अपनी भाषा के अपने शब्द - एक पसेरी धान, दो धडी ज्वार, आठ आना की कोथमीर, नौवारी लुगड़ो, छह सूत की दीवार, दो गज, दो कोस , एक बिलास, छह अंगुल, दो मुठ्ठी, अंजुरी भर, छटाँकभर, आदि - कितने मीठे शब्द है और अपनत्व से भरे हुए है और मापन और त्वरित समझ का ये मजा आधुनिक मात्रक प्रणाली में कहां
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कश्मीरनामा पढ़ रहा हूँ वहां एक जिसमें जैन-उल-आब्दीन के समय उत्पादन को एक गधे की पीठ पर ढोये जाने वाले अनाज से नापा जाता था जिसे खरवार कहते थे। एक खरवार यानी एक गधे की पीठ पर जितना अनाज लादा जा सके। साथ ही जमीन नापने के लिए ज़रीब का प्रयोग शुरू किया गया।
और ' रत्ती भर ' तो सब भूल गए। ' धेले भर ' की अकल भी खोजते थे उन दिनों ।
टका सेर भाजी टका सेर खाजा
दो घड़ी" आम लइ आया एक बार हाट में से , मजे को रस करयो ने मजे लइ ने खायो
नो दन में ढाई कोस
घनानन्द प्यारे सुजान सूनो
मन लेहो पे देहो छटांग नही
मण भर अनाज
लाख टके की बात कही आपने
सोला आना सई.
सब धान एक पसेरी है आजकल
खूब सुन्दर, रस भरी और गहरी बात कही सन्दीप भाई।
इन शब्दों में यह विनम्रता घुली हुई है कि हम दुनिया को अंदाज़ से ही समझते हैं, अपनी ज़रूरत के हिसाब से ही समझते हैं। अन्तिम सत्य किसी के पास नहीं है। ऊँचे-बड़े वैज्ञानिक भी यही बात कहते हैं, लेकिन कई साधारण और अनपढ़ लोगों को इस बात की सहज समझ थी, महँगी शिक्षा के बिना ही। ऐसे-ऐसे कारीगर थे जो बारीक-से-बारीक चीज़ को नज़र से नाप लेते थे। तभी तो "गजधर" शब्द बनाः यानी जो नापने वाले "गज" को "धारण" कर ले। असली उस्तादी नज़र से नापने में होती थी। अगर नाप के नापा, तो कहाँ के उस्ताद? छटाँक-दो-छटाँक में दुनिया नप जाती थी। और ये शब्द हाथ से काम करने वालों के गढ़े हुए लगते हैं, तभी इनके रूपक शरीर के पास से हैं, व्यवहारिक हैं। शरीर की गति और मशीनी गति की तुलना जो गांधीजी ने की, वह भी संभवतः इसी भाव की थी।
Spoan Joshi
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