एक जरुरी आलेख छोटी सी टीप के साथ
•••••
बढ़िया संजय, एक नेहरू नही झिला रहा देश से, पानी पी पीकर कोसते रहते हैं उज्जड गंवार और आईटी सेल से भ्रम फैलाते रहते है, नेहरू जिसने डिस्कवरी ऑफ इंडिया जैसी किताब लिखकर तत्कालीन समाज से लेकर आज तक के समाज को धर्म विज्ञान दर्शन समझाया, सीवी रमन जैसे वैज्ञानिक नही आत्मसात कर पा रहें हम लोग, उपग्रह छोड़ने के पहले नारियल फोड़ रहें है, Indian Instt of Science बेंगलोर में पढ़ने वाले शोधार्थी रोज घण्टों पूजा पाठ कर मोटे - नाटे तुन्दीयल पण्डों के प्रवचन सुनते है, जिंदा इंसान जिसमे सब मानवीय कमजोरियाँ है - को गुरु मानकर अपनी थीसिस के अध्याय लिखते है - यह क्या है
सही कहा कि बचपन से पोंगा पंथी में हम सब शामिल है बरस दर बरस देश भर के कुम्भ, मेले ठेले, सिंहस्थ और साधु महात्माओं का भौंडा प्रदर्शन कोमल दिमागों पर प्रभाव डालता है, ज्योतिष, मीडिया, फिल्में इसमें घी का काम करती है - दुनिया मे कही नही पर हमारे यहां नागिन की आंखों में बदला लेने की भावना या पुनर्जन्म या चमत्कार या भूत प्रेत, आत्मा का आख्यान
रही सही कसर दक्षिण पंथी सरकारों ने पूरी कर दी है
अम्बेडकर के संविधान में पंथ निरपेक्षता होने के बाद भी धर्म के मुखर चेहरे सत्तासीन है, देश के प्रधान मंदिरों का भूमि पूजन करें, बाबाओं की दवा बेचे तो क्या उम्मीद करें कि यहां ब्रूनो, कोपरनिकस या फूको देरिदा जैसी विचारधारा या वैज्ञानिक परम्परा उभरेगी
अब लग रहा कि वैज्ञानिक चेतना के प्रसार को नीति निर्देशक तत्व से निकालकर मौलिक अधिकारों में लाना होगा तभी कुछ बात बने नही तो भाँग, गांजा और चरस पीकर उत्थान होता रहेगा और पण्डों की दुकानदारी बनी रहेगी कथा पुराणों से
[ समझदारों से कमेंट की उम्मीद बाकी बकवास ना लिखें ]
क्रिस्टोफर हिचन्स तर्कवादियों की दुनिया मे एक जाना माना नाम हैं, रेशनल और वैज्ञानिक सोच का झंडा बुलंद करने के लिए उनका संघर्ष यादगार रहा है।
दुर्भाग्य से भारतीय समाज में ऐसे लोग बहुत कम हुए हैं और हुए भी हैं तो उनका आम जन से रिश्ता ही नहीं बनने दिया गया है। भारतीय समाज इतना अंधविश्वासी, कुपढ़ और आत्मघाती है कि उसे बुद्धि ज्ञान और नयेपन से डर लगता है। पुराने अंधविश्वासों और कर्मकांडों की खोल में सिमटे रहना और भविष्य को अतीत की राख में दबाते रहना भारत की विशेषता है।
इस मुल्क में परसाई जैसे आलोचक, दाभोलकर जैसे रेशनलिस्ट या प्राचीन चार्वाकों जैसे तार्किकों नास्तिकों की परंपरा ही नहीं बन पाती। हर पीढ़ी में आसाराम, निर्मल बाबा और ओशो जैसे पोंगा पंडित खड़े हो जाते हैं और बुद्ध,चार्वाक, लोकायतों की क्रांति पर मिट्टी डालकर चले जाते हैं।
यूरोप इस मामले में भाग्यशाली रहा है। वहां आरम्भ से ही भौतिकवादियों और नास्तिकों तार्किकों की लंबी और समृद्ध परम्परा रही हैं। उसी के परिणाम में वहां पुनर्जागरण और विज्ञानवाद सहित आधुनिकता आई है जिसका लाभ भारत भी लेता है लेकिन उसे स्वीकार करने में झिझकता है।
विज्ञान, तकनीक, शिक्षा, चिकित्सा, शासन प्रशासन, लोकतंत्र, सभ्यता, भाषा भूषा और नैतिकता सब यूरोप ने भारत को सिखाई है। उसके बिना ये मुल्क एक मिनट खड़ा नहीं रह सकता लेकिन इसके बावजूद इतना नैतिक साहस नहीं कि इन तथ्यों को स्वीकार कर लें।
इसे स्वीकार करना तो दूर उल्टा इन विज्ञानं, तकनीक का इस्तेमाल करके इसी विज्ञानं और सभ्यता का विरोध किया जाता है।
बच्चों को जिस चिकित्सा, शिक्षा और सुविधा की सुरक्षा में पैदा किया जाता है और पाला जाता है उसका विरोध करते हुये इन्हीं बच्चों को विज्ञानं के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। बचपन से ही पूजा पाठ यज्ञ कथाएं उनके दिमाग में ठूंस दी जाती हैं। ये सामूहिक आत्मघात है। इसीलिये एशियाई समाज कुछ भी मौलिक नहीं खोज पाते। वे यूरोप के आज्ञापालक ही बने रहते हैं।
यूरोप का बुद्धिजीवी वर्ग बहुत पहले ही बाबाओं, गुरुओं और धार्मिक प्रवचनों के घनचक्कर से आजाद हो चूका है। आम जन में थोड़ी सी धर्मभीरुता बची है लेकिन वह उतनी बड़ी और जहरीली नहीं जैसी भारत में है। यहां तो उलटी गंगा बहती है। यहां का तथाकथित क्रन्तिकारी और प्रगतिशील वर्ग सबसे ज्यादा अंधविश्वासी और धर्मभीरु है।
दर्शन, काव्य या हिंदी साहित्य उठाकर देखिये मनु, शक्तिपूजा, महाभारत रामायण के बिंब और मिथकों की गप्पों पर खड़े कथानक पिछली सदी के आधे हिस्से तक मुख्यधारा के साहित्य पर छाये रहे। 1935 तक साहित्य में नायिका विमर्श और नख शिख वर्णन देख लीजिए।
लगता ही नहीं कि ये भारत में जन्म लिए पले बढ़े लोगों का साहित्य है। इस साहित्य में देवी देवता, राजे महाराजे, अवतार इत्यादि भरे हुए हैं। आम आदमी, मजदूर किसान या स्त्री का कोई जिक्र ही नहीं।
अंग्रेजों के सत्संग में जब यूरोपीय साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का दरवाजा भारतीयों के लिए खुला तब राममोहन, केशब, विवेकानन्द जैसों को बड़ी शर्म महसूस हुई कि भारत कैसा समाज है? इसी के परिणाम में सती प्रथा उन्मूलन जैसी सामाजिक सुधार हुए, ईसाई धर्म की सेवा भावना सीखकर धार्मिक सुधार किये गए।
इसके बहुत बाद रवीन्द्रनाथ और प्रेमचन्द जैसे शूद्रों/ पिछड़ी जाति के लेखकों का साहित्य देखिये वे ब्राह्मणवाद और अंधविश्वासी शिल्प सौंदर्य को साहित्य और सौन्दर्यशास्त्र के मैदान में आकर ललकार रहे हैं। यूरोप के इसी ज्ञान का बीज फूले, गांधी और अंबेडकर की बुलन्द आवाज में भी पल्लवित हो रहा है। और आज जो कुछ भी थोड़ा सुधार हम देख रहे हैं उसका स्त्रोत सीधे सीधे यूरोप के पुनर्जागरण और सामाजिक क्रांति के दर्शन में है।
इस बीच भारतीय पोंगा पंडित क्या कर रहे थे? उन्होंने इस बदलाव पर मिट्टि डालने के लिए धर्म राजनीती और कॉरपोरेट की ज़हरीली त्रिमूर्ति खड़ी की। नई नई कथाएं, पुराण, मिथक, झूठ और अफवाहें खड़ी की। सांप्रदायिक दंगे और मंदिर मस्जिद के बेकार के मुद्दों को राजनीति की धुरी बना दिया।
ध्यान, समाधि, अध्यात्म और पूरब पश्चिम के संश्लेषण के नाम पर धर्म और अन्धविश्वास की अफीम को फिर से राष्ट्रवाद और देशप्रेम के साथ घोल दिया। नतीजा सामने है। पूरा मुल्क बैंको की कतारों में लगा चिल्लर गिन रहा है।
क्या यह अवश्यम्भावी था? ये रोका नहीं जा सकता था? क्या भविष्य को बदला जा सकता है?
जरूर बदला जा सकता है। हमारी स्त्रियां और बच्चे अगर इन धार्मिक, बाबाओं, योगियों, कथाकारों की बकवासों से बच सकें या बचाई जा सकें तो हम भी अगली दो पीढ़ियों में भारत में सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र और नैतिकता सहित विज्ञान भी पैदा कर सकते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य ये कि इन नवाचारों की हत्या करने वाले बाबा, योगी और ओशो रजनीश जैसे रजिस्टर्ड भगवान इतने धूर्त और होशियार हो गए हैं कि वे क्रान्ति के नाम पर ही अन्धविश्वास सिखाने लगते हैं। जहर को दवाई बनाकर पिलाने लगते हैं। और ये अभागा मुल्क उनकी जहरीली खुराकों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने लगता है।
क्या भारतीय समाज नीत्शे, रसल, मार्क्स, कोपरनिकस, गेलिलियो, ह्यूम, डार्विन, आइंस्टीन, डॉकिन्स और हिचिन्स पैदा कर सकता है? या कम से कम निर्मल बाबा और ओशो जैसे पोंगा पंडितों को बीच से हटाकर इन तार्किकों को अपनी अगली पीढ़ियों के प्रति उपलब्ध करवा सकता है? इसी प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करेगा कि भारत सभ्य होगा या नहीं होगा।
***
मोई जी के प्रिय पत्तलकार मित्रों,
[ मिड कैरियर, फ़्रेश या छात्रों ध्यान दें, चोटी पर जो है वो तो सदगति को प्राप्त कर चुके है गोदी में ]
निम्न विकल्प है आपके पास जीवन में - इस पेशे को लेकर ; -
● प्रिंट या चैनल की भसड़ में बंधुआ मजदूर
● प्रकाशक, साहित्यकार बनकर धँधा
● किसी से चिपककर एनजीओ की राह का धँधा जहाँ ज्ञानी भी हो जाओगे बकर से
● किताबें, लेख, यूट्यूब पर कॉपी पेस्ट कभी ना देखें जाने वाली फिल्में बनाकर दिन भर वाट्सएप पर ठेलना
● फेलोशिप पर जीवन यापन
● किसी भी पार्टी की आईटी सेल में कलम घिस्सु
● प्रशांत किशोर टाईप ठेकेदारों के चरण पकड़कर भवसागर पार करना
● किताबें लिखकर किसी राजनेता के प्रवक्ता बन कर जीवन यापन करना
और अंत में, जो इनमें से किसी लायक नही वे सरकार के किसी विभाग में सलाहकार बन सकते है
जीवन है आपका - निर्णय है आपका
***
अफगानिस्तान की विनाश लीला में औरतें नही दिख रही हर जगह पुरुष ही है, इक्का दुक्का दिख रही तो वो भी चुप है
बच्चों और औरतों को निकाला जाएं वरना नरभक्षक तालिबानी पता नही क्या करेंगे उनके साथ
आज बाइडेन का वक्तव्य सुनकर आश्चर्य हुआ हालांकि दृढ़ता से अपनी बात कही और गम्भीर भी लगें वो यह सब कहते हुए, पर पूछने को जी चाहता है
"पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ... "
***
एक बहुत अज़ीज़ दोस्त को अभी ब्लॉक किया, पता चला कि वो मेरे पोस्ट्स से परेशान था - इतना कि बीमार पड़ गया, डिप्रेशन में चला गया, पति - पत्नी में रोज़ लड़ाई होने लगी, कहने लगा कि "मुझे रंग फूल पत्तियाँ पसन्द है, कविताएँ पसन्द है और आप जो खरी खरी लिखते हो, मेरी सरकार के ख़िलाफ़ लिखते हो उससे मैं बीमार पड़ गया" अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, कोरोना हो गया मेरी वजह से उसे
समझ नही आ रहा कि खुश होऊँ या दुखी - मैंने ब्लॉक किया कि - भाया फेसबुक और इंस्टाग्राम को जो लोग इतनी गम्भीरता से ले लें, न्यूड वीडियो बनाकर धमकी देने वाले भी आ गए है, आज ही अग्रज हरनोट जी को भी शिकार बनाया जो अस्सी साल के है लगभग, सिर्फ ट्रोलबाज नही बचे या रुपये मांगने वाले तो, तेरे को किस डॉक्टर ने बोला कि सोशल मीडिया पर रह और सामाजिक बन, किसने कहा कि मेरी पोस्ट पढ़, और अपने दिल - दिमाग़ में आत्मसात कर लें इतना कि बीमार हो जाये
अभी एक परिचित सम्भ्रान्त महिला जो सीए है, से बहस हुई तालिबान को लेकर फिर मैंने उस बहस को इस मित्र से हुई बातचीत के संदर्भ ने देखा और अपने सारे पोस्ट्स डिलीट कर दिए यह सोचकर कि हम वास्तव में बीमार, कमज़ोर, कुतर्की और हद दर्जे तक डिप्रेशन से ग्रस्त लोगों से घिरे है जो आलोचना और निंदा को दिल दिमाग़ तक ले जाते है, मोदी सिर्फ सत्ता के खेल नही कर रहें लोगों को जबरदस्त बीमार कर रहें और इस तारतम्य में मैं भी शिकार हूँ इनका
मैं सबसे माफी चाहता हूँ - खासकरके उन बीमार और मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों से जो मेरे "निगेटिव एवं सरकार विरोधी" पोस्ट्स पढ़कर भयानक फ्रस्ट्रेशन में चले गए है, मैं ज्यादा अमीर तो नही, पर इनकी बीमारी का खर्च उठा सकता हूँ, गम्भीरता से कह रहा कि मानसिक चिकित्सक को दिखाये और बिल आदि भेज दें
और मेहरबानी करके मेरा लिखा ना पढ़े, ना लाइक करें और ना कमेंट करें, उस मित्र को यही कहा कि एक समय और उम्र के बाद यदि हमारे सरोकार बड़े, नीतिगत और देश हित में भविष्य के प्रति सचेत करने वाले नही है तो हमें वैश्विक नागरिक या देशभक्त होने का भी अधिकार नही - ना ही मनुष्य होने का और यह पुनः गम्भीरता से कह रहा हूँ कि समालोचक, व्यंग्यकार होना, कवि होना और सम सामयिक विषयों पर त्वरित टिप्पणी देना कोई गुनाह नही है और जो नही देते वो सबसे बड़े हरामखोर और नाग है यह भी सच है - ये अपना घर, इज्जत, नौकरी और झूठी प्रतिष्ठा बचाकर चलने वालों में से है जो आपको कभी भी धोखा देंगे
जैसे मैं बहुतों को पढ़कर जान बूझकर कमेंट नही करता या तवज्जों नही देता और कुछ मित्रों को - जो एक जमाने से मेरे इतने करीब है कि उनके बिना मैं मर जाऊंगा, जो मेरी ताक़त है - पर दुर्लक्ष करता हूँ क्योंकि उलझने से मतलब नही है
बेहतर है आप बता दें, अलग हो जाये, ब्लॉक कर दें या ना पढ़े - मैं यहाँ स्वान्त सुखाय के लिए लिखता हूँ और किसी से एक भी उम्मीद नही करता और वादा करता हूँ अति आवश्यक होने और ही आपकी पोस्ट्स पर लाइक या कमेंट्स करूँगा, दुराग्रह ना करें
और उस दोस्त से वाकई माफ़ी मांगता हूं कि मेरे लेखन की वजह से उसके वैवाहिक सम्बन्ध कटु हुए और वह डिप्रेशन में चला गया, दुआएँ करियेगा उस विभूति के लिए, अब समझ आ रहा कि भास्कर क्यों सोमवार को "नो निगेटिव न्यूज़" देता है पर आँख मूँदने से अँधेरा हो जाएगा क्या
कुछ बड़े बूढ़े या युवा और ज्ञानी जब ओछे कमेंट करते है तो ज़ज्ब कर जाता हूँ और बेइज्जती बर्दाश्त करता हूँ पर अब नही, मुझे यहाँ किसी से रोटी बेटी के सम्बंध नही निभाना है
आप सबकी जय जय
Comments