उफ़ गोविंदा ...........बकलम Subodh Shukla
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सुबोध ने एक वर्जित फल की तरह से बुद्धिजीवियों के बीच अछूत गोविंदा और उनके पूरे फिल्मी संसार को जिस अंदाज में लिखा है पिछले सात दिनों में यकीन मानिए मै तो क्या आप भी गोविंदा से प्यार करने को मजबूर हो जायेंगे. और हाँ सिर्फ इतना कि एक लगभग विक्षप्त, निर्लज्ज छबि को समाज में स्थापित करने वाले एक हीरो और एक विशेष दर्शक वृन्द को संबोधित करने वाले हीरो को हमारा साहित्य का अनुरागी और एक जवान होता युवा कैसे देखता था, आज जब वह पलटकर अपने उस काल को देखता और विश्लेषित करता है तो कैसे पूर्वाभासों और बदलाव को देखता है. यह छोटा सा प्रयोजन मूलक लेखन बहुत गहरे इशारे भी करता है और सतर्क भी.
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I
नब्बे के दौर में जवान होने के लिए गोविंदा एक वर्जित फल की तरह काम्य और निषिद्ध दोनों था. गोविंदा हमारी जवानी का सूचकांक था. भद्रता की पतलूनों में हम उसे चोर-जेब की तरह रखते थे. वह हमारे संस्कारों का रेड लाइट एरिया और आस्वादों का कॉफ़ी-हाउस हुआ करता था. उसने बताया कि कैसे लम्पटपन एक सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी है, झूठ एक प्रतिरोध है, ठगी एक दर्शन और इश्क हाथ की सफ़ाई है.
II
गोविंदा को बारगेन नहीं किया जा सकता था. वह ब्लैक में मिलने वाली चीज़ थी. उसके कट-पीस उपलब्ध नहीं थे....उसे तो पूरा थान में ही उठाना होता था....
III
उसने हमारे दौर को संस्कारहीन किया. शिष्टाचार के ट्रेड-मार्क बदले. जालसाज़ी को सौन्दर्य-बोध बनाया और कुतर्क को एक्टिविज़्म. वह हिन्दी सिनेमा में कट्टरपंथी मनोरंजन का प्राक्-पुरुष है.
IV
वह नसीहतों के कब्ज़ों पर मनमानी की जंग की तरह चढ़ा था...हमें जो गुनाह बताया गया था वह उसे अदब कह रहा था. शर्म को रैकेट की तरह इस्तेमाल करने वालों के बीच उसने बदमिजाज़ी को धर्म और फ़ितूर को कारोबार बनाकर खड़ा कर दिया.....
V
उसने लोकाचार के सारे नैरेटिव्स तोड़े...वह बेडरूम को चौराहों तक ले गया, विफलता को हुनर तक और हास्य को हिंसा तक......उसने निजता को जुमले की तरह इस्तेमाल किया और उसे लगभग अवैध बना डाला......
VI
उसने कला की ज़मींदारियां ख़त्म की.....नायक हमारे पड़ोस, नुक्कड़ों और गलियों का एक लावारिस और बदतमीज़ सा चेहरा हो गया.. उसने 'हैसियत' को उसकी 'औकात' दिखाई, अभिनय से हफ्ता वसूला और पटकथाओं से फ़िरौती.....
VII
उसने 'सार्वजनिकता' को गिरोहबंद किया और 'व्यक्ति' को तस्करी के माल में बदला... पर तात्कालिकता की कालाबाज़ारी करते हुए कब वह कल्पना की ख़रीद-फ़रोख्त में समय को बैंक्रप्ट करता चला गया पता ही नहीं चला... गोविंदा हमारे दौर का सबसे सफल, उत्सवधर्मी और दीर्घजीवी आत्मघात था, बिला शक.....
समाहार
इसी के साथ हर पोस्ट पर भाई Vivek Nirala के अदभुत कमेंट्स और सुबोध के साथ की गयी जुगलबंदी भी काबिले तारीफ़ थी. शायद ही किसी फ़िल्मी हीरो के बारे में ऐसा लिखा गया होगा. शुक्रिया दोनों का एक नई दृष्टि से देखने परखने और विकसित करने के लिए.
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