पानी, भूख और आजीविका की समस्या देखना हो तो आईये बघेलखण्ड के दूर दराज बसे आदिवासी गाँवों में। यहां साम्राज्य है गरीबी, बेहाली और अव्यवस्था का पर है कोई जो इनकी बात मप्र की सरकार तक पहुंचाए जो धर्म, ऐयाशी और पाखण्ड में राज्य को डुबोना चाहती है ?
शिवराज जी के इतने मान मनोवल के बाद भी ये लोग पाप धोने उज्जैन नही आये जहां सरकार ने इतना पानी बहाया और साधू सन्तों ने इतना खाना खिलाया कि इन जैसे दस बीस गाँव तो दस वर्ष खा सकते थे और खेती भी कर सकते थे पर ये पिछड़े लोग सुधरना नही चाहते अब बारह साल भुगतेंगे !!!
यहां स्थितियां इतनी खराब है कि यदिं कोई बहुत ही संवेदनशील शख्स हो तो बुद्ध बन जाए या संसार त्याग दें, पर प्रशासन से लेकर सरकार को कोई फ़िक्र नही इनकी। सिरमौर के विधायक भी मिलें पर उन्होंने अगले चुनाव की गोटी खेलना शुरू कर दिया है। एक दूरस्थ ग्राम ओवरी में हमारे सामने बिजली स्वीकृत हो गई है और जल्द ही गाँव में आ जायेगी जैसा झुनझुना बजाकर फुर्र हो गए जबकि इस गाँव में आज तक कोई अधिकारी नही पहुंचा है। जाने का रास्ता नही इस गाँव में और ठीक इस बस्ती के ऊपर से आये खैरवार आदिवासी संकटों से सदियों से जूझ रहे है ।
रीवा जिले के पहले रेलवे स्टेशन डभौरा जैसे कस्बे में दो दिन तक बिजली नही थी आंधी की वजह से, पूछने पर पता चला कि स्टाफ ही नही है, तीन छोटे बच्चों की बिजली गिरने से मौत हो गयी जब उनमें से एक बच्चे के घर ग्राम भूमन में मैं गया तो जो दारुण दृश्य था, जो पीड़ा उन्होंने व्यक्त की वह शब्दों से परे है। उसके पिता शंकरगढ़ में ईंट भट्ठों पर काम करते थे, बड़ा भाई हैदराबाद में मजदूरी , माँ गाँव में तेंदू पत्ते बीनती है घर में खाने को कुछ नही, बूढ़े दादा दादी है जो बच्चे सम्हालते है । बच्चे की मौत के दूसरे दिन घर इकट्ठा हो पाया था और अब उनके पास रोने के सिवा कोई विकल्प शेष नही है।
जी हाँ ये सिंहस्थ प्रदेश है जहाँ 5000 करोड़ रुपया बर्बाद करके वैचारिक महाकुम्भ आयोजित किया गया और जमीनी हालात ये है ।
तय करिये कि दो साल की सरकार और उनके राज्यों में बैठे लोग किसके लिए और क्यों विकास की डुगडुगी पीट रहे है !!!
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सतना के मझगवां के पास कोई कुठला पहाड़ है जो मुड़िया देव पंचायत में है , इसके बारे में एक किवदन्ती है जहां मवासी, खैरवाह आदिवासी और लोध समुदाय रहते है। कहते है कि इन समुदायों को जिस बात की आवश्यकता होती थी वे इस पहाड़ पर स्थित एक गुफा पर पहुंचकर मांग करते थे मसलन उनके यहां शादी है तो कपड़ा चाहिए, राशन चाहिए, आभूषण आदि, गुफा का दरवाजा बन्द रहता था, जाने वाला व्यक्ति आने का समय बताकर लौट आता था। और अगले दिन निश्चित समय पर पहुंच जाता था, गुफा का द्वार स्वतः खुल जाता था और लोग अपने द्वारा चाही गयी सामग्री लेकर लौट आते थे, और फिर गुफा का पत्थर का द्वार स्वतः बन्द हो जाता था।
यह गुफा लोगों की जरूरत पूरा करती थी, आदिवासी सहज भाव से सामान भी वापिस कर देते थे और जितना चाहिए होता उतना ही मांगते थे। इस सामान की बरकत बहुत रहती थी। कहते है गुफा में कोई प्राकृतिक शक्ति थी जो गरीबों की मदद करती थी और आड़े समय में उनका हमेशा साथ देती थी।
अब से पचास वर्ष पहले तक यह कर्म जारी रहा, बाद में लोग ज्यादा मांगने लगे, लालच आ गया, और सामान वापिस नही करते तो आखिर वह गुफा हमेशा के लिये बन्द हो गई, और इस तरह से प्राकृतिक शक्ति का मददगार दरवाजा हमेशा के लिए बन्द हो गया है। बढ़ते बाजारवाद ने आदिवासी को चतुर और लोभी बना दिया और इस तरह से एक रहस्य खत्म हो गया।
यह कहानी दर्शाती है कि किस तरह से सहजपन, ईमानदारी और लौटाने की मानवीय प्रवृत्ति खत्म हो गई और बाजार ने हमे घोर अनैतिक, भृष्ट और बेईमान बना दिया है।
कहानी का स्रोत - शिव कैलाश मवासी, ग्राम मझगवां (भट्टन टोला)
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सारनाथ एक्सप्रेस, दुर्ग से छपरा,
25/5/16
S-11
Berth no 61, 62, 63
तस्वीर सतना और डभौरा स्टेशन के बीच अपुन ने हिंची है।
सिर्फ इसलिए कि तस्वीरें बोलती है
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