जिन बच्चों को हम जान हथेली पर रखकर पालते है उन्हें एक दिन भीड़ में छोड़ देते है हमेशा के लिए खो देने को और फिर वे भीड़ में भीड़ होकर हमें भूल जाते है और अक्सर हम उनकी परछाईयों से मिलते और जुदा होते है.
जब तक बच्चे घरों में रहते है महानगरों से लौटकर वे वाट्स एप, फेसबुक चलाते रहते है और जाने के बाद फोन पर लम्बी बात करते रहते है......असल में एक समय के बाद हम सबकी दुनिया अलग होती है और फिर सिर्फ अपनी तन्हाईयों में ही रहते है, यह भी एक प्रकार की खुशी है जिसे हम कड़े दुःख के बाद स्वीकार लेते है.
घर का खाली हो जाना एक दहशत से कम नही जब बच्चे चले जाते है उन शहरों और नोकरियों पर जहां खोजने पर बच्चों की जगह समय सारणी में बंधे हाड मांस के मशीनीकृत लोग मिलते है जो सिर्फ हूँ हाँ कहकर अक्सर फोन पर भी बात करने असमर्थ हो जाते है कई बार।
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