Skip to main content

Post of 8 May 15




2

Umber R. Pande​ thanx for this wonderful poet 



Cavafy was instrumental in the revival and recognition of Greek poetry both at home and abroad. His poems are, typically, concise but intimate evocations of real or literary figures and milieux that have played roles in Greek culture. Uncertainty about the future, sensual pleasures, the moral character and psychology of individuals, homosexuality, and a fatalistic existential nostalgia are some of the defining themes.

Cavafy was born in 1863 in Alexandria, Egypt, to Greek parents, and was baptized into the Greek Orthodox Church. His father's name was Πέτρος Ἰωάννης, Petros Ioannēs —hence the Petrou patronymic (GEN) in his name— and his mother's Charicleia (Greek: Χαρίκλεια; née Γεωργάκη Φωτιάδη, Georgakē Photiadē). His father was a prosperous importer-exporter who had lived in England in earlier years and acquired British nationality. After his father died in 1870, Cavafy and his family settled for a while in Liverpool in England. In 1876, his family faced financial problems due to the Long Depression of 1873, so, by 1877, they had to move back to Alexandria.

In 1882, disturbances in Alexandria caused the family to move again, though temporarily, to Constantinople. This was the year when a revolt broke out in Alexandria against the Anglo-French control of Egypt, thus precipitating the 1882 Anglo-Egyptian War. Alexandria was bombarded by a British fleet, and the family apartment at Ramleh was burned.

In 1885, Cavafy returned to Alexandria, where he lived for the rest of his life. His first work was as a journalist; then he took a position with the British-run Egyptian Ministry of Public Works for thirty years. (Egypt was a British protectorate until 1926.) He published his poetry from 1891 to 1904 in the form of broadsheets, and only for his close friends. Any acclaim he was to receive came mainly from within the Greek community of Alexandria. Eventually, in 1903, he was introduced to mainland-Greek literary circles through a favourable review by Xenopoulos. He received little recognition because his style differed markedly from the then-mainstream Greek poetry. It was only twenty years later, after the Greek defeat in the Greco-Turkish War (1919-1922), that a new generation of almost nihilist poets (e.g. Karyotakis) would find inspiration in Cavafy's work.

1








समाज सेवा में नए नए आये युवा और तेज बच्चे जो बहुत तेजी से राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को बदलना चाहते है, काम का जोश और जज्बा तो बहुत परन्तु सवालों के जवाब नहीं है. आज बड़े कौतुक से आकर बैठे और पूछने लगे तो मेरे पास भी कोई ठोस जवाब नहीं और ना ही विकल्प या रास्ते.......


बहुत लाडले बच्चे है और बहुत सारी जिज्ञासाएं है पाठ्यक्रम और वास्तविक जीवन के बीच समंदर  जैसे गैप और पढाई और हकीकत का अलग होना ...इनकी समाज और बदलाव को लेकर, जब ये आदिवासियों की बात करते है, विस्थापन की बात करते है तो मेरे पास भी जवाब नहीं है , घोंघल में नर्मदा नदी में डूब रहे लोगों की बात करते है  और आलीराजपुर के आदिवासियों के बारे में मेरे पास कोई जवाब नहीं है, झाबुआ में पैक्स के बड़े कार्यक्रम को लेकर खर्च हुए दो तीन करोड़  की राशि को लेकर इनके सवाल थे, क्या किसी के पास जवाब है?




Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...