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Some Posts of FAcebook on Gharana and Literature Posts of 13 to 14 March 2021

होली के पूर्व पंडित अम्बर पांडे एक विलक्षण श्रृंखला लिख रहे है उपकार गाइड पाठमाला

आज बिहार पर वक्र दृष्टि थी जो बहुत हद तक बल्कि शत प्रतिशत सही है
मैंने सोचा मित्रों से शेयर करूँ इस अपनी टीप के साथ ताकि बात पहुँचे
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कुछ माँ बहने सुपारी लेकर घराने के बजाय गैंग चलाने लगी और दिल्ली की अप्रतिष्ठित लोमड़ियों और फर्जी फौजियों के साथ मिलकर जान से मारने की धमकी भी देने लगी - इनके टारगेट पर रोज एक मुर्गा रहता है
मिथिला के पंडे बड़े शातिर है - ब्राह्मण घेट्टो में रहते है, जातिवाद से सामाजिक सुधार पर प्रवचन पेलते है महिलाओं और ब्यूरोक्रेट्स के बीच थोथी लोकप्रियता के लिए बुद्धि के अभेद्य किलों के वंशज बताते है और समय आने पर नागिन डांस में सबसे आगे होते है, घर सुधार नही सकते समाज और देश सुधारने निकलें है यायावर बनकर अश्वमेघ जीत लेंगे जैसे
बिहार इनकी कमजोर नब्ज भी है, बहुतेरे कालेज में नौकरी ना लगने के गम में पीजीटी / पीआरटी बन गए और अब नामवर से बड़े और आलोक धन्वा से महान खुद को घोषित कर देशभर में कूड़ा कचरा भी फैलाते रहते है, बाकी उषा दीदी की सही कही
उपकार गाइड के नियंता जी, आप रेणु का जिक्र करना भूल गए - जिसकी चरस इन दिनों बोई जा रही है, अंगिका भाषा को भोजपुरी से महान बताकर संविधान की अनुसूची में डलवाने के लिए लामबद्ध है भीड़
बिहार घराने के बाकी (अव)गुणों में एक महत्वपूर्ण है - एक बिहारी सब पर भारी जैसे जुमले से नफ़रत तो करेंगे, पर किसी को बोलने नही देंगे ये - अंजन, फ़ंजन, रंजन, निरंजन और उमार , कुमार - पूछो तो कहेंगे "जात ना पूछो साधु की" - जबकि खुद ही घेट्टो से घिरे है बापड़े बल्कि पूरा खानदान मर जायेगा पर मजाल कि एक कदम सुधार की ओर उठा लें
ख़ैर , पाटलिपुत्र में सबकी जय हो विजय हो
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अब अम्बर की बात
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हिंदी साहित्य के घराने भाग २
बिहार के घराने
बिहार में घरानेदारी की प्रथा बहुत मज़बूत है और घरानेदार इसके पीछे मरने मारने पर उतारू हो जाते है, इस घराने के लोग राँची से दिल्ली तक आपको मिल जाएँगे। बिहार के घराने में संख्याबल है। बिहार में वैसे तो नौ कनौजिए ग्यारह चूल्हे की तरह ठौर ठौर पर लघु घराने आप पाएँगे मगर बिहारी घराने मूलतः दो घरानों में विभाजित है-
पटना कलम: हिंदी के पुरातन घरानों में से एक पटना कलम घराना अब भी फलफूल रहा है और हर साल कवियों की नए खेंप तैयार कर देता है। इस घराने में ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ बन्धु आपको अधिक मिलेंगे।
इस घराने की सबसे बड़ी विशेषता है उपनाम या सरनेम छुपाना, इस घराने के मेम्बर केवल अपना प्रथम नाम उपयोग में लाते है या कविनाम रखकर उससे काम चलाते है। औसत मगर निरंतर (mediocre but consistent) साहित्य चाहे वह कविता या कथा उपन्यास हो देने में इस घराने का कोई जोड़ नहीं और प्रकाशक इनके आसरे ही धंधे में टिके रहते है क्योंकि पटना कलम घराने के कवि साहित्य सरकारी नौकरियों, प्रोफ़ेसरी आदि में लगकर अपने घराने (पढ़े खुद की) किताबों की बिक्री करवाने में पारंगत होते है।
भले खेती बाड़ी, मकान दुकान, लैप्टॉप और मोबाइल हो मगर तब भी दरिद्रता को दामन से लगाए रखना इस घराने की एक अन्य विशेषता है। जिसे प्रकट करने के लिए इस घराने के कवि लेखक बहुत विशिष्ट रीति अपनाते है जैसे कविता या कहानी में जगह जगह “भात भात लिख देना”, जैसे किसी ने लिखा “भात ही भगवान है” तो घराने में उसे तुरंत प्रवेश दे दिया जाता है। जनेऊ पहनना मगर जातिविरोधी साहित्य की रचना भी इस घराने की विशेषता है। दैन्य का माहात्म्य गान करनेवाले को इस घराने का चिराग़ माना जाता है।
इस घराने के कुलदेवता है रामधारी सिंह दिनकर, जिन्हें भूमिहार साहित्यकार बन्धु विशेष रूप से पूजते है, पूजने का ढंग है बार बाद उनकी कविताएँ सोशल मीडिया पर शेयर करना। आलोकधन्वा इस घराने में विशेष प्रसिद्ध है।
इस घराने की एक अति विशिष्ट रीति इस गाइड के लेखक ने दृष्टिगोचर की है वह है सुन्दर स्त्रियों की फ़ेस्बुक प्रोफ़ाइल के नीचे मादक कविताएँ या वचन लिखने की, निश्चय ही उसने हिंदी साहित्य को तारीफ़ी/फ़्लर्टी लेखन से समृद्ध किया है।
रेणु नामक आंचलिक भैरव को पूजे बिना पटना कलम घराने का मंत्र नहीं मिलता।
पटना घराने के पुरुष नाम के पीछे रंजन छाप लगाते है और बाँदा जनवादी कवि घराने के अपेक्षा सुथरे कपड़े धारण करते है। चाहे भगवा हो लाल पिंक या हरी पॉलिटिक्स हो अपने घरानेदार की निंदा सख़्त वर्जित है।
मिथिला की मण्डली:
मिथिला घराने का उन्नयन वैसे तो इसके पितृपुरुष नागार्जुन और प्रवर्तन विद्यापति ने किया किन्तु इसमें इन दिनों बोलबाला स्त्रियों का है। यह सामान रूप से कथा और कविता के क्षेत्र में सक्रिय है किन्तु इसकी प्रसिद्धि झुण्ड बनाकर हमला करने, शत्रु को झँझोड़ झँझोड़कर मारने में है और सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी बहस और बखेड़े खड़े करने में भी है।
इस घराने की एक और विशेषता है चाहे जहाँ मैथिली में बोलने लगना या फ़ेस्बुक पर अचानक मैथिली में कविता या टिप्पणी कर देना। झा सरनेम न हो तो मिथिला घराने के कवि लेखकों में भी अपना सरनेम त्यागने का रिवाज है। झा उपनाम वाले गर्व से अपना उपनाम लगाते है।
इस घराने की एक और विशेषता है मैथिल ब्राह्मण संस्कृति का गुणगान करना, उन्हें अति श्रेष्ठ बतलाना और इस मामले में यह कुमाऊँनी ब्राह्मणों का थोड़ा बहुत मुक़ाबला कर सकते है।
इस घराने की महामाई भामती नामक उपन्यास की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती उषाकिरण खान है और उनके लाइव के दौरान घराने के सभी सदस्य लाइव में दंडवत अवश्य ही करते है, मिथिला घराने की महामाई उषामैया गाइड लेखक का कल्याण करें।
बिहार के दोनों घरानों का सेनापतित्व गीताश्री के हाथों में है ऐसा माना जाता है।
मिथिला घराने के भैरो राजकमल चौधरी माने जाते है।
बिहार घरानों का प्रमुख त्यौहार छठ बताते है, जिसके बारे में सभी सवर्ण घरानेदारों का कहना है कि यह एकमात्र त्यौहार है जिसमें पुरोहित की दरकार नहीं जैसे भारतवर्ष के अन्य सभी त्यौहार पंडों के बिना नहीं हो सकते और छठ में खर्चा भी कम है क्योंकि सूपड़े में रखे फल, अनाज आदि घराने के कवि लेखक खुद ही कविता और लेखों की तरह उत्पन्न करते है।
बिहार के अन्य घराने
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि बिहार में कई छोटे बड़े घराने भी है किन्तु उनकी विशिष्टताएँ इतनी दृष्टिगोचर नहीं कि गाइड में उन्हें स्थान दिया जाए।
बिहार घराने की सेनापति वीरांगना गीताश्री ने दिल्ली के क़स्बाती घराने के सदस्य प्रभात रंजन के साथ संधि करके मुज़फ़्फ़रपुर घराना चलाना चाहा जिसके हेतु लाइवमेध यज्ञ भी बहुत दिनों तक चला किन्तु वह अभियान सफल न हो सका। इतिहास सबसे संग इतना सहिष्णु होता भी कहाँ है!
दिल्ली और अन्य घरानों के विषय में अगले पाठ की प्रतीक्षा करे।
(विशेष सूचना: व्यंग्य भावना से पढ़ें। व्यक्तिगत होने पर दुखी होने की ज़िम्मेदारी आपकी खुद की होगी।)
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पंडित अम्बर पांडेय का समाहार दिल्ली के बहाने साहित्य की दुर्दशा पर चिंतन
मैंने कहा कि " दिल्ली घराने के कवियों पर स्व भगवत रावत जी ने कविताएँ लिखी थी दिल्ली के कवि, लोदी रोड़ पर साहित्य अकादमी से लेकर चाणक्य पूरी के दूतावासों में लार टपकाने वाले भी घरानों के जीवंत प्रतिनिधि है
देश की राजधानी में स्थित हिंदी के घरानों को एक ही रेखा बाँटती है - विवि की नौकरी और फिर थोड़ा खोदेंगे तो हायरार्की और उसमें सबसे दलित शोधार्थी होते है जो आगे जाकर कद्दावर आलोचक बनते है अखबारों में प्रूफ रीडरी करते हुए कादम्बिनी में "पति को रिझाये" जैसे कालम लिखकर या भास्कर के सम्पादकों के सम्पादकीय के प्रूफ पढ़ते हुए जुगाड़ सेटिंग से किसी भी विवि में जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विवि या सुदूर हैदराबाद या अंडमान में ब्राह्मणत्व को रोते हुए मास्टरी करते हुए प्रोफेसर का दर्जा पा जाते है - अंजाब - पंजाब भी जाते है पर संगठित दिल्ली के विवि वाले इन आलूचना टाईप तबलचियो को घुसने नही देते मुजरे के बाद भी और ये पांचों वक्त की नमाज अदा करके रह जाते है या रविवारों को चर्च में प्रार्थना करते पाये जाते है, दिल्ली ना मिल पाने के गम में कुंठित हो जाते है ऊपर से अंग्रेंजी ना आने का अवसाद, उफ़्फ़
तीसरे किस्म के झुग्गी झोपड़ी टाइप घरानेदार है - जिन्हें वहाँ घास नही मिलती तो भोपाल, विदिशा, मधुबनी, गोरखपुर या लखनऊ से लेकर इंदौर के वाट्सएप विवि में दखल देते है और कस्बों के लोग साल में एक बार उनको बुलाकर भोपाल के किसी दड़बे में सुन लेते है
दिल्ली घराने के अलावा बाकी जुगाड़ू भी है
इलाहाबाद,लखनऊ, कानपुर, इंदौर, जबलपुर या रायपुर आदि की क्या कहें - जो है हइये है
बाकी जे श्रृंखला खत्म ना हो और आप अंतर्धयान ना हो अम्बरू देव, निर्धनों के प्रभु
कभी केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रा और नार्थ ईस्ट की भी बात करो - ताकि वहाँ हिंदी मैया की सेवा कर रहें तमाम ब्यूरोक्रेट्स, हिंदी पढ़ने - पढ़ाने भेजे गए जबरन वसूली टाईप वाले कुंठित माड़साब और हिंदी सेवी भी सामने आए जो दिल्ली और उत्तर वालों को घूमाने के लिए अभिशप्त है या जो बेचारे फेसबुक पर अपनी पोस्ट पर माता - बहिनों से 10 -15 जवाबों में सिर लटक पटक कर जान देने को बेताब है और बीबी के जूते खाते है"
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अम्बर की बात.....
हिंदी साहित्य के घराने भाग अंतिम
दिल्ली के घराने
महात्मा गांधी के दिल्ली में प्रार्थना प्रवचन हिंदी में देने से ही दिल्ली में हिंदी साहित्य के घरानों का आरम्भ इतिहासकारों ने माना है और हम भी मानते है। उससे पहले घराने काशी, प्रयाग, पटना आदि में थे मगर दिल्ली में उर्दू का बोलबाला था।
घरानों का संगीत के घरानों की तरह ही कोई विशेष भूगोल नहीं होता, भले हम उन्हें स्थान विशेष से पुकारते हो, होते वे आधारित चारित्रिक विशिष्टताओं पर ही है जैसे संगीत का किराना घराना बड़ौदा से धारवाड़ तक विकसित हुआ जबकि किराना नामक स्थान उत्तर प्रदेश में है। दिल्ली में भी इसी तरह बहुत से घराने विकसित हुए और उनके बीच वर्चस्व को लेकर युद्ध होते रहे।
दिल्ली में साहित्य के मुख्य दो ही घराने माने जा सकते है- दिल्ली का शहराती घराना और दिल्ली का क़स्बाती घराना।
दिल्ली का शहराती घराना: इस घराने के प्रवर्तन का श्रेय डॉक्टर नगेंद्र को जाता है। उसके बाद से आज तक यह घराना कई बार टूट-फूट, उजाड़-लड़ाइयाँ और महायुद्धों का केंद्र रहा मगर ईश्वरीय माया से अब भी फलफूल रहा है।
दिल्ली के शहराती घराने की बैठक लोधी गार्डन के निकट किसी क्लब में होती है और घरानेदारों का हाज़िरी देना आवश्यक समझा जाता है। घराने में दाख़िले की शर्तें है अंग्रेज़ी में संभाषण की क्षमता होना, रईस होना, महँगे फ़ैशनबल लिबास पहनना और क्लब की गोष्ठी में बीच बीच में बाहर बग़ीचियों में जाकर अचानक सिगरेट पीते हुए बेकेट की नाटकों के संवाद बोलने लगना, स्त्री सदस्य को हैंडलूम की महँगी लॉंड्री धुली साड़ियाँ पहनना, चाँदी के बड़े बड़े ठीकरे गहनों के नाम पर पहनना और कुशल केशसज्जा करना आवश्यक है। पुरुष दिल्ली के विश्वविद्यालयों के ऐसे प्रोफ़ेसर होते जो यूपी बिहार की संस्कृति से सर्वथा मुक्त होकर मुहावरेदार अंग्रेज़ी में गोष्ठी करे और मीठे मीठे संवाद कहने में कुशल हो। शराब पीकर बहके नहीं और बहक जाए तो खूब हंगामे बरपा करे दूसरे दिन उच्चकुलीन शैली में सबको फ़ोन करके अपने नशीले व्यवहार की क्षमा माँगे।
दिल्ली के शहराती घरानों के सदस्य साहित्य के उच्चतम स्तर के पुरस्कार आदि समितियों में होते है। सोशल मीडिया पर प्रोफ़ाइल बनाने पर दिल्ली के शहराती घराने से निकाला देने की पृथा है।
दिल्ली के शहराती घराने की कुलदेवी कृष्णा सोबती को माना जाता है, कुलदेवता निर्मल वर्मा कहे जाते है। इस घराने के मुखिया अशोक वाजपेयी माने जाते है, गीतांजलिश्री नामक लेखिका के व्यवहार से इस घराने के रंगढंग देखकर आप इस घराने में शामिल होने का प्रयास कर सकते है।
ऊँची सरकारी नौकरी या स्कॉलर पति या पत्नी, वाइन और चीज़ की पहचान इस घराने की एक और विशिष्टता है। इस घराने के सदस्य बनने के लिए आपको अपनी क़स्बाई वृत्ति से छुटकारा पाना आवश्यक है।
दिल्ली क़स्बाती घराना:
वे अभागे जो दिल्ली आकर भी लिट्टी चोखा और चूड़ा-जलेबी और गुटखा-खैनी में पड़े रहते है वे दिल्ली के क़स्बाती घराने में शामिल हो जाते है। डॉक्टर नगेंद्र पर विजय पानेवाले नामवर सिंह को इस घराने का आदिपुरुष माना जा सकता है।
अपने क़स्बों के बालक बालिकाओं के उद्धार करने की ललक, निम्नकोटि का साहित्य और ख़राब लिबास पहनना, अंग्रेज़ी पर पकड़ न होना, सस्ती शराब का चस्का इस घराने की विशेषताएँ है।
पीएचडी न कर पाए किन्तु जिन्होंने एमए हिंदी में किया हो ऐसे लोगों की भी इस घराने में बहुतायत है, यह लोग पत्रकार बन जाते है या सम्पादकी के फेर में पड़ जाते है जिसके कारण यह साहित्य के दूसरे घरानों के लोगों पर रौब जमाते है। प्रभात रंजन, अविनाश मिश्र इस घराने के कुलभूषण माने जाते है।
हँस कुटुम्ब: दिल्ली का एक बिसरा हुआ घराना
राजेंद्र यादव ने नारीमुक्ति के नाम पर सनसनीखेज़ कामुक कथाएँ लिखाकर इस घराने का प्रवर्तन किया था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद यह घराना असमय काल कवलित हुआ दिखाई देता है।
राजपूताने के घराने:
राजपूताने के राजघराने मशहूर है मगर साहित्य के घरानों में यह फिसड्डी ही साबित हुआ। जयपुर और बीकानेर में घरानें स्थापित होने की लेखक को सुगबुगाहट पहले दिखाई दी थी मगर जयपुर आपसी खींचतान और झगड़े की वजह से कभी मजबूत घराने के रूप में स्थापित नहीं हो सका।
बीकानेर घराना
यह घराना भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री की एक उपशाखा बनके रह गया, वैसी ही अपठनीयता और अमूर्तन को यहाँ भी तरजीह दी जाने लगी। इस घराने के लोगों ने भोपाल घराने से रिश्तेदारियाँ भी स्थापित की मगर अफ़सोस कि भोपाल घराने का ही जब पतन हो चुका तो उसकी उपशाखा का क्या प्रभुत्व होता?
राजपुराने के जयपुर घराने के कुलदेवता विजयदान देथा है जिन्हें बिज्जी कहकर पूजा अर्पित की जाती है। बीकानेर घराने के कुलदेवता अज्ञेय है, भोपाल घराने ने भले अज्ञेय को त्याग दिया हो किन्तु बीकानेर घराने में अब भी उनके नाम का व्रत रखा जाता है।
मालवा के घराने:
मध्यप्रदेश को साहित्य संसार में गाँव माना जाता रहा मगर सबसे अधिक महान साहित्यकार यहीं से आना लेखक ने दृष्टिगोचर किया है चाहे वह माखनलाल चतुर्वेदी हो, प्रदीप हो या हरिशंकर परसाई हो शरद जोशी मुक्तिबोध या नरेश मेहता हो या विनोद कुमार शुक्ल मगर मालवा घराना कभी विकसित नहीं हो सका। इसका कारण सम्भवतः सामान विशेषताओं का अभाव और अपने घराने के आदमी की बेइज्जती करने की परम्परा रही है।
कलकत्ता और लखनऊ : कलकत्ता हिंदी साहित्य का बहुत बड़ा केंद्र रहा मगर उसका भी कोई घराना नहीं बन पाया जैसे लखनऊ घराना न बन सका जबकि उर्दू में लखनऊ दो बड़े घरानों में से एक है। कलकत्ता में अभी एक नवीन संस्था नीलांबर कलकत्ते में घरानेदारी स्थापित करने के लिए अत्यंत गम्भीर प्रयास कर रही है। अमृतलाल नागर और यशपाल जैसे साहित्यकार देनेवाले लखनऊ में अब हिंदी के गम्भीर साहित्य की झलक तक नहीं मिलती। क़िस्से कहानी और बतोलेबाज़ी की झांकियाँ ज़्यादा है।
कुमाऊँनी पंडितों का घराना: शिवानी ने यह घराना चलाया मगर उनके बच्चों, भतीजों और भाँजों ने कुमाऊँनी पंडितों की अतिप्रशंसा कर करके यह घराना ख़त्म कर लिया। पालतू बोहीमियन में पुष्पेश पंत की भूमिका जो पुस्तक के विषय में कम और कमाऊँनी ब्राह्मणों के विषय में अधिक बात करती है, इस लेखक की बात का साक्ष्य है।
उपसंहार: घराने बनते बिगड़ते रहते है। हिंदी में काशी घराने की भारतेंदु युग से छायावादी युग और फिर नामवर सिंह के काशी रहने तक धूम थी मगर अब वहाँ कौएं उड़ते है उसी तरह एक वक़्त पर इलाहाबाद घराने का बोलबाला था, स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी में इलाहाबाद घराने ने सम्भवतः सबसे उत्कृष्ट साहित्य दिया।
(व्यंग्य भाव से पढ़े। हृदय पर न ले।
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हिंदी साहित्य के घराने 

क्लासिकल संगीत की तरह हिंदी साहित्य में भी घरानेदारी का रिवाज है और सिक्का जमाने के लिए कोई घराना पकड़ना ज़रूरी होता है। आज हम पढ़ेंगे है हिंदी साहित्य के घरानों के बारे में—

१. भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री: 

यह हिंदी साहित्य का सबसे मशहूर घराना कहा जा सकता है क्योंकि इसकी घरानेदारी सीखना सबसे आसान है— इस घराने की विशेषता है- अमूर्तन, प्रत्येक वस्तु का अमूर्तन करना इस घराने की सबसे बड़ी विशेषता है जैसे इन्हें कहना हो पाखाने में पानी नहीं आ रहा तो भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री का आदमी कहेगा- जल पाखाने में बह रहा है। अब बुआ होकर आई है, अब पिता जी जा रहे है। अब रीता लोटा लुढ़क रहा है। अब पाखाने में पानी ख़त्म हो गया है। सूरज चढ़ आया है। आदि।

इस घराने के पितृपुरुष श्री अशोक वाजपेयी जी ने यह घराना बरसों हुए त्याग दिया है और उनके छोटे भाई और कई अन्य स्त्री पुरुष इस घराने के अंतर्गत लेखन कार्य कर रहे है जिसमें कहानी, कविता आदि शामिल है। 

अपठनीयता होना इस घराने की मूल शर्त है। पठनीय रचना होने पर घराने की मोहर नहीं मिलती।

पूर्व में इस घराने के कुलदेवता निर्मल वर्मा, पश्चात विनोद कुमार शुक्ल, अब कोई कमलेश जी है। इस घराने में शामिल होने के लिए समास पत्रिका में अपनी रचना भेजे। इस घराने के कवि  लेखक साफ़-सुथरे रहनेवाले, खुशलिबास और पढ़े लिखे मध्यवर्ग से आते है। यह घराना धनवान है।

२. यूपी के दो घराने

यूपी के दो घराने है- बाँदा जनवादी कविता घराना और दूसरा बीएचयू पीएचडी कवि आलोचक घराना। 

बाँदा एक बर्बाद हो चुका घराना है, बड़ी मुश्किल से इसे केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा ने बनाया था मगर अब ज़्यादा चहलपहल नहीं है और स्थानीयता का आलम है। 

इस घराने की विशेषता है - आवश्यक नहीं कि इस घराने के सभी कवि बाँदा से ही आए, यूपी के डिग्री कॉलेज से आनेवाले विद्यार्थी  और प्राध्यापक सभी इस घराने में शामिल होते है। प्रचलित छंदों में मोटी मोटी कविता करना इस घराने की प्रमुख विशेषता है, ग्रामीण परिवेश का आधिक्य और प्रकृति के अरय्यं साधारण दृश्यों को महान मानना इस घराने की परिपाटी रही आई है। 

इस घराने में खुद को किसान बताए बिना प्रवेश सम्भव नहीं न शहराती मर्दुम की इस घराने में कोई जगह है। सालों से प्रोफेसरी करनेवाले भी इस घराने में खुद को किसान आदि बतलाते है। 

इस घराने के कुलदेवता केदारनाथ अग्रवाल है और फ़िलहाल इस घराने के सबसे दादापुरुष अष्टभुजा शुक्ल है। ब्राह्मणों की इस घराने में बहुलता है। साथ ही एक दूसरे की तारीफ़ करना, बाहर  दुनिया से रत्तीभर मतलब न रखना, एक जैसी कविताओं को पढ़ना-बढ़ावा देना, बाहर के प्रत्येक लेखन को निकृष्ट समझना भी इस घराने की विशेषता है। जैसे पुराने जमाने में स्त्रियाँ जिस घर में पालकी से आती वहाँ से अर्थी से निकलना मान की बात मानती थी उसी प्रकार इस घराने के कवि लेखक जहाँ से शुरू करे वहीं के वहीं रह जाने को मान का कारण जानते है। कविता यहाँ की विधा मानी जाती है साथ ही किसानी तथा पशुपालन जाननेवाले आलोचना भी करते है। 

ब: बीएचयू पीएचडी कवि आलोचक घराना

यह बाँदा का जुड़वा घराना माना जा सकता है मगर बाँदा से दस गुना अधिक प्रतिष्ठित क्योंकि यहाँ यूनिवर्सिटी का घराने को समर्थन है और साथ ही काशी में होने के कारण इस घराने में खुद को काशी के साहित्य इतिहास से जोड़ने की सुविधा है। इस घराने की विशेषता है एक दूसरे का समर्थन करना चाहे कोई कितना ही बुरा क्यों न लिखे, इस घराने में वफ़ा सबसे बड़ा गुण माना गया है। स्त्रियों की इस घराने में सबसे अधिक उपेक्षा होती है और आज तक कोई स्त्री साहित्यकार इस घराने से नहीं आई। लड़ाई झगड़े करना-लगाना इस घराने की दूसरी विशेषता है। 

किसानी और पशुपालन जाननेवाले इस घराने के अंतर्गत आलोचना या कविता करे तो सफल हो सकते है, बस उन्हें हर बात पर कहना होगा कि क्या कभी नरकुल का फूल देखा है या आपने कभी अलसी की कली देखी है? यदि देखी है तो आप एक आलोचक या कवि बन सकते है। 

बात बात पर बनारस को बना रस कहना, उसकी पुरातन संस्कृति की दुहाई देना, अस्सी की फक्कड़ी की दुहाई देकर पैसे का जुगाड़ जमाना, गाली को साहित्य मानना इस घराने के अन्य गुण है। इस घराने में पितृपुरुषों को गाली देकर पूजने का रिवाज है। 

इलाहाबाद घराना—
धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, मलयज, अश्क़ और विजयदेव साही द्वारा प्रतिष्ठित यह घराना मृतप्रायः है इसलिए इसपर विचार करना दुःख का कारण है। 

बिहार के घराने और अन्य घरानों पर विचार अगले पाठ में किया जाएगा।

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कैसे बने हिंदी के सक्सेस्फ़ुल क़स्बाई (provincial/parochial) लेखक या कवि?

इन्हें पढ़े चाहे न पढ़े मगर बारम्बार इनका नाम ले

१. अज्ञेय 
२. निर्मल वर्मा 
३. बोर्हेज
४. काल्विनो
५. हावियर मार्खियस
६. रोबेर्तो बोलानो/कलासो दोनों।
७. ओशो (इनका सीधे नाम न ले, इनके प्रिय लेखकों का ले सकते है।)
८. युवाल हरारी
९. कुबेर राय 
१०. हारूकी मुराकामी
११. मेहमत दरविश 
१२. नेरूडा
१३. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 
१४. काफ़्का का जीवनी सम्बंधित साहित्य
१५. पेसोआ

इसके अलावा ईरानी सिनेमा, न्यू वेब सिनेमा के चार पाँच नाम, कोरियन और जापानी सिनेमा के चंद नाम लेने का भी रिवाज है। बेला तार के नामस्मरण बिना आपको हिंदी भवसमुद्र से कोई तार नहीं सकेगा। बार बार उनके गुण गावें, उनके लिए लिखनेवाले अनुच्चारणीय हंगारी लेखक का भी नाम ले जैसे राम नाम के संग हनुमान का हम नाम  लेते है।

संगीत में मोज़र्त का महिमागान करना न भूले, शास्त्रीय संगीत का आनंद बिना सीखे सम्भव नहीं इसलिए मोज़र्त पर बनी फ़िल्में देख और बात बात पर उसकी बड़ाई करे, उसे जीनियस बताने से न चूके। कभी कभी अचानक  कहे कि आप क्लासिक रॉक पसंद करते है या कहीं माइकल जेक्सन बजे तो कुर्सी पर ही विराजमान होकर हल्के हल्के थिरके इससे आपको जनता cool कवि मानेगी।

दर्शन में दिल ही दिल में ओशो को सराहे और प्रभाव के लिए उसकी उक्तियाँ चुराकर बोले मगर नाम हमेशा बिना पढ़े विंगग़्शटाइन और वाल्टर बेंयामिन (साहित्य का आलोचक न कि दार्शनिक है) लेते रहे, इनके कठिन जीवन के बारे हांके बिना आपका भविष्य अंधकारमय होगा हालाँकि विंगग़्शटाइन यूरोप के चंद अत्यंत धनी परिवार का चिराग़ था। चौंकाने के लिए नीश्चे (नीट्शे) की कोई बात कह दें। 

इसके अलावा और नाम टपक (namedropping) करने के लिए निर्मल वर्मा के namedropping journal (उनकी डायरियाँ) पढ़े और जब तब नाम ले दे। याद रखे हिंदी में व्यक्तिगत पसंद नापसंद (personal choice) जैसी कोई चीज नहीं। जो निर्मल को हो पसंद वही बात करेंगे। कोई पूछे कौन है प्रिय लेखक तो अदेर पूर्वी और मध्य यूरोपीय नाम गिनवा दे।

बीच बीच में ख़ुद को cool दिखाने के लिए सुरेंद्र मोहन पाठक, इब्नेसफ़ी या हैरी पॉटर (१९९५ के बाद पैदा हुए दिखावापसंद मूर्ख इसका नाम ज़्यादा लेते है) लेते रहे। 

कुछ गाइड टाइप किताबें पढ़ ले जैसे existentialism in coffeehouse या ऐसा ही कुछ नाम है, या Kaufman या अदम वॉट्स आदि और उनका नाम ले दें।

इसके अलावा कहीं से भी कोई ऐसा नाम मिल जाए जिसे बोलना मुश्किल हो तो तुरंत उस साहित्यकार या फ़िल्म निर्देशक की बढ़ चढ़कर तारीफ़ें करे, उसपर आधिपत्य स्थापित कर ले, उसकी हिंदी समाज में अथॉरिटी बने फिरे।

इतने नाम याद नहीं रहते तब भी सफल होना चाहते है? तब विमर्श ही एकमात्र आपका मार्ग है। उपकार गाइड  सफल विमर्श कैसे करे नामक पाठ पढ़े जो आगे छपेगा।

#उपकार_गाइड_पाठ ११
***
आलोचक बन्धुओं के लिए लघुमार्गदर्शिका 

शत्रु निर्णय 

1. एक आलोचक के सबसे बड़े शत्रु उसके औसत प्रतिभा वाले मित्र होते है जिन्हें ख़ुश करने के लिए आलोचक अपनी युवावस्था ख़राब कर लेता है- वह स्वयं को बड़ा भारी तीसमारखाँ समझकर अपने मित्रों को स्थापित करने का स्वप्न देखने लगता है और अंतत: ख़ुद भी औसत और उबाऊ सिद्ध होता है। 

अच्छी आलोचना का यदि देश देशान्तर का इतिहास देखे तो बड़ा आलोचक भिन्न विचार के साहित्यकार को स्थापित करके ख़ुद स्थापित होता आया है- अकारण नहीं कि निर्मल वर्मा के ध्वजवाहक नामवर सिंह बने। 

2. युवा स्त्रियों को किसी वानर की तरह ख़ुश करने के लिए लिखनेवाला आलोचक भी आलोचकीय नपुंसकता को प्राप्त होता है क्योंकि अंतकाल वह पाता है आलोचक के रूप में लोग उसे बंदर से ज़्यादा नहीं समझते और जिन कवयित्रियों को वह ख़ुश करने में लगा था वे अब अपने पतियों के लिए गोंद के लड्डू बनाने में लगी है। 

3. आलोचक का तीसरा शत्रु है क्षेत्रवाद और आंचलिकता - रचना की जड़ लोक में होती है मगर उघड़ी जड़ केवल असुंदर ही नहीं लगती बल्कि वृक्ष का नुक़सान भी करती है। 

जब एक क्षेत्र का आलोचक अपने ही क्षेत्र के लेखकों को बढ़ावा देने लगता है तो उनका न्यारा ईकोसिस्टम तैयार हो जाता है- जो एक प्रकार की कौटुम्बिक व्यभिचार जैसी अवस्था है। सब लोग एक दूसरे की गई-गुजरी रचनाओं का मात्र इसलिए गुणगान करते रहते है क्योंकि उनके इलाक़े की है और फिर यह लोग एक अति औसत रचनात्मक परिवेश का निर्माण कर लेते है जिसमें कोई चुनौती नहीं होती जिसके कारण यह अच्छे काम से ही डरने लगते है। क्षेत्र से बँधे लोग अब डर के कारण एक दूसरे के संग होते है।

आंचलिकता का अति आग्रह भी आलोचक और रचनाकारों का दुर्गुण बन जाता है। आंचलिकता इसलिए आंचलिकता कही मानी जाती है क्योंकि उसमें गम्भीर विचार या समकालीन तत्त्व का वहन करने की क्षमता नहीं होती मगर जवानी के जोश में बहुत से लोग अवधी या मैथिली के उद्धारक होने का भ्रम पाल लेते है मानो वे नागरी प्रचारिणी सभा के विद्वानों के भी आगे की चीज़ हो जिन्होंने खड़ी बोली को सुव्यवस्थित भाषा के रूप में स्थापित किया था।

4. आलोचक का अंतिम मारक शत्रु है विमर्श। युवावस्था में विमर्श का कुटैव कई आलोचकों का जीवन बर्बाद करता हुआ देखा गया है।
विमर्श है क्या? 
विमर्श असल में शोषित वर्ग के उस साहित्य के लिए संघर्ष करता है जिसे शोषकों ने स्वार्थगत कारणों से आगे नहीं आने दिया और यह सर्वथा एक तार्किक प्रणाली है किंतु शोषक किसी रचना को दबाने या उसकी अवहेलना का जो कारण देते आए है वह उसका सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड होता है अर्थात विमर्श meritocracy का विरोधी होता है। यहाँ तक इसकी प्रणाली में कोई दोष नहीं।

आगे देखा यह जाता है कि मेरिट को हटा देने पर भी विमर्शकार आलोचक की मजबूरी है चुनाव । आख़िरकार शोषित वर्ग के लिखे एक एक अक्षर की वकालत तो वह नहीं कर सकता, वकालत क्या पढ़ तक नहीं सकता तब ऐसा विमर्शकार भी मेरिट की शरण में ही जाता है। साहित्य में चुनाव और मेरिट में कोई अधिक फ़र्क़ नहीं, क्यों प्रो तुलसीराम की किताब पढ़ूँ और किसी अन्य दलित लेखक की छोड़ूँ? दो जातियों में प्रतिभा की अनदेखी सरल है लेकिन एक ही जाति के दो लेखकों में प्रतिभा की अनदेखी सम्भव नहीं और फिर मेरिट आख़िरकार एक सामाजिक संरचना (social construct) यदि है तो इससे पूर्णरूपेण मुक्ति क्यों सम्भव नहीं और हर जगह से क्यों नहीं? एक ही जाति में यदि एक लेखक ख़राब लिखता है तो क्या आलोचक को यह जानने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि किस मजबूरी में वह ऐसा करता है? 

विमर्श में इसी कारण जोड़ तोड़ करनेवाले लेखक आगे आते है, जिनके मित्र आलोचक, प्रोफ़ेसर या साहित्यिक पत्रकार है। वहाँ अच्छे लेखक आगे शायद ही आ पाते है, जो ज़्यादा हल्ला करता है आगे निकल आता है और इसका नुक़सान उसी शोषित वर्ग के सच्चे लेखकों को उठाना पड़ता है। 

आख़िरकार क्या कारण है कि मार्क्सवादी आलोचना के बख़्तिन से लेकर एफआर लिवीस और आई ए रिचर्ड्ज़ जैसे आलोचक प्रिय रहे या टी एड इलियट जैसे नाज़ी समर्थक आलोचक के  बिना क्यों आज भी किसी आलोचक का लेख पूरा नहीं होता!

इस लेख का प्रतिदिन तीन बार पाठ करनेवाला आलोचक कभी सत्यच्युत नहीं होता।
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