गाथा जिसपर पारदर्शिता आवश्यक है
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किसी भी फेलोशिप को प्राप्त करने के लिए देने वाले का पड़ोसी होना जरूरी है
देने वाले को गाहे बगाहे लिफ्ट देना, उसकी सब्जी भाजी की थैली उठाना, उसके बच्चे की पॉटी धोना और कभी कभी मौका मिलने पर संवेदनाओं का नाटक करना भी बेहद जरूरी है
यदि आपके पास कुछ घटिया कहानी और काम के नाम पर बकवास कहानियां है जिन्हें सुनाकर आप महीनों मुफ़्तख़ोरी कर लोगों को पका सकते है तो आप सर्वथा योग्य व्यक्ति है
यदि आप गांव कभी गए थे - दो चार पांच के साथ गमछा ओढ़कर , राजधानी से किसी के संग लदकर आंदोलनों और एक्टिविज्म के श्राद्ध में और अभी तक आपको एकाध दलित, आदिवासी या कोई और बाबू , पटवारी की कहानी याद हो तो आपको राष्ट्रीय स्तर की फेलोशिप जुगाड़ सकते है
यदि आप किसी ब्यूरोक्रेट को लपेटे में लेकर एकाध बार पब्लिक में उससे तुम, या अपनत्व से बात कर लें और एकाध कभी भी क्रियान्वित ना होने वाला आदेश दो कौड़ी के विभाग से निकलवा दें तो फिर आप 65, 66 या 70 वर्ष के हो जाएं आपको फेलोशिप से जबरन नवाज़ दिया जाएगा
अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में आप भले ही विशुद्ध ब्राह्मणवादी रहें हो या अभी कान में जनेऊ लपेटकर मूत्र विसर्जन करते हो पर आपको दलितोत्थान, आदिवासी और जाति मिटाने के लिए फेलोशिप मिल जाएगी
व्यक्तिगत जीवन में स्त्री आपकी कमजोरी रही हो , पूरा देश और जगत दुनिया जानती हो कि आप नैपकिन की तरह अपने जीवन में स्त्रियां बदलते रहे हो, बूढ़ा होने पर भी आपकी लार का अंत नही - चाहे पाँव टूटे या हाथ, दिमाग़ ठिकाने भले ना हो, पर जेंडर, महिला समता के नाम पर ज्ञान की बकलोली कर आप बेशर्मी से उन्ही महिलाओं से फेलोशिप ले सकते है जो आपकी नपुंसकता की शिकार रही हो या एक पत्नी (लव मैरिज वाली ) के बाद भी विजातीय या अन्य मुक्ता के साथ रहकर एन्जॉय करते हुए फेलोशिप ले सकते हो2
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यदि आपने कुछ कभी लिखा और यहां वहां छप गया तो आप पत्रकार हो सकते है , सुबह उठकर चड्ढी पहनकर अखबार के हॉकर बनें और धीरे से एजेंसी लें और स्थानीय किसी ब्यूरो को मारकर आप गद्दी हथिया लें
फिर लेख - आलेख लिखना शुरू करें, यदि थोड़ी समझ हो तो अडोस - पड़ोस में चल रहे मिट्टी, कीचड़, टट्टी - पेशाब से लेकर आंध - बांध, नदी - नालों या ऐस - गैस के आंदोलन से जुड़ जाए - भगवान भला करेगा
करना कुछ नही - खादी भंडार जाइये, दो चार लकदक कुर्ते खरीदिये - 2 अक्टूबर के आसपास छूट में , दो जींस, किसी हाट से गमछा और बस आते - जाते रहिए, टपरी की चाय पीते - पिलाते रहिए और आपके लेख सेटिंग से छप ही रहे है , कोई तेज़ी से बढ़ता अखबार ज्वाइन कर लीजिए और मंत्रालयों में रोज़ ब्यूरोक्रेट्स की आरती उतार आईये - बस हो गए पापुलर जनसेवक, विकास पत्रकार या एक्टिविस्ट
फिर रोज़ अखबार बदलिए, इस बीच कोई ना कोई एनजीओ घास डाल ही देगा , कोई ना कोई मीरा दीवानी बनकर आपके एटीट्यूड झेलने को भगवान भेज ही देगा जीवन में, आप उसको मजे में खूब भोगिये, मीडिया की मीराओं को उनके घर जाकर च च च करते हुए बाम मलिये और काम पर चलिए , हाँ बीयर पिलाना और सुट्टा मारना भी सिखाईये ताकि ये कन्याएं दिल्ली में पहुंचे तो पूर्णतः वर्जनाओं से मुक्त हो जाएं
फेलोशिप लेने के लिए अपनी व्यभिचारी प्रवृत्ति को बरकरार रखते हुए आप यदि ज्यादा ही क्रांतिकारी दिखना चाहते हो तो किसी भी पिछड़े जिले की शुद्र, आदिवासी या अन्य कोई पढ़ी लिखी कन्या से ब्याह की भी नौटंकी रचा लीजिए - फिर आपसे बड़ा सत्यशोधक नही समाज में - मस्त बीड़ी पीकर जिगर की आग बुझाते रहें देश विदेश घूमते रहें किसी का बाप आपको अंतरराष्ट्रीय या यूएन की फेलोशिप मिलने से नही रोक सकता
कामरेड, समाजवादी, गांधियन, कांग्रेसी और संघियों से यारियां निभाते हुए अपना उल्लू सीधा कीजिये - आपको निश्चित ही मिड कैरियर की कोई ना कोई फेलोशिप मिल जाएगी - मजे में तीन माह से लेकर दो साल तक का "सबाटिकल" लीजिए और जी भरकर बकलोली करिए - क्योकि फेलोशिप का अर्थ है खुलापन, फिर चार पांच लाख हड़फ भी जाएं और रिपोर्ट भी ना दें तो कोई खान घण्टा नही उखाड़ सकता, इस रुपये से आप दो चार कुत्ते - कुत्तियाएँ भी खरीदकर ब्रीडिंग का धंधा खोल सकते है - अरे यार कार आदि तो साला दस लाख का खेल है और फिर जरूरी भी है ना - यू नो
फेलोशिप एक स्वर्ण मृग है जो लंका ले जाता है और अंत में फेलो को परम विद्वान ज्ञानी रावण की तरह मरना पड़ता है - और मौत के समय कोई मंदोतरी या सीता भी आखिरी समय में साथ तक नही देती
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1972 का समय था मप्र जैसे घोर पिछड़े आदिवासी दलित प्रदेश में समाज विकास का काम फेलोशिप से ही शुरू हुआ था शीर्षस्थ लोग इस शब्द, इसके मायने और इसके विस्तार से वाकिफ थे, उस्ताद थे इसलिए सरकार को ही चुना लगाकर सीनियर फेलो बनकर यहां चरने चले आये अभी तक सुरक्षित है और प्रोफेशनल चरवाहे है अब तो
उनके रूप रंग, अंग्रेज बीबियां और रुपयों की आमद देखकर कई स्थानीय भी यह हुनर उन पापड़ बड़ी उद्योगों में जाकर सीखने लगें, जो बच्चे लंगोट में सू सू करते थे - वे यह सब गू मूत पी पाकर बड़े और विद्वान बन रहे थे, गांवों से निकलकर शहरों में आयें, नकल की, पास हुए फिर कलम घिससु बनें
एनजीओ में रहें वहाँ संजाल में फंसकर समझें कि शहद किधर है यूनिसेफ में या किसी गोरी चमड़ी में सो कागज आर पार किये और धन संपदा और वैभव के समंदर में लायसेंस लेकर डूबे यह चीखते हुए कि खुसरो दरिया प्रेम का - वाकी उल्टी धार
नया था सो क्या किया एक ही कुलदेवी थी फेलोशिप देवी सो पकड़ लिए पांव और घर भर, बीबी बच्चे, इमोशन, अक्ल, बुद्धि, ज्ञान, अज्ञान, जुगाड़, सेटिंग और कमीशन का भोग लगाकर पहले एक पाई फिर दो और अब कोई जगह नही छूटती जहां से फेलोशिप देवी की कृपा ना बरसें - एक चार लाख की तो दूसरी छह, तीसरी बारह तो चौथी चौबीस की है, कुछ एक साल की तो कुछ पांच - बस ऑलिव ऑइल का मसाज करते रहिए और फल पाते रहिये
पूरी बेशर्मी एनजीओ में सीखी चोरी - चकारी , अकॉन्ट्स में हेरफेर, फर्जी बिल बनाने की पारंगतता, फर्जी रिपोर्टिंग, गूगल देव से कॉपी पेस्ट कर पीपीटी से लेकर रिपोर्ट बनाना, सरकारी सर्वे रिपोर्ट का बेजा इस्तेमाल और यह सब कर संसार के दूरस्थ इलाकों में जाना और ज्ञान की जड़िया बांट आना जिसमें अपने यहां की गरीबी, भुखमरी और आंकडों की बाजीगरी जिसे बेचकर आप राजधानी में दो से तीन बेडरूम के 3 - 4 फ्लैट और मकान खरीद ही सकते है
फेलोशिप के लिए एक बुनियादी शर्त है कि आपमें रीढ़ ना ही हो बाकी सब भालो आछी, सब मजा मा छे
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