मेरी किताब "नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं" पर बड़ी ताई अलकनंदा साने की टिप्पणी. बहुत सहज होकर जिस अपनत्व से ताई ने जो भी लिखा है, वह शिरोधार्य है. मै कोशिश करूंगा कि अपने लेखन में सुधार ला पाऊं. आभार और धन्यवाद
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प्रिय संदीप,
मैं इसे अपने वाल पर पोस्ट नहीं कर रही हूँ। आप मुखपृष्ठ के फोटो के साथ मुझे टैग कर दें। मैं फोटो नहीं लगा पाउंगी। आदतन थोड़ा - बहुत कटु लिखा है , पर वह होना चाहिए ऐसा मैं मानती हूँ। अन्यथा न लें।
संदीप नाईक की लेखनी की साक्षी मैं तब से हूँ , जब वे अपनी बैचैनी नई दुनिया में 'पत्र संपादक के नाम' में व्यक्त करते थे। जब उनका ''नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ'' यह संग्रह हाथ आया तो पहला विचार यही आया कि उस बेचैनी को एक बड़ा कैनवास मिल गया। इस पुस्तक के शुरू के बीसेक पृष्ठों में जो है, वह कथा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता किन्तु यह स्फुट लेखन आगे की कथाओं के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। इन पन्नों को तेजी से पलटते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो किनारे से मुख्य प्रवाह में आ जाते हैं और लेखक के मनोभावों के साथ डूबते-उतराते हैं। पहली कहानी 'मृत्युलेख' एक तरह का आत्मालाप है, तो 'हँसती हुई माधुरी'' फंतासी से यकायक कटु वास्तविकता की ओर ले जाती है। कुल ग्यारह कहानियाँ हैं, जो पढ़ने के साथ - साथ सोचने को भी मजबूर करती है। इस संग्रह की जो कहानी मुझे सबसे उम्दा लगी वह ''अमेय'' है. वैसे तो सभी कहानियाँ प्रथम पुरुष एक वचन में है और सभी भूतकाल की ओर इंगित करती हैं,पर अमेय शायद इसलिए अधिक अच्छी बन पड़ी है कि उसमें बचपन की स्मृतियाँ हैं और ये स्मृतियाँ सभीको अच्छी लगती है। संदीप भी इससे अछूते नहीं हैं। कहन संजीदा है और इस हद तक संजीदा है कि पाठक को लगता है , सब कुछ लेखक के जीवन में घटित हुआ है। संदीप के पास एक वैचारिक दृष्टिकोण है और वह कहानियों में झलकता है। हँसती हुई माधुरी का एक वाक्य देखिए ---''एक ओर महिलाओं की क्या स्थिति है और दूसरी ओर माधुरी दीक्षित। यकीन मानिए मित्रों मेरे पास ग्लानि और हताशा के सिवा कुछ नहीं बचा.'' बचपन का सटीक वर्णन अमेय में है --''बर्फ की सिल्लियों पर रखी लाश को देखना दहशत कम, कौतुक ज्यादा था।'' बड़े सोचते हैं मृत्यु से बच्चे डरते हैं , पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। आखिरी कहानी ''सतना को भूले नहीं'' प्रेम कथा है, पर आम प्रेम कथा से अलग और आँख को नम करती है।
संग्रह के विषय अलग-अलग है,पर देश काल और स्थल कस्बाई है। ट्रेन है , हवाई जहाज है,कलकत्ता है,गौहाटी है,परदेस गया युवा है , संदीप नर्मदा किनारे से कितनी ही लहरों की सैर करवा लाते हैं। सीधा -सादा कथ्य है और वैसी ही सीधी - सादी भाषा शैली है। प्रूफ की गलतियाँ नहीं के बराबर है , लेकिन प्रूफ वाचक मराठी से शायद अनभिज्ञ रहा होगा सो 'आबा' आब हो गए हैं और ''गुलाबाई'' गुलाब बाई। गुलाबाई दरअसल संझा जैसा लड़कियों का त्यौहार होता है। मुखपृष्ठ किताब से अलग देखा जाय तो अच्छा है , पर पुस्तक के संदर्भ में अनावश्यक ख़ौफ़ पैदा करता है। विषय वस्तु या शीर्षक के अनुरूप होता तो अधिक आकर्षक लगता। बहरहाल ये सब प्रकाशन में होता रहता है , बावजूद इसके संदीप बधाई के पात्र हैं। वे ऐसा ही लिखते रहें यही शुभकामना।
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