हिन्दी का साहित्य जगत फूहड़, छिछोरे, नाटकबाज और तथाकथित विचारधाराओं को ओढ़कर चलने की नौटंकी वालों से भरा पडा है और इसमे ये रोज नया गढ़ते है और रोज नया बुनते है सिर्फ और सिर्फ प्रसिद्धि (?) पाने के लिए और अपनी कुंठाएं निकालने के लिए. रही सही कसर फेसबुक ने पुरी कर दी है. आये दिन मेर पेज को लाईक करों, मेरा स्टेटस शेयर करो, मेरे स्टेटस पर कमेन्ट करों, मेरी किताब मंगवा लो, मेरे वाल पर टिप्पणी करो, मेरे चित्र देखो आदि से हिन्दी के बड़े नामी गिरामी कवि कहानीकार और उपन्यासकार ग्रस्त है भगवानदास मोरवाल से लेकर कई लोग इसी कुंठा में मर रहे है, दूसरा विचारधारा वाट्स एप जैसे माध्यम पर भी लड़ाई का शक्ल ले चुकी है और वहां भी रुसना मनाना और छोड़ना जैसे मुद्दे जोर पकड़ रहे है छि शर्म आती है कि चार लोग इकठ्ठे होकर कुछ रचनात्मक नही कर सकते और कोई वरिष्ठ साथी कुछ कहता है या कोई समझदार इन्हें इनकी औकात का आईना दिखाता है तो सब मिलकर पीछे पड़ जाते है उसके और उसे फर्जी साबित कर देते है या आपस में ही दोषारोपण करने लग जाते है. हिन्दी की दुर्दशा के लिए ये सब लोग बारी बारी से जिम्मेदार है.
दखल प्रकाशन ने अभी शुरुवात की ही है, विश्व पुस्तक मेले के बाद प्रचार हुआ और अमेजोंन से लेकर तमाम साईट्स पर किताबें बिक गयी, ख़त्म हो गयी, यह हल्ला था, और लाल्टू ने बी बी सी में भी जिन किताबों का जिक्र किया उसमे दखल का नाम था, तो फिर ये अचानक से बंद करने का निर्णय की सूचना और मेरे यह लिखे जाने पर कि यह दखल का स्कैंडल तो नहीं अशोक पांडे ने जिस तरह से अशालीन भाषा में जवाब दिया उससे लगता है कि यह किसी ने फर्जी आई डी बनाकर सूचना लिखी है, अशोक शालीन है, सभ्य है भी है, और अच्छे मित्र है और ऐसा निर्णय वो लेंगे ही नहीं. दखल के लिए तो वे ग्वालियर से दिल्ली गए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया और आये दिन दिल्ली में कार्यक्रमों में दखल के लिए शिरकत करते है एक अच्छी खासी टीम है उनके पास युवाओं की और जे एन यु से लेकर तमाम जगहों पर वामपंथ और साहित्य का झंडा उठाते रहते है फिर यह निर्णय क्यों?
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