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Posts of 9 May 15

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आवाजें गूंजती थी यहाँ - वहाँ और हर कही, बस यूँ लगता कि अभी निकल जाऊं और इन आवाजों के पीछे बावरा से चल पडू , फिर लगता कि उस पार्क के अँधेरे कोने में वो कंचे कही तड़फ रहे होंगे जिन्हें कल ढलती शाम के समय वो बच्चे छोड़ गए थे, आसमान की तरफ ताकता कि कही से कटती हुई पतंगों की थाह मिल जाए तो उड़ चलूँ उनके संग कि कही तो गिरेंगी और कोई तो थाम लेगा - चाव से और प्यार से घर ले जाएगा, मरम्मत करके फिर छोड़ देगा  आसमान में उड़ने को, फिर ख्याल आता उन बिलों का जिनमे कॉकरोच या चूहे घुस गए और फिर कभी नहीं लौटे और आध्यात्मिक मुद्रा में बिल के मुहाने पर बैठी बिल्ली कितनी तसल्ली से इंतज़ार कर रही हो अपनी क्षुधा शांत होने की और अन्दर जिन्दगी से जंग लड़ रहे चूहे कही से कूद फांदकर निकल गए हो इसी अंतहीन सिरे से दूसरी ओर - एक और जिन्दगी के तलाश में, या याद आती है वो चींटियों की लम्बी कतारें जो किसी अदृश्य अतल गहराई से मुंह में पता नहीं क्या लिए कितनी ही सदियों से जाए जा रही है और उनकी अनथक यात्रा ख़त्म ही नहीं होती. पानी में टेडपोल और लार्वा देखते हुए समझ ही नहीं पाया कि ये मछली है या मेंढक, बस पानी में कंकर मारकर उसकी शान्ति ही भंग की थी मैंने, समंदर के किनारे से लौटते हुए पांवों के नीचे से रेत फिसलने का एहसास लिए सोचता कि जिन्दगी कैसे खिसक रही है आहिस्ता से और साँसों का सफ़र अपने साथ सब कुछ बहा लिए जा रहा हो वासना की उद्दाम लहरों के साथ, घने जंगलों से गुजरता तो लगता कि सायं सायं के बीच पेड़ों पर चहकते पक्षी और चहूँ ओर से आती भीन- भीन के बीच सर्प और नेवले से फुफकार रही है मेधा और बुद्धि और इस यायावरी संघर्ष में तिलिस्म से टूटते स्वप्न क्षण भंगुर हो गए हो मानो यकायक एक चीते सी हांफती मौत सामने आ गयी और ललकार रही हो उद्धिग्न होकर, शाम होते - होते झींगुरों के स्वर कानों के करीब होते और दैदीप्त्मान से होते चंद्रमा में, मै उन तारों के साथ चलने लगता कि रात के तीसरे पहर में हल्की सी आहट हो रही है सूरज की, ठीक इसी समय दूर कही शुक्र तारा पुरी ताकत से निकल रहा होता और एकदम निश्छल सा ध्रुव उत्तर में आसमान से चमक खोते हुए, सरकते सुरुचि और सुनिती के बीच की लड़ाई में उत्तर से पता नहीं कहाँ चला जा रहा होता. ये सुबह से इस पहर में ख़त्म होता स्वप्न नहीं है यह जीवन के बीचोबीच से जद्दोजहद करती जिन्दगी की असली रूमानियत भरी मेरी, तुम्हारी और हम सबकी कहानी है - जो हम सबने जानी है और अब समय है कि इसे एक पूर्ण विराम दिया जाए. 
आमीन...!!! 

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दो लाख का बीमा करवाया तो मौत दिखने लगी
देवास के बड़े लोग जिनके खातों में करोडो रूपये होंगे और जेवरात की संख्या तो भगवान् जाने वे भी आज IDBI में 12/- में अपना दो लाख का बीमा करवाते दिखें, मैंने भी करवा लिया 12 में क्या जाता है.............बेशर्मी तो खून में है हिन्दुस्तानी जो हूँ.........

अब थोड़े दिन में हुजूरे आला के सत्संग होंगे कि 12 /- के बीमे का आग्रह छोडो, फिर अम्बानी अडानी और टाटा से लेकर सब लोग ये "सब्सिडी" छोड़ेंगे और फिर मेरे जैसे घटिया आदमी को सब शक की निगाह से देखेंगे कि कमीने गैस से लेकर बीमे की राशि देश हित में छोड़ता क्यों नहीं.......? 

अब आज घोषणा और कल समर्पण की मांग ऐसा करते करते पांच साल निकल जायेंगे और आखिर में मिलेगा .


बोलो भक्तो...........क्या मिलेगा..........बाबाजी का ठुल्लू.............

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सरकार पहले अपने स्टेट बैंक, या बैंक ऑफ़ इंडिया जैसे राष्ट्रीयकृत बैंको को सुधार दें और वहाँ के कर्मचारियों को सुधार लें ज़रा जो बैंक लोकपाल से भी नहीं डरते बाकी सब तो बाद में ठीक हो जाएगा.........

एक बार किसी स्टेट बैंक में जाकर देख लीजिये जहां नए नवेले स्टाफ और युवा जोश वाले लडके लडकियां जिस बदतमीजी से बात करते है या गप्प  करते रहते है या कैशियर स्मार्ट फोन पर अपने स्मार्टनेस के जलवे दिखाते है वह शोचनीय है. मजाल कि ग्यारह सवा ग्यारह से पहले काम शुरू कर दें या उनका सर्वर ठीक ना हो, या सबसे हाथ मिलाने में आधा घंटा बर्बाद ना हो और फिर चाय या गन्ने का रस हाय और हम ग्राहक टुकुर टुकुर ताकते रहें, अधिकारीगण बेचारे चीफ को गलियाते रहते है कि आज यहाँ बिठा दिया कल वहाँ बिठाया था आदि आदि और फिर चिल्लपों शुरू होती है, फिर काम .............अब ऐसे में ये मुई प्रधानमत्री की आये दिन होने वाली महत्वकांक्षी योजनायें .भाड़ में जाए जनता अपना काम बनता............

हुजूरे आला ज़रा इनकी समस्याएं भी देख लो हड़ताल में तो ये सबसे आगे है.........लगभग  पचास प्रतिशत ए टी एम बंद पड़े है ...कहाँ आप भी ना इन बेचारों पर रोज एक नया काम लाद देते हो..........
अब तक तो  जनधन का हिसाब हुआ नहीं, और पेंशन, और बीमा , और दुर्घटना योजना............अरे यार थोड़ा धीर तो धरो............ 


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IDBI बैंक की कर्मचारी ने कहा कि पता नहीं तीन दिन में हम कैसे ये अकाउंट खोल पायेंगे अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है ना ही मालूम कि सरकार कहाँ से रुपया लायेगी इतना ........?

मैंने भी दोनों योजनाओं में फायदे के लिए अपने को इन योजनाओं में दर्ज तो करवा लिया है परन्तु यदि मृत्यु दर सामान्य रूप से दो प्रतिशत भी मान लें तो सरकार १२५ करोड़ में से पता नहीं कितने लोगों को दुर्घटना ग्रस्त लोगों को दो लाख का बीमा देगी या मृत्यु होने पर दो लाख का भुगतान करेगी?

अभी तो ग्रामीण या कस्बाई बैंकों में भी पर्याप्त स्टाफ नहीं है या स्व सहायता समूहों के खाते खोलने को भी बैंकों के पास समय नहीं है या नरेगा के हितग्राहियों के लिए स्टाफ नहीं है.

खैर, सिर्फ इतना कहूंगा कि आमीन !!!!


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Ravish Kumar​ जी का सपना! रविश भाई के बहाने हिंदी के तथाकथित युवा तुर्को को चार जूते !!!

सोचिये कि क्यों ये शख्स लोकप्रिय है. मीडिया और खबरों की भीड़ में अपनी रचनात्मकता बचाये रखना और फिर लिखना एक ऐसे समय में  जब गाँव और कस्बों में भी तनाव और समय की कमी से हम  सब जूझ रहे है वही रविश अपनी ऊर्जा दिल्ली जैसे शहर और मीडिया मंडी में रहकर भी बचाये हुए है. 

ये उन लोगों के लिए भी मैं लिख रहा हूँ जो अपने थोथे ज्ञान और सामन्ती अकड़ के चलते फेसबुक जैसे माध्यमों को घटिया कहते है और गाहे बगाहे मूर्खों जैसी सलाह देते है कि "फेसबुक पर स्खलन करना बंद करो".

सवाल लिखने, पढ़ने और लाइक , कमेंट्स का नही वरन विविध आयामों और इन घटिया लोगों को और हिंदी की पत्रिकाओं में बैठे उन उजबक युवा संपादकों के लिए भी एक चुनोती है जो यहां छपे को छापना पसंद नही करते और उनकी अश्लील पत्रिकाएं सौ से ज्यादा लोग गाय पट्टी में नही पढ़ते  और ये नामुराद उप संपादक या सम्पादन में सहयोग के नाम पर देश भर के लोगों का खासकरके महिलाओं का शोषण करते है. ये नपुंसक मानसिकता के मारे और नामर्द कर्मशील हिंदी के उज्जड और अपढ़ लेखक और अपराध बोध से ग्रसित और चौबीसों घंटे पूंजीवाद को कोसने वाले कुंठित और  सभ्यता के मारे लोगों को यह समझना चाहिए कि ये दुनिया तुम्हारे पूर्वाग्रहों और ओछी मानसिकता से नही चलेगी.


मैं मड़ई डालकर एक नाश्ता कार्नर खोलना चाहता हूँ । स्टेशन के किनारे या किसी घाट के छोर पर । जिसके बाहर एक बोर्ड लगा हो- रवीश नाश्ता सेंटर , सूरज की पहली और आख़िरी किरण के साथ दिलबहार नाश्ते का प्रबंध । बाँस से एक रेडियो लटका हो । गुनगुना रहे हैं भँवरे खिल रही है कली कली गाना आ रहा हो । एक ऐसा कोना भी हो जो बाहर से न दिखे जहाँ नौजवान नज़रें बचाकर हाथ नीचे किये सिगरेट पी सकें , बेंच के पीछे रानी मुखर्जी से लेकर ऐश्वर्या की तस्वीरें लगी होंगी ।
मक्खी और मच्छर से बचाने के लिए शीशे का छोटा महल बनाऊँगा जिसके अंदर टटका घुघनी का छोटा पहाड़ देख आपकी आंत मचल जाए । कतरनी चूड़ा और सजाव दही देखकर आप न्यू जर्सी फ़ोन कर दें कि जो बात यहाँ है वो तुम लोग को नहीं मिलता होगा और सुनते ही न्यू जर्सी वाला फ़ेसबुक पर स्टेटस लिखिए कि मिसिंग रवीश नाश्ता सेंटर एंड इट्स घुघनी । लव यू पटना ! झट से चार सौ लाइक भी मिल जाये ।
चमचम बिस्कुट, रसगुल्ला, लिट्टी और चंद्रकला की क्वालिटी ऐसी हो कि मैं फ़ेसबुकिया सहेलियों के ख़्वाबों का राजकुमार बन जाऊँ । मेरी दुकान पर रोज़ कोचिंग आते जाते नौजवानों की मोटरसाइकिलें खड़ी हो जाए । जो फ़ेल होने के बाद भी मेरी दुकान पर आएं और नाश्ते का दौर चले । दुकान पीपल के पेड़ के नीचे हो जिस पर नेताजी का पोस्टर हो । मेरी दुकान की शोहरत ऐसी हो जहाँ गांधी मैदान की रैली से लौटते नौजवान कार्यकर्ता ज़रूर आयें । मोदी और नीतीश पर विमर्श करते हुए चूड़ा घुघनी चट कर जाये ।
मैं कैश काउंटर पर अपने लकड़ी के बक्से के साथ मिलूँ । एक दो रुपये का खुदरा ऐसे माफ़ कर दूँ जैसे सरकार उद्योगपतियों के हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ा माफ़ कर देती है और किसी से दस रुपया ऐसे वसूल लूँ जैसे कोई बैंक किसानों से क़र्ज़ा । मेरा सफ़ेद बनियान और टेरिकाटन का बुशर्ट ट्रेंड मार्क बन जायें । मैं चुपचाप एक ठहरे वक्त की तरह सबकी बातें सुनता रहूँ और अख़बार की बातों से मिलाता रहूँ कि ज़िले क़स्बे के इन युवा राष्ट्रीय नेताओं को कितना पता है ।
नाश्ते के उत्तम प्रबंध के साथ चाय का भी इंतज़ाम रहेगा । बैठने के लिए बेंच होगी और पानी के लिए तीन चार जग रख दूँगा । हरा और लाल रंग का जग । घड़े का पानी होगा । एक फ़ैमिली रूम भी होगा जहाँ कोई एकांत के साथ नाश्ता सके । वहां अमिताभ और रेखा का सिलसिला वाला पोस्टर लगा होगा । शाहरूख़ और काजल वाला भी । प्यार माँगा है तुम्हीं से .... अचानक ये गाना बज जाएगा और एक प्लेट घुघनी का आर्डर मिल जायेगा । पर्दा लगा होगा !
मेरे ये सपने उस ठंडी छांव की तरह हैं जहाँ मैं बड़े बड़े सपनों से कुचले जाने के बाद पनाह पाता हूँ । किसी बड़े शहर से घबराकर नाश्ता कार्नर में अपना एक शहर बनाता हूँ । मुझे सचमुच ऐसे सपने आते हैं । जिसमें किसी अनजान शहर से गुज़रने पर कोनेे के आख़िरी मकान में खुद को पाने लगता हूँ , किसी टेलर की दुकान में नीले साबुन से लकीरें खींचने लगता हूँ और फिर रेडियो सिटी पर आ रहे गाने में खो जाता हूँ । छोड़ो सनम काहे का ग़म हँसते रहो खिलते रहो....आओ मिलकर के यूँ बहक जायें कि आज होंठों की कलियाँ ....
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गलत फहमियों के सिलसिले इतने दिलचस्प हैं, 
कि हर ईंट सोचती है दीवार मुझपर टिकी है.
1.
Another wonderful evening with brilliant Anuj Pandey.
Thnx 
Vinod Nahar
 — with Anuj Pandey.

Comments

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