Skip to main content

यूँ बिसूरने को बैठें तो सात जनम कम है - प्रकाश कान्त की स्व नीम जी पर किताब Post of 17 Oct 2018

Image may contain: 1 person, close-up and text

यूँ बिसूरने को बैठें तो सात जनम कम है 
द्वार द्वार पर दूत , मसनदों पर लेटे यम है
___________

स्व नईम यूँ तो बुंदेलखंड के रहने वाले थे परंतु मालवा में आकर बस गए , कालांतर में उनका ससुराल भी शाजापुर रहा और वे देवास के होकर रह गए

डा प्रकाश कांत उनके सबसे सुयोग्य शिष्य रहे हैं जिन्हें उनका पितृवत सानिध्य मिला और उनकी देखरेख में वे लेखक बने अगर यह कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, नईम जी की मृत्यु के पश्चात सबसे ज्यादा विचलित होने वाले व्यक्ति ने उनको लेकर 144 पेज की एक किताब लिखी है "एक शहर देवास, कवि नईम और मैं " - यह सिर्फ किताब नहीं ,यह शहर का इतिहास नहीं, यह नईम की बायोग्राफी नहीं, यह नईम के कार्यों का मूल्यांकन नहीं, यह कविता का मूल्यांकन नहीं , यह सामयिक कविता यव नवगीत का परिदृश्य नहीं , यह गीत छंद की बहस नही - बल्कि एक जीवंत इतिहास है जो सेंधवा से लेकर दिल्ली तक फैला हुआ है जिसका केंद्र लंबे समय तक 7/6 राधागंज, देवास, मप्र रहा - जहां तमाम तरह की बहस, चर्चाएं , साहित्य और लोगों की जीवन शैली बनती बिगड़ती रही जो स्व नईम का घर था
यह किताब एक ऐसे शख्स ने लिखी है जो उनका शिष्य ही नहीं रहा बल्कि पुत्रवत रहा और उसने अपने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया - उसे अंत में अपने गुरु को समर्पित कर दिया, इस किताब में गांव से कस्बा और कस्बे से शहर होते धड़कते देवास की कहानी है - जिसमें बारी बारी से पात्र आते हैं और अपना रोल अदा करके चले जाते हैं, यह पात्र जीवित है - मृत है - ललित कलाओं से लेकर साहित्य में अजर और अमर है - चाहे वह स्व प्रो विलास गुप्ते हो स्व शिवमंगल सिंह सुमन, अशोक वाजपेई, कुमार गन्धर्व हो, हिंदी के लेखक या फिर मौजूदा परिदृश्य में साहित्य की नाव चलाते खिवैय्ये
इस किताब में बहुत रोचक और विस्तृत ढंग से डा प्रकाश कांत ने एक व्यक्ति का चित्रण इस तरह से किया है कि वह लगता साधारण है - परंतु गहराई से पढ़ने और समझने पर यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि एक आदमी जो 1935 में जन्मा था - अपने जीवन काल में इतना बड़ा काम कर गया कि ना मात्र साहित्य , बल्कि लोगों को भी गढ़ गया - विविध कला अनुष्ठानों और शिक्षा के कार्य से जुड़ा वह शख़्स नईम ही हो सकता था - इसमें कोई शक नहीं
जिस अंदाज में प्रकाश कांत ने अपने संघर्ष के दिनों को , कड़ी मेहनत को और उसी नाव में सवारी करते मित्रों के साथ जीवन के संघर्ष को दर्शाया है - वह दिखाता है कि एक योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शक होने पर कैसे हम ना मात्र मित्रता को श्रेष्ठ मानकर आगे बढ़ते हैं , बल्कि अपने जीवन में भी एक अलग तरह की अलग उपलब्धि हासिल करते हैं , उनके कन्फेशन यह दिखाते हैं किस तरह से संघर्ष से ही सब कुछ हासिल किया जा सकता है साथ ही यह भी कि पढना - लिखना इनमे से किसी ने छोड़ा नही और आज ये तीनों अपने अपने क्षेत्रों के माहिर और ख्यात लोग है जो दूसरों का मार्गदर्शन कर रहें है
स्व नईमजी पर लिखी किताब रोचक और पठनीय है अन्तिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद से आई यह ₹185 की है, किताब हाल ही में छप कर आई है जिसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए - ताकि एक किताब के माध्यम से संगीत, कला और साहित्य को ना सिर्फ समझा जा सके - बल्कि बारीक विश्लेषण भी करने में और समझ बनाने में मदद मिले
और अंत मे स्व नईम जी का एक गीत -
चिट्ठी, पत्री खतों किताबत के मौसम फिर कब आएंगे 
रब्बा जाने सही इबादत के मौसम फिर कब आयेंगें

और अंत में जौक 

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये, न अपनी ख़ुशी चले

हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है हो वही
दानिश तिरी न कुछ मिरी दानिश-वरी चले

- ज़ौक़






Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही