहा था कि एक वह जीवन है जिसमें हम रहते हैं और कलाएँ हमें इसी भेष में रखकर दूसरा जीवन जीने की मौका देती हैं - शायद यह बात हॉल में उपस्थित हर व्यक्ति महसूस कर रहा था, लगा ही नहीं कि 2 घंटे कब निकल गए . ख़ुसरो के बारे में और उनकी रचनाओं के बारे में फिर कभी पर प्रेम जहाँ भी होगा, अमीर खुसरो के बिना पूरा नही होगा
पांचो कलाकारों का आपस में समन्वय , एक दूसरे को दाद देने की प्रवृत्ति, आंखों ही आंखों में बात करने की समझ और सबसे ज्यादा बहुत छोटी-छोटी जगहों पर गाते बजाते हुए बारीक मोड पर एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हुए ये लोग जिस तरह से प्रस्तुति देते हैं - वह शायद आज के समय में असंभव है , जो लोग बहुत करीब से इस कार्यक्रम को देखते हैं और समझते हैं केवल वही लोग यह भाव और स्नेह की डोर हो पकड़ सकते हैं . मुझे लगता है कि इन सब को बांधने में हिमांशु और बिंदु जिस तरह से भूमिका निभाते हैं वह सच में अकल्पनीय है - बधाई देना होगी इन बिरले लोगों को जो इस विषभरे माहौल में बहुत बड़ी चुनौती लेकर , सर पर कफन बांध के पूरे देश को एक सूत्र में बांधने को निकले हैं और कभी निराश नहीं होते, बहुत सकारात्मक ऊर्जा के साथ देश के हर कोने में जाकर अमीर खुसरो, कबीर और आजादी के परवानों का विवरण सुनाते हुए देश को एक सूत्र में बांधने का महती कार्य कर रहे हैं
इकतारा के बैनर में टाटा ट्रस्ट और आदिवासी संग्रहालय के संयुक्त प्रयास से आयोजित कार्यक्रम का जितना विवरण लिखा जाए उतना कम होगा, परंतु इतना जरूर कहूंगा कि इस सारे फसाने में सुशील शुक्ला और शशि सबलोग - ये दो लोग वे है जो ना मात्र बच्चों की चिंता कर रहे हैं , बल्कि बच्चों के साहित्य के बहाने इस सदी के खत्म होते जा रहे दूसरे दशक में बहुत बड़ा काम कर रहे हैं और शायद इतिहास इस बात को दर्ज करेगा किन दो लोगों ने ना मात्र नया बाल साहित्य रचा, बल्कि हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों को जिसमें विनोद कुमार शुक्ल से लेकर स्वयंप्रकाश, नरेश सक्सेना, राजेश जोशी, रमेश बिल्लोरे , रुस्तम, तेजी , वरुण ग्रोवर , दिलीप चिंचालकर , अतनु रॉय , चंद्रकांत कुलकर्णी जैसे कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर इस तरह से गूंथ दिया है कि अब यह सृजनात्मकता की नेह डोर कभी नहीं टूटेगी - रियाज के माध्यम से 70 लोगों को इलस्ट्रेशन की गंभीर और व्यापक ट्रेनिंग दी है, कल मंच पर उमा नाम की एक युवा साथी ने जो पेशे से आर्किटेक्ट है, जिस तरह से अपना अनुभव शेयर किया - वह अनूठा था. मेरा मानना है कि भारत के विश्वविद्यालयों के सभी कुलपतियों को वहां बैठा होना चाहिए था - ताकि वे समझते कि कोई पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद एक विद्यार्थी कितना जिंदादिल, सरल , सहज और विनम्र हो जाता है, इतना कि वह मंच पर ना मात्र अपने इमोशनल कॉर्नर शेयर करता है , बल्कि 3 महीने में सीखे हुए मुख्य बिंदुओं को इस तरह से रखता है कि हर श्रोता को लगता है कि काश वह रियाज़ का सदस्य होता या अभी भी मौका मिले तो अपनी जिंदगी के सारे काम-धाम छोड़कर रियाज में भर्ती हो जाए और एक बिंदास जिंदगी जिए , इसका श्रेय भी सुशील और शशि को जाता है - जिन्होंने सीखने सिखाने का बेहतरीन खुला माहौल बनाया है, उनकी टीम में चंदन यादव , मिताली, मुदित, राजेश और निधि जैसे सशक्त लोग हैं जो इस बड़े स्वप्न को जमीन पर उतारने में खासी मशक्कत कर रहे हैं
आज जब सुशील को मैं धन्यवाद अदा कर रहा था तो मेरी आंखों में आंसू थे - कल मैंने कहा था कि एक ही दिल है कितनी बार लोगे और आज जब सुशील से गले लग रहा था और बाई ओर हिमांशु खड़े थे तो मैंने कहा अपनी जिंदगी के बचे हुए सारे वर्ष मैं तुम्हें देता हूं, बहुत जिओ, यश कमाओ, कीर्ति पताकायें फहराओ और खुश रहो - ज्यादा बोलने की स्थिति में नहीं था - चुपचाप हाल के बाहर निकल कर आ गया, यह अपने साथियों के साथ ठीक उस तरह का प्यार सम्मान था जिसकी बात हिमांशु ने आज सिखाई थी ख़ुसरो और हजरत निजामुद्दीन औलिया के बारे में - उनके निश्छल प्रेम और विश्वास के बारे में
और इस सबमें प्रिय मनोज और रश्मि का आभार कि मुझे बहुत जतन से रोज़ संग्रहालय ले गए और होटल में छोड़ भी गए
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