मजे का देश और मजे के देशवासी है. इंदौर के बाण गंगा क्षेत्र में एक बस्ती है गणेशधाम कहने को तंग बस्ती, झुग्गी या "स्लम" है, परन्तु अगर आप घूमेंगे तो पायेंगे कि आलीशान मकान बने हुए है सब पक्के और शानदार. लगभग हर चौथे घर में लेथ मशीन या कोई ना कोई उद्योग धंधा चल रहा है. हर घर में दो पहिया और सातवें घर में चार पहिया. जब हम लोग महिला सुरक्षा के सन्दर्भ में सेफ्टी ऑडिट कर रहे थे तो पाया कि चार पांच घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है. घर के लोग बस्ती के एक कोने में बने शौचालय में जाते है जो सार्वजनिक है और इतना गंदा कि अगर आप सौ फीट दूरी से भी निकल रहे हो तो आपकी नानी मर जाए दुर्गन्ध से. ये शौचालय विहीन लोग यहाँ आते है किशोरवय से लेकर जवान लड़कियां यहाँ आती है अपनी माँ या दादी के साथ. जवाब में युवा वर्ग से लेकर बूढ़े तक छेड़ने के लिए पुरी बेशर्मी से वहाँ अड्डा जमाकर खड़े रहते है. लोगों को सारे फायदे चाहिए घर पक्का बनवा लेते है पर शौचालय सरकार बनवा कर दें भला क्यों? ऐसे ही हालत शिवशक्ति नगर के है या ग्वालियर में कम्बल केंद्र के या जबलपुर में चौधरी मोहल्ले के या भोपाल में भदभदा स्थित बस्ती के, कब तक इनके स्थायी हालात सुधारने की बात नहीं होगी या इन्हें राजनैतिक रूप से इस्तेमाल किया जाता रहेगा? हर बस्ती में लगभग यही समस्या है, सीवेज, निकास , पीने के पानी की लाइन में नाली का पानी घुस रहा है, संडास नहीं, बिजली के खम्बे है अपर उन पर लट्टू नहीं, और लगा भी दिए तो मनचले जवान निशाना लगाकर फोड़ देंगे, छेड़छाड़ एक स्थायी बीमारी, स्मैक, हेरोइन, गांजा, भांग और तमाम तरह के नशीले पदार्थ आसानी से उपलब्ध, पुलिस की मिली भगत से सारी गतिविधियों का सफल संचालन, ह्यूमन ट्राफिकिंग जैसी चीजे बेहद आम है.
और ये सिर्फ इंदौर नहीं प्रदेश के चार बड़े शहरों में मै यह ट्रेंड देख रहा हूँ, बस्ती वाले इंसान नहीं सिर्फ वोट बैंक, एनजीओ के लिए बेनिफिशरी, नगर निगम के लिए कचरे का ढेर, प्रशासन के लिए गैर कानूनी अड्डे, और आम लोगों के लिए हरामखोर जो मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के घरों में झाड़ू पोछा लगाने का काम करते है.
बड़े सुविधाजनक मकान और पर्याप्त रूप से कमा कर खाने वाले ये बस्ती के लोग भी इस देश में रहने का हूनर जान गए है हर घर में सोफा, रंगीन टीवी, फ्रीज, तीन से चार मोबाईल जैसी चीजें, जो एक जमाने में विलास की वस्तु थी, अब इन घरों में आसानी से सबके पास उपलब्ध है. इसलिए अब हमें इन बस्ती बनाम बीपीएल कार्ड धारकों के बारे में फिर से समझ बनाने की जरुरत है. मैंने भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर चारों शहरों में बस्तियों को पिछले आठ महीनों में बहुत बारीकी से देखा, परखा और समझा है. गरीबी और भुखमरी अब कालातीत बातें है, लगभग बच्चे पढ़ रहे है, युवा कमा रहे है और नशे में खर्च कर रहे है, महिलायें घर में काम करके बाहर भी कमा रही है, शराब का उपयोग जितना ये लोग कर रहे है उतना कोई नहीं, और इसमे इनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो रहा है.
अब इन लोगों को मेहरबानी करके वोट बैंक और हितग्राही समझना बंद करें और एक आम नागरिक की तरह से देखे. इनसे ज्यादा संघर्ष सामान्य आदमी कर रहा है और ये लोग सिर्फ सुविधाएं लेकर असुर हो गए है. अब एनजीओ को भी कोई और धंधा देखना चाहिए बजाय इनको परोसने के और ग्रांट उगाहने के.
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