Madan Kashyap जी की एक नई कविता उन्होंने अपनी वाल पर शाया की है, मेरा मूल सवाल है कि कविता में समाज शास्त्रीय घटनाओं और विश्लेषण नही और मौजूदा देश काल परिस्थिति और वैश्विक परिप्रेक्ष्य नही तो कविता लिखना बेमानी है और कोई अर्थ नही ऐसी कविता, कहानी या उपन्यास का - फिर हमें - "तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित - चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ" टाईप लिखना चाहिये
मुझे लगता है कि कविता ठीक ठीक ही है पर मदन जी दूसरा पहलू भूल रहें है कि हर जगह स्त्रियाँ है अब बहुतायत में, सारे कानून स्त्रियों के पक्ष में है, सुशासन में स्त्रियाँ है, इन सबके क्रियान्वयन की अपनी दिक्कतें जरूर है पर बगैर अन्य पहलुओं पर विचार किये इस कविता को सिर्फ लिजलिजी भावुकता ही कहा जा सकता है
दहेज, बलात्कार, प्रताड़ना से लेकर घरेलू हिंसा से महिलाओं को संरक्षण जैसे कानून की आड़ में पुरुषों का शोषण और शारीरिक, मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाली स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर है - इस बात को व्यापक दृष्टि से देखें समझे बिना इस कविता का कोई अर्थ नही है, फर्जी आरोपों की एक लम्बी सुनियोजित श्रृंखला है जो स्त्रियों ने अपने पक्ष में स्थापित कर ली है
यदि यह तालिबान जैसी घटना पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई है तो ठीक अन्यथा यह विशुद्ध एकतरफा कविता है
हाँ, बहुत दूर दराज के सामंती माहौल में यह शायद सामयिक हो पर ग्रामीण स्त्री भी अब हंसिया और कुदाल लेकर खड़ी है और यह सब इसलिये कह रहा कि मैं रोज़ गांव दर गांव घूमता हूँ प्रशासन से लेकर उद्योग और अदालतों में जीवंत केसेस देखता हूँ
कृपया ध्यान दें कि मैं महिला विरोधी नही और ना ही इस तरह की कविताओं का विरोधी हूँ पर कैथरकला की औरतें या "तीरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन" भी ध्यान रखना होगा कि कविता का विकास कहाँ से होता हुआ कैसे हुआ है सिर्फ निगेटिव छबि दिखाकर हम महिलाओं को कमज़ोर ही कर रहें है - विश्व स्तर से लेकर भारत तक स्त्रियों को देख लें कि वे आज कहाँ है
आज जेंडर के मुद्दे बहुत अलग स्तर के है
•••••••
|| एक दिन स्त्रियाँ ||
-------
बैंक होगा
पर वहाँ स्त्रियाँ नहीं होंगी
विश्वविद्यालय होगा
टेलीविजन भी होगा
हस्पताल भी होंगे
पर स्त्रियाँ कहीं नहीं होंगी
उन्हें न तो पैसे की ज़रूरत होगी
न ही शिक्षा या इलाज की
आवश्यकता बस होगी तो केवल हिजाब की
काले बुर्कों में कैद कर
उन्हें डाल दिया जाएगा काली कोठरियों में
जहां कभी-कभी कुछ ख़ौफनाक आवाज़ें आएंगी
बंदूकों की या अजानों की
औरतों के चीख़ने की या बच्चों के रोने की
धीरे-धीरे मिटती चली जाएंगी उजाले की स्मृतियाँ
सबसे जहीन स्त्रियाँ बस जुगत लगाती रहेंगी
कि पतियों की पिटाई से कैसे बचे
सबसे सुंदर स्त्रियाँ ख़ैर मनाती रहेंगी
धर्मधुरंधरों की निगाहों से बचे रहने की
फुसफुसाहटों और सिसकियों तक
सीमित हो जाएंगी सबसे ख़ूबसूरत आवाज़ें
कला केवल भोजन पकाने की रह जाएगी
वैसे करने को होगा बहुत कुछ
लेकिन रसोई और बिस्तर से बाहर कुछ भी नहीं
ज्ञान बस थोपे गये कर्तव्यों के पालन के लिए होगा
दहशत इतनी गहरी होगी
कि कई बार उसके होने का एहसास भी नहीं होगा
फिर एक दिन ब्लैक होल में तब्दील हो जाएंगी
काली कोठरियाँ
और संगीनों के साये में मुर्दा हो रहीं स्त्रियाँ
हमेशा के लिए उनमें दफ़्न हो जाएंगी
बच्चा जननेवाली कुछ मशीनों को छोड़कर!
Comments