बाहर शाम ढल रही है और एक अजीब से दुःख ने मेरे उद्दाम मन को उदास कर दिया है यह उदासी ठीक उसी तरह है जैसे एक सख्त चट्टान को तपते आसमान के नीचे नंगा रहना पड़ता है, और गर्म होते होते उसे आखिर एक गर्म चट्टान कह दिया जाता है. यह उदास शाम एक बड़ा आजीवन सालने वाला दुःख लेकर आई है. यह दीगर बात है कि इस दुःख की मद्धिम आंच में एक हल्का सा सुख का कतरा कही छुपा है, जो मंद मंद मुस्कुरा रहा है और इक छोटी सी हंसी की तलाश में मै बहुत दूर आ गया हूँ, मानो मेरी कहानी के चलते फिरते चरित्र मुझसे अगरचे मिल जाए तो मै एक कागज़ लेकर अपनी कांपती कलम से उन्हें तराशने बैठ जाउंगा या एक कोरे कैनवास पर सूखे रंगों की कूची लेकर मै बैठ जाउंगा इसी खुले अम्बर के नीचे. दुर्भाग्य यह है कि यह हफ्ता प्रेम के आनंद का हफ्ता है, और जब सारी दुनिया प्रेम के उत्साह में मग्न है तो यह खबर, ओह यह सदियों की उदासी है और सदियों का संताप, एक पक्षी भी तो ऐसे ही उड़ा था जिसका नाम विहंग था और एक चुलबुल चिड़िया जो बहुत महीन गाती थी और मैंने मुश्किल से खोजकर उसका नाम लिनेट रखा था.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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