कोटा शहर से फ़ैली आग अब मप्र के छोटे कस्बों में भी दानावल के रूप में जल रही है. जिस तादाद में किशोर वय के बच्चे आत्महत्या कर रहे है और मर रहे है वह कितना घृणास्पद है, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि 75 प्रतिशत से नब्बे प्रतिशत तक अंक लाने के बाद भी किशोर बच्चे निन्यानवें के फेर में मर रहे है और राज्य सरकार का मुखिया रोज अपील कर रहा है, विशेष अभियान चलाकर पुनः पास होने का मौका दिया जारहा है फिर भी बच्चों की आत्महत्या का सिलसिला रुक नहीं रहा है. कहाँ आ गए है हम आज क्या यही सर्व शिक्षा अभियान और सबके लिए शिक्षा की परिणिती थी ?
इसकी जड़ों में जाए तो महत्वपूर्ण कारक बड़े पद,आरक्षण, पॅकेज बंद नौकरियां, चमकीली और तड़क भड़क भरी जीवनशैली, बाजार, प्रतिस्पर्धा, विदेश यानी सिर्फ अमेरिका से एमएस या पीएचडी करने के ख्वाब, अपनों के बीच सर्वश्रेष्ठ होने का गुमान और स्कूल और कोचिंग संस्थाओं के भयानक दबाव, माँ-बाप के पारंपरिक धंधों - जैसे नर्सिंगहोम या वकालत या कंस्ट्रक्शन कंपनी, को चलाये रखने के लिए इनका जीवन स्वाहा करना एक आम बात है.
दूसरा महत्वपूर्ण कारण है देश भर में राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं की स्थापना से इनमें प्रवेश के लिए भयानक मानसिक दबाव. इन संस्थाओं में प्रवेश के लिए बच्चों से ज्यादा दबाव पालकों पर है और फिर रोते रहते है कि बच्चा दूर हो गया और आखिर में अपने लिए एकअदद वृद्धाआश्रम की तलाश.
देवास के कई स्कूल संचालकों और कोचिंग पढ़ाने वालों को मै व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ जो नक़ल करने के लिए एक जमाने में प्रसिद्द रहा के पी कॉलेज में रहकर भी सात सालों में बीएस सी नहीं कर पायें या गुंडागर्दी करके भी बीए नहीं कर पाए या टुच्ची राजनिती करके वे वकील या जुगाडू बन बैठे और आज स्कूल और कोचिंग क्लास चला रहे है. पिछले आठ दिनों से अखबारों में इनके स्कूल या कोचिंग का विज्ञापन देखता हूँ तो आश्चर्य लगता है कि कैसे इन्होने शत प्रतिशत रिजल्ट दिया, इनके शिक्षकों से बात करता हूँ तो मानवीयता के दुःख नजर आते है, इस तरह के चोर उचक्के आपको हर कस्बे और शहर में मिल जायेंगे, ये सब लोग भी पालकों के साथ बच्चों की आत्महत्या के दोषी है.
अबअपने 30 साला शैक्षिक अनुभव से मुझे लगता है कि हमारे शिक्षकों को यह जिम्मेदारी उठाना होगी कि बच्चों को अपनी कक्षा में पढ़ाने के बजाय शुरुवात के तीन माहों में बातचीत, हंसी मजाक, समाज के दीगर मुद्दों पर बातचीत, दोस्ताना व्यवहार, कक्षा में खुला माहौल जिससे वे अपने मन की बात और सपनों पर दिल खोलकर बता सकें और कह सकें. दिक्कत यह है कि शेयरिंग नामक चीज खत्म हो गयी है. हर स्कूल में सरकारी या निजी में समय सारणी में हफ्ते में तीन दिन परामर्श Guidance and Counseling का पीरियड अनिवार्य रूप से हो और हर स्कूल में इसके शिक्षक रखे जाएँ महत्वपूर्ण विषयों के शिक्षकों की तरह. बच्चों के लिए बाहर से लोगों को बुलाया जाए जो सामान्य लोग है चाहे मजदूर हो, किसान हो, माली, हलवाई, गायक, वादक, या कोई प्रोफेशनल ताकि आम लोगो को उनके संघर्ष को सुनकर और प्रत्यक्ष देखकर बच्चे सीखेंगे कि पास होना,अच्छे अंक या प्रतिशत लाना ही जीवन का सार नहीं है.
जमीन तोड़ने के लिए अक्सर शिक्षा के पैमानों और चौखटों से दूर जाना होता है. मै हमेशा कहता हूँ कि शुक्र है जाकिर हुसैन या बिस्मिल्लाह खान से खैरागढ़ संगीत विवि से इनवाद्ययंत्रों में पी एच डी नहीं की वरना खां साहब एक फूंक मारते तो शहनाई टूट जाती और जाकिर भाई एक हाथ मारते और डग्गा बिखर जाता, स्वपंडित कुमार गन्धर्व जी शास्त्रीय संगीत में पी एच डी पढ़ते तो निश्चित ही इतना अप्रतिम और कालजयी संगीत और रागमाला संसार को नहीं दे सकते थे..बाबा आमटे, सुन्दरलाल बहुगुणा, अरुणा रॉय, राजेन्द्र सिंह या चिपको आन्दोलन की बहनों ने टाटा सामाजिक संस्थान से एमएसडब्ल्यू नहीं किया वरना वे सारी उम्र फर्जी रपट ही बनाते रहते हमारे इंदौर स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क के गधों की तरह और एक रुपया कही ज्यादा मिलता तो सारी नैतिकता छोड़कर अप्रतिबद्ध तरीके से रोज नौकरी बदलते. कोंकण रेलवे और मेट्रो के श्रीनिवास की कहानी हम सबको ज्ञात ही है, इन लोगों ने जमीन तोड़ने के लिए शिक्षा का सहारा नहीं लिया इसके अलावा भी दुनिया में स्टीवजॉब्स से लेकर बिलगेट्स के उदाहरण मौजूद है.
बहरहाल , नया सत्र एक बार फिर सामने है, आईये कोशिश करें कि अगले साल हम एक भी आत्महत्या नहीं होने देंगे, शिवराज जी सहित सभी जिम्मेदार लोगों से अनुरोध है कि स्कूलों पर शत प्रतिशत परिणाम लाने को प्राचार्यों और व्याख्यातों पर आदेश देकर दबाव ना बनाएं
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