मुझे और बहादुर को प्रतिष्ठित वागीश्वरी पुरस्कार मिलने पर अग्रज सुनील चतुर्वेदी और सोनल ने एक बेहद ही नितांत अपने घरेलू माहौल में सम्मानित किया, देवास में हम पांच छः ही लोग है जो बहुत मजबूती से जुड़े है और सुनील भाई हम सबके संकट मोचक है. सोनल से दार्शनिक और दुनियावी मुद्दों पर बात होती है . कल इस छोटे से कार्यक्रम से बहुत अच्छा लगा. सुनील भाई के दो उपन्यास आ चुके है, और दो वर्ष पूर्व वे भी वागेश्वरी से सम्मानित हो चुके है और सोनल का एक कविता संकलन भी आया है जो पिछले दिनों चर्चित रहा है.
अपने ही लोग जब सामान्य उपलब्धियों और लेखन का सम्मान करते है तो संकोच होता है और ग्लानी भी होती है पर दिल से बहुत खुशी होती है, इससे ताकत भी मिलती है और लगता है कि अभी बहुत कुछ होना संभव है और उम्मीदें बाकि है.
काली चाट से पानी निकलेगा कि नहीं - पता नहीं, पर शब्दों की बहुत संभावनाएं है और बूंदों के बीच उभरी प्यास से नमक जरुर आयेगा और संसार की सारी महामायाओं के बीच बेचैनी की कथाएं बारम्बार लिखी जायेगी.
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उदासी यहां बहती है
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जब डूब जाता है सूरज क्षितिज में
नदियां बहती है खून में सनकर
समुद्र दहाड़े मारता है किनारे से
पेड़ छोड़ते है पत्तियाँ हवा में
झींगुर रौरव गान गाते है एकालाप से
एक पक्षी लौटता है भूखा चोंच खालीकर
पहाड़ी की चोटी सूनी दिखती है
गहरे अतल में सूखता है पानी
आग छोड़ती नही किसी को भी
चिड़िया सन्न से निकल जाती है
सड़कें चित्त हो जाती है पिघलकर
धूप का छोर नजर नही आता कही
मैं देखता हूँ चहूँ ओर एक मद्धम चादर
उदासी बह रही है सब तरफ और हम
बेबस से खड़े इसमें डूबने को अभिशप्त.
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जब डूब जाता है सूरज क्षितिज में
नदियां बहती है खून में सनकर
समुद्र दहाड़े मारता है किनारे से
पेड़ छोड़ते है पत्तियाँ हवा में
झींगुर रौरव गान गाते है एकालाप से
एक पक्षी लौटता है भूखा चोंच खालीकर
पहाड़ी की चोटी सूनी दिखती है
गहरे अतल में सूखता है पानी
आग छोड़ती नही किसी को भी
चिड़िया सन्न से निकल जाती है
सड़कें चित्त हो जाती है पिघलकर
धूप का छोर नजर नही आता कही
मैं देखता हूँ चहूँ ओर एक मद्धम चादर
उदासी बह रही है सब तरफ और हम
बेबस से खड़े इसमें डूबने को अभिशप्त.
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कल उज्जैन में Vyomesh Shukla के रूपवाणी बनारस द्वारा प्रस्तुत राम की शक्तिपूजा देखी। निराला रचित यह कविता नृत्य नाटिका के रूप में देखकर अच्छा लगा। व्योमेश को उज्जैन में आये तूफ़ान बरसात से दिक्कतें हुई, कार्यक्रम की जगह आखिर मंगलनाथ क्षेत्र में रावतपुरा सरकार के गोविंदा मंडपम में मिली। जिन दर्शकों की आवश्यकता थी वो तो नही थी पर हाँ एक औसत भीड़ थी जो श्रद्धा से देख रही थी।
अनुज Sughosh Mishra ने दिल्ली की तस्वीरें डाली थी तब से देखने की प्रबल इच्छा थी। व्योमेश ने पहले सार गर्भित कहानी सुना दी थी जिससे संदर्भ और प्रसंग समझ आ गए थे। देवताओं के किस्से, अहम्, लड़ाईयां और कुटिल चालें वे ही जाने जो धर्म के मर्मज्ञ है, हाँ टीम के बच्चों से मिलना हुआ। प्रस्तुति साधारण थी, कोरियोग्राफी उम्दा, संगीत और विभिन्न रागों में गाई गयी कविता अच्छी थी। यह दुरूह कविता है भाषा की दृष्टि से पर देखने से ठीक लगा।
सबसे अच्छी बात यह थी कि रावतपुरा सरकार खुद दर्शको के साथ पूरे समय मौजूद थे ठेठ जमीन पर बैठकर उन्होंने पूरी नाटिका देखी। मुझे अच्छा यह लगा कि बगैर किसी ताम जहां के वे जमीन पर बैठे। एक ओर ग्लैमर और मायावी दुनिया के संत जेड प्लस में रहते है और ये बेहद साधारण ढंग से हमारे साथ आकर बैठ गए।
व्योमेश के लिये अभी दो दिन और चुनोती है हालांकि मौसम साफ़ है पर भीड़ - वो भी वांछित, जुटाना मुश्किल है और फिर यहां से वहाँ।
शुभकामनाएं पूरी टीम को और बहुत स्नेह।
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अभी कुछ करीबी मित्रों के साथ बात हो रही थी तो यह निष्कर्ष निकला कि मप्र सरकार ने समुदाय द्वारा आयोजित किये जाने वाले और पूर्णरूप से प्रबंध किये जाने वाले सिंहस्थ को भी सरकार ने नाजायज कब्जा करके करोड़ों रुपया कमा लिया और नाटक नौटंकी करके सरकार के मुखिया ने सारा श्रेय ले लिया.
बेहद शर्मनाक है, एक ओर हम जनभागीदारी की बात करते है, दूसरी ओर आम लोगों के कार्यक्रमों पर कब्जा और अतिक्रमण कर लेते है. सिंहस्थ को बाजारू और मार्केट के अनुसार बनाने के लिए और धर्म, आस्था और अध्यात्म को किसी दूकान पर बेचने को रख दिया.
कितना गिरेंगे हम और ?
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