कुछ मत पढ़िए ना गांधी, ना भगत सिंह, ना अंबेडकर, ना सावरकर और ना गोलवलकर पर कम से कम वाचिक परम्परा से खून में आये शांति, विश्व बंधुत्व, सर्वे सन्तु निरामय और सबके कल्याण की कामना तो कर ही सकते है - इसमें किसी का कुछ नुकसान नही है और कोई भी धर्म हिंसा या अनाचार की बात नही करता , प्रार्थना और उपवास में तो हम सबको यकीन है ही फिर क्यों विचारधाराओं की लड़ाई और द्वैष भाव है - सहज और सरल रहकर समाज में सबके साथ चलने से क्या दिक्कत है और यही गांधी होना है
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अहिंसा को वर्तमान परिवेश में देखकर भी हम पुनः परिभाषित कर लें सीमा पार आतंकवाद, नक्सलवाद, मोब लिंचिंग, गाय , गोबर और गौमूत्र, विस्थापन आदि के संदर्भ में और 25 % भी सिर्फ सच बोलना शुरू कर दें भारतीय जनमानस - जिसने राजनेता भी शामिल है तो गांधी को समझना और अपनाना आसान हो जाएगा
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'शराब आज के समय की जरूरत है' यह मानने वाले और एक ऐसे समय में जब आप अश्लीलता की सारी हदें पार कर वैश्विक बाजार को नंगा नाच करने के लिए बाकायदा इन्वेस्टर्स मीट करके आमंत्रित करते है - उन्हें जमीन से लेकर सारी सुविधाएं उपलब्ध कराते हो और इन्हीं लोगों की पार्टियों में कॉकटेल के जाम टकराते हो तो क्यों फिर नशामुक्त राज्य या देशभर में ड्राय डे जैसी कृत्रिम और छदम दिखावटी बातें करते हो, अपने ही राज्य में पर्यटकों को अस्थाई परमिट जारी करते हो और अनाधिकृत रूप से शराब को डबल भावों पर ब्लैक में उपलब्ध कराते हो और इसमें सबसे ज़्यादा राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक लोग शामिल होते है - वाह रे गांधी के अनुयायियों और उपासकों - शाबाश
धिक्कार है तुम दोगले लोगों पर जो दोमुंहे सांप से भी ज्यादा खतरनाक हो
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गांधी का सबसे बड़ा नुकसान गोडसे ने हत्या कर उतना नही किया जितना गांधीवादियों ने मठ, अड्डे और राजघाट बनाकर किया, खादी के भेष में छिपे दरिंदों ने पहले बड़ी बड़ी जमीनें हथियाई अपरिग्रह आंदोलन के नाम और, फिर भवन बनाएं, फिर चरखे चलाने के नाटक से लेकर शिक्षा और बुनियादी तालीम के नाम पर गांधी को फोकस में रखकर देशी विदेशियों को परोसा और खूब बड़ी बड़ी जुगाड़ लगाकर अनुदान बटोरे और उन अड्डों में सारे धत करम हुए हॉस्टलों से सप्लाय तक की गई युवतियां यह मेरी पढ़ी हुई खबरें है और जब भी किसी ने प्रश्न किये अनुदान, ज़मीन, भवन या कार्यशैली पर तो अहिंसा के नाम पर 70 - 75 साल के गांधीवादी बूढ़ों को भी किसी सड़क छाप गुंडे की तरह लड़ते देखा हकीकत में भी और सोशल मीडिया पर भी - कुल जमा बात यह है कि गांधी आश्रमों, भवनों और कस्तूरबा निधि ट्रस्टों से सबसे ज्यादा नुकसान किसी को हुआ तो गांधी को और फायदा हुआ तो गांधीवादियों को
इनके हाथ बड़े लंबे हैं
पांव नहीं इनके खंभे हैं
गांधी का चरखा चबा गए
भरे पेट पर देश खा गए
फिर भी ये भूखे के भूखे
मांग रहे अनुदान.......
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भारत मे बगैर शोध और तथ्यों के हिंदी, अंग्रेजी जगत ने गांधी पर इतना लिखा कि अब ना कोई गांधी पढ़ रहा और ना समझ रहा , जिस देश ने गांधी जैसा क्रांतिकारी लेखक गांधी के रूप में पैदा किया उसे पढ़ने के बजाय लोग भयानक पेल रहें है उनका क्या किया जाएं - तमाम सरकारें, न्यूज एजेंसी, फीचर सर्विस और पत्रिकाएं इतनी प्रामाणिकता से लेखकों के आलेख, विचार, विज्ञापन और कूड़ा छाप कर अनुदान बटोर रहें हैं कि अब गांधी कही से देख रहें होंगे तो लिखेंगे कि " असत्य और भ्रामक जानकारियों के लेखन प्रयोग "
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राष्ट्रीय प्रतीकों, हर गली मोहल्ले के तिराहों - चौराहों पर गांधी की मूर्ति लगाकर, बजबजाती हुई सड़कों और गांजा भाँग के चौराहों के नाम गांधी पर रखकर और सबसे ज़्यादा नोट पर गांधी के फोटो छापकर हमने गांधी को बेहद उबाऊ, सस्ता और चलताऊ किस्म का शख्स बना दिया है और अब सिर्फ गोडसे को गाली देकर अपनी भड़ास निकाल रहें हैं - वस्तुतः हम सब गांधी के हत्यारे ही हैं
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150 के गांधी मना रहें हैं
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कितने स्कूल शिक्षक, महाविद्यालय के प्राध्यापकों के पास गांधी कृत " सत्य के साथ मेरे प्रयोग " यानि गांधी जी की आत्मकथा है हमारे स्कूल्स कॉलेज के लोगों के पास या किसी ने सच में पढ़ी है
देवास के किसी भी शासकीय महाविद्यालय के किसी प्राचार्य / प्राध्यापक के घर भी यह क़िताब नही है - ना ही 5 महाविद्यालयों के पुस्तकालयों में [ केपी कॉलेज, लॉ कॉलेज, गर्ल्स कॉलेज, साइंस कॉलेज एवं शिक्षा महाविद्यालय - निजी छोड़ दीजिए ]
और सारा देश बकवास कर रहा है कि दो दिन बाद हम 150 जयंती मनाएंगे
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