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Khari Khari, Kuchh Rang Pyar ke , Posts from 14 to 19 Oct 2021

 प्लीज़ मत पढ़िए

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इन दिनों हर कोई हर विषय पर बोलने लगा है और मजेदार यह कि जिन लोगों ने कभी किसी की नब्ज नही धरी या अपनी औलादों को नही पढ़ाया - वे शिक्षा पर आख्यान देने लगे है, जब तक शिक्षा या मेडिकल जैसे विषय जो सीधे - सीधे मनुष्य से जुड़े है, उन पर बोलने का अर्थ नही या कानून पर जब तक नियम या लॉ नही मालूम नही तो कैसे बोलोगे, एक पत्रकार है जिसे जल्दी यश पाना था, पुलिस से गिरफ्तार होना था कि अपने को जल्दी बेच सकें मीडिया मंडी में , दिन रात अंड - सन्ड बका करता था कि कानून ऐसा, कानून वैसा , दिल्ली के संघी संस्थान से बकलोली कर निकला यह 23 साल का फर्जी मक्कार रोज कुछ भी लिखता था - एक बहस में हिंदू विवाह कानून की धारा 9 पर ऐसे कुतर्क कर रहा था कि कोई उजबक भी क्या करेगा और वही कि दलितों के लिए कोर्ट ने गलत फैसला दिया, उस मूर्ख को यह नही मालूम कि हिन्दू या मुस्लिम विधि में दलित सवर्ण नही देखते, विवाह के नियम, कानून सबके लिए समान होते है, एक दिन मैंने पूछ लिया कि कभी आईपीसी या सीआरपीसी देखी तो ब्लॉक करके भाग गया, अब हर कोई स्वास्थ्य या शिक्षा या कानून या मीडिया पर बोलेगा तो हो गया कल्याण, ऐसे में तो कल फिर लोग घर ही मोतियाबिंद निकाल लेंगे या नसबन्दी का ऑपरेशन कर लेंगे
ऐसे ही शिक्षा पर बोलना और काम करके बोलना दोनो अलग है, श्रीलाल शुक्ल कहते है राग दरबारी में ना - "भारतीय शिक्षा सड़क पर पड़ी कुतिया है - जो आता है लात मारकर जाता है", हर कोई एनजीओ वाले भी नवाचार करने लगते है, हर विषय पर बोलना कवियों को सुभाता है खुद भले ही मंगलेश डबराल हो
एक उदाहरण से समझाता हूँ - मेरी पूर्व संस्था एकलव्य में कई ऐसे लोग थे जो एकदम अनपढ़ थे, और फिर वे कालांतर में पाठ्यक्रम बनाने लगे, नवाचार के नाम पर पीढियां तबाह कर दी, होविशिका और प्राशिका के नाम पर जितने भी स्कूल्स में काम हुआ वहाँ के बच्चे कुछ नही कर पाये, 30 वर्षों तक नवाचार होता है तो यह जड़ परम्परा बन जाती है, एक बदमिजाज मूर्ख को चकमक नामक पत्रिका का काम सौंपा जिसने अरबों टन कागज बर्बाद किया, सेटिंग से यह पत्रिका प्रदेश के सभी स्कूल्स में सालों खपाई गई, दिल्ली - बम्बई के लोगों के व्याभिचार को भुगतना पड़ा ग्रामीण बच्चों को और फिर एक दिन जब हिसाब पूछा गया तो कुछ नही था इनके पास दिखाने को, एकलव्य बर्बाद हुआ और सब प्रोजेक्ट बन्द हुए, तथाकथित वामपंथियों ने कांग्रेस का समर्थन हासिल कर खूब बर्बादी की, मोटी तनख्वाहें ली, यूजीसी को भी चुना लगाया, इस दौर में कई एनजीओ उभरे जो सिर्फ कमाने खाने आये थे, भोपाल में दो - तीन बिहारियों ने ब्यूरोक्रेट्स को दारू मुर्गा देकर मंजिलें तान ली अपनी, भोपाल के अरेरा कॉलोनी में या होशंगाबाद में नर्मदा किनारे कोठियां बना ली इन्होंने, एकलव्य के नवाचारी कार्यक्रमों की जब लम्बी जांच हुई तो सब बन्द हो गया और जनता औंधे मुंह गिर पड़ी, और मजेदार यह कि मुख्यमंत्री दिग्विजय थे जो स्व विनोद रैना के बेहद करीबी दोस्त थे और मुख्य सचिव बेहार साहब थे - जो इसके बीज से जुड़े थे, कारण साफ था कि यह एक विशेषज्ञता का काम था, गांव - कस्बों से आये युवाओं के बल पर नही चल सकता था और 95 % लोग संस्था में ऐसे ही थे और जो 5 % ब्यूरोक्रेट्स की औलादें या दिल्ली का लॉट था - वो कभी गाँव गया ही नही वो अंग्रेजी में ही बकलोली करते रहें - दिल्ली - मुम्बई या चेन्नई - भोपाल - जयपुर में सेटिंग्स जुगाड़ते रहें, नतीज़ा यह रहा कि सब बर्बाद हो गया और आज कई संस्थाएँ एकलव्य सहित दड़बों में बंद प्रकाशन गृह बनकर रह गई है - बस माल छापो, बेचो और मुनाफ़ा कमाओ, हम जैसे युवाओं की ज़िंदगी बर्बाद कर दी इन भ्रष्ट प्रगतिशीलों लोगों ने
मेरे जैसे लोग जो निहायती देशी थे, कुपढ़ थे और कस्बों के थे, को यह समझ नही आया कि एनजीओ एक इंटरप्राइज है, एक विशुद्ध धंधा है, सुख सुविधाओं और कमाई का स्थायी साधन है और इसमें रीढ़ की हड्डी नही, मुंह मे जुबान नही, दिल - दिमाग में शातिरपन होना होता है, काम नही - घाघपन चाहिये और हम्माली नही - कमीनापन चाहिये, उस समय जिसने यह समझ लिया था -1985- 87 के दौर में वे दुकान के पतरे ठोंकने लगे थे और आज उनके स्कूल, अस्पताल और मॉल चल रहे है, 500 एकड़ जमीनों पर 4 - 5 राज्यों में विश्वविद्यालय बन गए है और आवक - जावक भर पल्ले चल रही है इन दिनों पूरी हिंदी का जागृत लेखक वृन्द वहाँ घाट पर चरण रज लेने जाता है
मैं खेती पर नही बोलता, गांव पर नही बोलता वैवाहिक सम्बन्धों पर नही बोलता कभी - क्योंकि मेरा कोई अनुभव नही है, मैं क्यों बोलूं जब एक्सपोजर नही तो, पर यह बात लोग नही समझते और बगैर किसी भी बात को समझें बकर करना शुरू कर देते है, देखिएगा अभी यहाँ ज्ञानी जन टूट पड़ेंगे
[ एक जगह अभी ध्रुव शुक्ल नामक किसी दरबारी कवि ने भास्कर के किसी सर्वे, संस्कार वैली स्कूल और शिक्षा को लेकर टिप्पणी लिखी है, एक मित्र ने चर्चा आरम्भ की, जिनका कहना था कि हर किसी को हर किसी भी विषय पर बोलने का अधिकार है - बिल्कुल है, पर नरेंद्र मोदी को देखकर भी समझ नही आता कि अपढ़, कुपढ को अधिकार देने से क्या हश्र होता है ]
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देवास में नए भवन में लॉ कॉलेज लगने लगा है, विधायक निधि से पहुंच मार्ग बना है सुना है पूरे 28 लाख का टुकड़ा है डेढ़ किमी का, पर अफसोस कि रोज इतना कीचड़ रहता है कि दो चार छात्र छात्राएं गिरते है गम्भीर होते है और स्टाफ की कार भी फंस जाती है, भ्रष्ट ठेकेदार की हिम्मत देखिये कि विधायक को चुना लगा दिया और बेशर्म अधिकारियों ने टेक्निकल सेंक्शन भी दे दी
कमाल है, अर्थ साफ है कि सब मिलें हुए है - कहाँ भुगतेंगे पता नही
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विक्की कौशल
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अब तक का श्रेष्ठ अभिनय
शब्द नही, कोई टिप्पणी नही, बस देख लें
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ऐं मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
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"हमरी अटरिया पे आओ साँवरिया से लेकर दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दें, कोयलिया मत कर पुकार", जैसी अदभुत गायकी की बेताज़ गायिका बेगम अख्तर पर बनी 27.31 सेकेंड की यह फ़िल्म " हाय अख्तरी", नही देखी तो क्या देखा आपने
ख्याल गायकी को ठुमरी - दादरा से गाकर उन्होंने संगीत को जो ऊंचाईयां दी और इश्क को जीते जी खुदा के रूप में जिया, दुख को भोगा और गाने से व्यक्त किया - वह कमाल बेगम अख्तर ही कर सकती थी और यह सदियों तो शायद कोई कर नही पायेगा और यही गायकी की अदा उन्हें उनकी समकालीन सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बी से अलग कर भारतीय शास्त्रीय संगीत में अमर करती है
बेगम अख्तर के पास सब था - दोस्त, रुपया या शोहरत भी, पर कुछ ऐसा था जो उन्हें अंदर ही अंदर खा रहा था, इसलिए आख़िरी दिनों में उन्होंने अपने को एकाकीपन और शराब में डुबो दिया और उसी डिप्रेशन में खत्म हो गई ; 30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया , आखिर कब तक डिप्रेशन और अकेलेपन में भला जीती - मेरा यह मानना है कि एक रचनात्मक शख्स अक्सर इश्क, अकेलेपन में खत्म हो जाता है और शराब यह काम बहुत आसान कर देती है - जब जीना मुश्किल हो जाये और दुश्वारियां हावी होने लगे तो शराब सुकून देती है
"यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया"
इस भीगती शाम में यह छोटी सी फ़िल्म देखकर मन भीग गया है और लग ही नही रहा कि खत्म हो गई है फ़िल्म, बस अब सिर्फ बेगम अख्तर की ठुमरी है, तन्हाई, अपना ग़म और काला कुत्ता
जरूर देखें
https://www.youtube.com/watch?v=hnCbmz9t7-Q
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यात्राएँ निकालों - भागीदार सब खुद करेगा - रहना, खाना, आने - जाने का किराया, ऊपर से डोनेशन भी देगा "तगड़ा डोनेशन" - क्योंकि कोविड ने सबको बर्बाद कर दिया है, बस भागीदार अकेला ही मंगल ग्रह से आया है कुबेर का खजाना लेकर और दो चार को स्पॉन्सर भी कर दें - जान ले लो बै - आयोजक सब रख लेगा - अनुदान भी, चंदा भी और स्पॉन्सरशिप से आया मोटा माल भी - बहुत चोखा धंधा है गुरु, सच्ची भगवान की कसम
किस डॉक्टर ने बोला कि यात्रा निकालों और लोगों को चुना लगाकर कबीर या रैदास सुनाओ भौंडी आवाज में
किस डॉक्टर ने बोला कि जेब कटवाकर सामाजिक चुल के तहत फोकट में परेशान हो
घर बैठकर यूट्यूब पर सब सुन लेंगे ज्ञानी जी, आप तो रैने दो, आपसे नई हो पायेगा, बहुत साल हो गए यात्राओं का धंधा देखते - भुगतते हुए
कृपया कोई निमंत्रण ना भेजें - ग्यारह हजार डोनेशन से लेकर ऊपरी तीस - चालीस हजार तक के खर्चों वाली यात्रा के - इतने में तो भूटान घूम आऊंगा या मस्त गोआ में समुद्र किनारे एन्जॉय कर सुन लूँगा कबीर, गोरखनाथ, रैदास या भीमसेन जोशी को
ये विदेशियों को बेचो यात्रा का फर्जी आध्यात्म वाला माल - जो गाँजा लगाकर चल देते है कही भी पगलेट टाईप
जै जै आप ज्ञानियों की
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आज त्रासदी का दिन है
अभी मालूम पड़ा कि पूर्व छात्र और युवा मित्र हिमांशु मोघे का भी निधन हो गया पिछले वर्ष अगस्त 2020 में - कोरोना ने निगल लिया, फेक्ट्री के तनाव, कमजोरी और बीमार होने के बाद भी नाईट शिफ्ट में काम करने की मजबूरी, प्रबंधन ने छुट्टी नही दी
हिमांशु बीना का रहने वाला था, इंदौर से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर पीथमपुर में नौकरी कर रहा था, फिर देवास में नौकरी लगी तो मुझसे कमरा खोजने का अनुरोध किया, ज्वाइन करना था अर्जेंट में, कमरा मिलने तक मेरे घर रहा 3 - 4 दिन, आखिर घर के पास ही एक कमरा मिल गया डॉक्टर कंवर जैन के यहाँ तो शिफ्ट हो गया, घर आ जाता था अक्सर कि आपके हाथ का खाना लाजवाब होता है - यहां वेतन कम था, फिर उसे एक माह बाद सेंधवा के पास कही नौकरी लग गई, वो चला गया और फोन पर बात हो जाती थी
इधर काफी दिनों से ना मैं देख पाया उसके अपडेट्स, ना फोन कर पाया और अभी जब मालूम पड़ा तो सन्न रह गया, मात्र 27 वर्ष का था
अपराजिता के निधन से वैसे ही स्तब्ध हूँ - ऊपर से हिमांशु का यह समाचार, उसका आखिरी वाट्सएप पर सन्देश कि "दादा आता हूँ - जल्दी ही टेकड़ी जाना है, शादी तय हो गई है आपको ही सब करना है" ; उसकी माँ नही थी, पिताजी बुजुर्ग थे जिनसे मैं कभी मिल ही नही पाया
कैसा मनहूस दिन है - काहे का त्योहार
सब कुछ डीग रहा है - विश्वास, आस्था और जीवन में आशाएँ, शर्म आ रही है अपने आप पर - ऐसा कैसे हो गया मैं - इतना गैर जिम्मेदार और अमानुष
ये दुख काहे कम नही होता
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क्यों आसमान में चकमक करते तारे
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इस देश को वैसे अब ना सावरकर की जरूरत है ना गांधी की, ना अम्बेडकर की ना नेहरू की, ना स्पष्टीकरण की, ना इतिहास की, ना ज्ञान की और ना विज्ञान की और इन सरकारी झूठो की तो बिल्कुल ही नही - इस सबमे उलझने से घण्टा कमाई ना बढ़ रही या जीवन आसान हो रहा, इतनी समझ नही तुम्हारी तो कही जाकर डूब मरो - कम से कम जनसँख्या तो कम होगी, एक आदमी के मरने से जगह बनेगी तो दूसरा पांव पसारकर सो तो सकेगा
बहुत हो गया सावरकर, गांधी, नेहरू, जिन्ना, वाजपेयी, अम्बेडकर, पटेल, इंदिरा, मनमोहन सिंह का यश पुराण और निंदा गाथा - कब तक मूर्ख बनते रहोगे बै - आर्यन, सुशांत या कंगना के नाम पर, सब एक माला के मोती है - इससे बेहतर है - गला पकड़ो अपने प्रतिनिधियों का, सवाल पूछो उनसे और उन्हें हिसाब दो अपनी कमाई का और बाज़ार के खर्चों का और पूछो कि ये जो खड्डा यानी जो नुकसान हो रहा है दोनो के बीच, कर्ज बढ़ रहा है हरेक पर वो किसका बाप भरेगा, क्यों अम्बानी - अडानी दुनिया के सबसे बड़े रईस बन रहे है, क्यों टाटा एयरलाइन खरीद लेता है और तुम साले एक लाइफबॉय साबुन नही खरीद पा रहें हो
जरूरत है 140 करोड़ नपुंसकों को सड़कों पर आकर पेट्रोल डीजल के भाव और महंगाई बढ़ाने वालों को सड़क पर खींचकर नंगा करके दौड़ाने की है - ताकि इनका ध्यान असली मुद्दों पर आए बजाय लोगों को बरगलाने के और ये बचे हुए समय मे जनहित में कुछ सार्थक कर सकें, बाकी तो अंधें - गूंगे - बहरों भक्तों को कुछ कहना ही बेकार है
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शुभो विजयादशमी
रावण सर्वत्र है - बाहर - भीतर - लघुत्तम और वृहद रूप में, मारना आदि तो सब बेकार की बातें है - इनसे बचकर भी दो पग चल सकें तो बेहतर, वैसे अब असम्भव है, सरल - सहज जीवन रावण के बिना सम्भव नही
बहरहाल, अपने अपने रावणों के संग ज़िंदा रहें, आबाद रहें और मस्त रहें
आज नही तो कल सब एहसास पुण्य पाप को छोड़कर यथार्थवादी हो ही जाते है और जितना व्यवहारिक हो सकें होना ही पड़ता है - राम रावण की कल्पना में अपने आपको धोखा देते हुए कर्म करते रहिए बस यह ध्यान रहें कि फायदा मैं से थोड़ा बड़ा हो - परिवार, दो चार पड़ोसी या थोड़ा सा समाज, बाकी कल्याण और जगत का भला तो ना राम जी कर पाये ना रावण किसी का बुरा कर पाया - बस अपने आसपास के दो चार लोग भी आपकी अलाई भलाई का फायदा जीवन में एक क्षण उठा पाये या एक स्निग्धता उनके मुख मंडल पर आ गई तो दशहरा भी मस्त और दीवाली भी मस्त बाकी तो जीवन के संघर्षों से मुक्ति मौत ही दिलाती है
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जो अक़्सर नाराज़ रहते है मुझसे, उनके लिए
[ कोई स्पष्टीकरण नही, बस सूचनार्थ ]
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एक ही फ़न तो हमने सीखा है
जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजै
◆ जौन एलिया
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एक छोटी सी किताब पर काम कर रहा हूँ सम्पादन का और आलेखों का पुनर्लेखन कर व्यवस्थित करने का, लगभग 30 - 40 आलेख मिलें है छाँटने को और पुस्तक में सँजोने के लिए
"की - कि से लेकर बहार - बाहर, भोत - बहुत - बहोत, मोत - मौत, शोक - शौक, सोच और शौच, बिकास - विकास, स्वास्थ - स्वास्थ्य, कबिता - कविता, अध्यन - अध्ययन, मदद - मदत, सहेज - सहज, मेहक - महक, जबरदस्त - जबरजस्त, पढ़ने - पड़ने ", तक की गल्तियां सुधारते - सुधारते तंग आ गया हूँ, रोमन में मोबाइल पर लिखें और वाट्सएप पर प्राप्त आलेखों का कचरा इतना भयावह है कि पल्ले नही पड़ रहा
अंग्रेजी के आलेखों का हाल और बदतर है - "wen, shud, cud, hv bin, bet 'n, say - sad - said, tale - tail - tell, tushan - tution - tuition, Rison behnd it, you was younger in India and ", लेकर टेन्स, क्रिया, सहायक क्रिया या वाक्य रचना में वाक्यों की हत्या इतनी बेदर्दी से हुई है कि कह नही सकता
ये सब लोग शासन, प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी रहें है, राष्ट्रीय स्तर के एकमेव संस्थानों से शिक्षित - दीक्षित और प्रशिक्षित है और भाषा का इतना कबाड़ा ; आपको इनके नाम उजागर करूँ तो ये लोग मेरी जान ले लें - सब प्रतिष्ठित और सम्भ्रान्त है
मन करता है सब छोड़कर देश भर में "की और कि का फर्क या पिता और पीता" - ही समझाने लग जाऊँ - तो एक जीवन कम पड़ेगा
मैं यह नही कहता कि मेरा भाषा या लिपि का ज्ञान श्रेष्ठ है या अंग्रेजी का उस्ताद हूँ, पर कम से कम पढ़ने वाला आत्महत्या करने तक नही पहुँचेगा - इतना प्रयास हमेशा रहता है - जब कही कुछ भेज रहा होता हूँ - मतलब आभा या सरस्वती को पुर्लिंग की तरह से कोई लिखें तो क्या कीजियेगा और गिरिनाथ सिंह या प्रबल प्रताप को स्त्री लिंग के रूप में
किसे दोष दें, हर स्तर के माड़साब नीचे ढोल देते है और नीचे वाले बाप - माँ पर, तो भैया - आप लोग क्या भाड़ झोंकने को बैठे हो स्कूल - कालेज से लेकर आईआईएम या लबासना मसूरी में , क्या पढ़ाया - लिखाया या आदेश निकालकर प्रशासन किया जीवन भर
और हम गर्व से कहते है हिंदी हमारी भाषा है और शिक्षा के हम दिग्गज़ खिलाड़ी है, डूब मरने की बात है - यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है जिस पर कोई ध्यान नही देता और रही सही कसर लॉक डाउन ने पूरी कर दी है
धित्कार है हम सब पर




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