बचपन से हम सब सुनते आये है कि कोई भूत प्रेत होते हैं, चुड़ैल
होती है और एक दुसरी दुनिया है जो हम मनुष्य की समझ से परे है और फिर भी उस दुनिया
के बाशिंदे हमारे जीवन में बहुत महत्व रखते हैं, ये बाशिंदे सिर्फ महत्व ही नहीं
रखते बल्कि कई मनुष्यों के जीवन को प्रभावित करते हैं. विज्ञान कहता है जन्म के
बाद एक निश्चित समय बिता कर जीवन खत्म हो जाता है - अर्थात कोशिकाएं और शरीर के
विभिन्न अंग अपना काम खत्म करके समाप्त हो जाते हैं और तत्पश्चात विभिन्न धर्मों के अनुसार इस शरीर का अंत अलग -
अलग रीति रिवाजों के अनुसार संपन्न किया जाता है - कहीं जलाया जाता है, कहीं पानी
में बहाया जाता है, कहीं मिट्टी में गाड़ दिया जाता है, कहीं कुए में रख दिया जाता
है और कहीं शेष बचे शरीर का यानी मिट्टी का उपयोग तांत्रिक और अघोरी अपनी साधना
पूर्ण करने के लिए करते हैं. आजकल एक नई प्रवृत्ति ने जन्म लिया है जो अति आवश्यक
है और बहुत जरूरी भी कि शरीर के अंत के बाद शरीर के बचे हुए अंगों का दान किया जाए
ताकि जिसे आवश्यकता है उसे नया जीवन मिल सकें, उसकी उम्र बढ़ा दी जाए. कुछ लोग पूरा
शरीर मेडिकल कॉलेज को दान दे देते हैं ताकि मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों को
सीखने में समझने में मदद मिले.
बरहाल धर्म, विज्ञान और अध्यात्म का जन्म जन्मांतर का बैर है,
नाता है और सह- संबंध भी हैं इसीलिए मनुष्य जन्म, पूर्व जन्म, अगला जन्म और दुसरी
दुनिया के बाशिंदे भूत-प्रेतों की बातें भी अक्सर हमें यहां वहां सुनाई देती है.
यह बातें सिर्फ विकसित या अशिक्षित समाज में नहीं - भारतीय पिछड़े देशों में नहीं
बल्कि दुनिया के हर कोने में इस तरह के विश्वास, मान्यताएं, बचपन से सुनता है हर मनुष्य और कोई भूत पर होते हैं, चुड़ैल होती है. दुनिया में
हर सभ्यता की शुरुआत से डर रहे हैं और मनुष्य कसी अनहोनी और डर की वजह से परम
शक्तियों की पूजा करता रहा है. वह प्रकृति को कभी देवीय मानकर, कभी असुरी मानकर और
कभी एक शक्तिमान कर पूजा करता रहा और समझने की कोशिश करता रहा कि आखिर जन्म क्या
है, जन्म के पूर्व और जन्म के बाद क्या है, और इसे समझने में उसकी मेधा, शक्ति, धन
दौलत भी कई बार उसने इस्तेमाल की है. इतिहास ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है. 21 वीं सदी के मुहाने
पर जब इस तरह की बातों को खारिज करने की बात हो रही थी - महाराष्ट्र में श्याम
मानव ने अंधविश्वास के खिलाफ एक लंबा अभियान चलाया था, नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे जैसे
लोग इन अंधविश्वासी ताकतों और लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़े थे कि यह सब खत्म करके
एक वैज्ञानिक चेतना की बात हो तो - लगा था कि यह सब कभी खत्म होगा और 21वीं सदी की शुरुआत
से ही हम एक नए युग में प्रवेश करेंगे, परंतु अफसोस ऐसा हो न सका. आज भी यह सारी
ताकत है संविधान में निहित और वर्णित वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार हेतु दिए
गए सिद्धांत के विरुद्ध जाकर समाज में अविश्वास फैलाने का कार्य बड़ी कुशलता से कर
रही हैं.
भारतीय पंचांग में साल भर तक तीज त्यौहार और तिथियां आती जाती
रहती है हर माह एकादशी, द्वादशी, प्रदोष, चतुर्थी, पूनम - अमावस्या आदि का जिक्र
होता है, इनका धार्मिक महत्व है. ये त्यौहार और तिथियां अंध मानसिकता, परंपरागत
रीती रिवाजों से जुड़ी हुई है और भारतीय जनमानस में इनकी इतनी पैठ है की इन्हें
भारतीय जनजीवन से अलग करना प्राय: मुश्किल है. सबसे मजेदार यह है कि इन सभी त्यौहारों
और तिथियों का पालन और पोषण करना भारतीय समाज की महिलाओं की मुख्य जिम्मेदारी है
जो निर्जला व्रत रखकर भी निभाती हैं और अपने परिवार, पुत्र और पति के लिए अपने
जीवन का लगभग एक चौथाई भाग उपवास करके विता देती है. इस सबके बावजूद भी इन्हीं
महिलाओं को देवी शक्ति या परा भौतिक शक्तियां परेशान करती हैं और वे इलाज के लिए
यहां वहां ले जाई जाती हैं. भारत में ही कम से कम दो हजार से ज्यादा ऐसे स्थान है
जहां पर महिलाओं की बाहरी बाधाओं को ठीक
करने के ठिकाने हैं और इन्हीं ठिकानों पर पूरा पुरुष वर्ग एक सत्ता हथियाएँ हुए है
- जो पूरी ताकत के साथ ‘महिलाओं को ठीक करता है’. सदियों से शोषित
होती है स्त्री पुरी परंपरा का साक्षी है, भुक्तभोगी भी और पीड़ित भी. दरअसल में भारतीय पुराणों से लेकर धर्म और
संस्कृति में स्त्री को जहां एक और देवी दर्शाया गया है, संपत्ति माना गया है, वहीं
दूसरी ओर वह पीड़िता भी है जिसका शोषण करने में समाज का आधा हिस्सा हमेशा मजे लेता
है.
यह लड़ाई स्त्रियाँ अद्यतन
समय से लड़ रही हैं बावजूद इसके कि वे इस लड़ाई में भागीदार होने के लिए अब ज्यादा
सक्षम, शिक्षित और मजबूत है परन्तु ग्रामीण ख्सेत्र और हाशिये अपर धकेले गए समाजों
में वह अभी भी दारुण स्थिति में है. पुराणों में जितना महत्व देवियों को है - उतना
किसी को नहीं भौगोलिक रूप से देखें तो सारी देवियां और उनके पीठें जमीन से ऊपर
उठकर पहाड़ पर बसी हुई है, और सारे शक्तिशाली देवता जमीन के नीचे हैं, पर
फिर भी समाज के रीती रिवाजों के चलते जो स्त्री है, जो असली देवी है वह प्रतिदिन
प्रताड़ित की जा रही है चाहे वह धर्म के नाम पर हो, परंपरा के नाम पर हो या
संस्कृति के नाम पर.
ऐसे ही एक त्यौहार
में पिछले दिनों जाना हुआ जिसे भूतड़ी अमावस्या या सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के नाम
से जाना जाता है. मालवा में नर्मदा नदी का बहुत महत्व है अमरकंटक से निकली और
गुजरात की खाड़ी में जाकर समुद्र में मिल जाने वाली यह नदी जब मालवा जनपद से
निकलती है तो पूरे इलाकों को हरा भरा करके समृद्ध करके जाती है. नदी किनारे बसे
गांव और शहरों में इसकी संस्कृति, सभ्यता और परंपराएं देखने लायक हैं. जहां एक और
नर्मदा की सैकड़ों कथाएं लोक में श्रुति के रूप में दर्ज है वहीं कुछ परंपराएं ऐसी
हैं जो स्त्रियों के बिल्कुल खिलाफ हैं साल में एक बार आने वाली यह भूतड़ी
अमावस्या अर्थात श्राद्ध पक्ष की समाप्ति पर होने वाला यह अवसर मालवा महत्वपूर्ण
नदी और जीवनदायिनी माँ नर्मदा के किनारों पर विशेष महत्व का होता है - जहां बड़े-बड़े
मेले ही नहीं लगते बल्कि देश प्रदेश से लोग आकर यहां नहान करते हैं और ऐसी मान्यता
है कि नर्मदा में नहाने से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती हैं और मोक्ष की
प्राप्ति का रास्ता सुलभ हो जाता है
देवास जिले के अंतिम छोर पर बसा ग्राम
नेमावर, हरदा जिले को देवास से जोड़ता है साथ ही इसके पास में सीहोर जिले की भी
सीमा है. यह स्थान नर्मदा नदी के लिए जाना जाता है और नदी के किनारे यहां ऐतिहासिक
प्राचीन मंदिर है. साथ ही साथ इन दिनों यहां जैन समुदाय के मंदिरों का निर्माण
वृहद स्तर पर चल रहा है कहते हैं नर्मदा नदी में जैन संप्रदाय की 3 प्राचीन प्रतिमाएं मिली थी. उनकी स्थापना को लेकर देवास हरदा और
सीहोर के जैन समुदाय में चर्चा हुई और उन्हें एक जगह स्थापित करने की बात तय हुई,
परंतु कुछ लोग उससे सहमत नहीं थे अतः यह निर्णय लिया गया कि तीनों प्रतिमाओं को
बैलगाड़ियों पर रखा जाए और जहां बैलगाड़ी सबसे पहले रुकेगी उस स्थान पर प्रतिमा को
स्थापित किया जाएगा. संदलपुर के अजय जैन बताते है कि श्रुति है कि खुदाई के बाद जब
बैलगाड़ी से मूर्तियों को रवाना किया गया तो पहली बैलगाड़ी नेमावर रुकी, दूसरी
बैलगाड़ी खातेगांव और तीसरी बैलगाड़ी हरदा रुकी. मूर्तियाँ जैन धर्म के भगवान पार्श्वनाथ,
भगवान मुनिसुब्रतनाथ और भगवान शांतिनाथ जी की थी. कालान्तर में जब नेमावर में
आचार्य विद्यासागर जी आये तो उन्होंने देखा तो उन्होंने यहाँ मंदिर बनकार मूर्ति
को पूर्ण सम्मान के साथ प्राण प्रतिष्ठा करने का निर्णय लिया और आज यह एक बड़े
प्रकल्प के रूप में निर्मित हो रहा है. हिन्दुओं का नेमावर में ऐतिहासिक सिद्धनाथ भगवान की मूर्ति
है जिनका एक वृहद और पुरातात्विक महत्व का मंदिर बना हुआ है. इसके अलावा नर्मदा के
दोनों घाटों पर असंख्य धर्मशालाएं, मंदिर, सुन्दर घाट बने हुए है और नदी की
संस्कृति बहुत गहरे में स्थापित हैं. प्राकृतिक रूप से माँ नर्मदा के नेमावर में
दर्शन करना एक सुखद अनुभव है. वर्षभर नेमावर में पूजा आयोजन चलते रहते हैं और लोग
लगातार यहां आकर अपनी मनोकामनाएं मां नर्मदा से मांगते हैं और कहते है माँ नर्मदा
किसी को खाली हाथ नहीं भेजती है.
नेमावर से लगभग सौ किलोमीटर की धुरी
में पांच बड़े - बड़े घाट हैं - जो मां नर्मदा की ख्याति को दूर दूर तक फैलाते हैं.
सलकनपुर के पास आंवली घाट, नसरुल्लागंज के पास नीलकंठ घाट, खातेगांव के पास
छिपानेर घाट. नेमावर में कई घाट और बागली के पास पीपली घाट. प्रतिवर्ष भूतड़ी
अमावस्या पर लोग पांचों घाट पर नहाते हैं और इसके लिए साल भर से तैयारियां की जाती
है. सुबह उठकर या तो वे आंवली घाट से शुरू करते हैं या पीपली घाट से और रात बारह
बजे तक पांचों घाट में नहाने का क्रम पूरा करते हैं, इस तरह से यह माना जाता है कि
उनकी आत्मा मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्त होगी और वे मनुष्य योनि से छुटकारा पा
जाएंगे और मोक्ष मिलेगा.
मानने के लिए तो यह बहुत अच्छी परंपरा
है परंतु इसी के साथ जुड़ा है लोगों के शरीर में देव आना. इस दिन हर घाट पर बड़ी
तादाद में ऐसे लोगों का हुजूम आता है जो प्रेतबाधा से ग्रस्त होते है और ठीक इसके
विपरीत ऐसे भी लोग यहाँ बहुतायत में आते है जो देव का रूप लिए इन प्रेत बाधा से
ग्रस्त लोगों को ठीक करते है. पडियार
लोगों का एक बड़ा हुजूम इस दिन यहां होता है, पडियार अर्थात वो लोग जिनके शारीर
में देव आते है और वे इलाज करते है. जिनके शरीर में बाहरी बाधा है वह परिवार और
समाज में कुछ अलग तरह का व्यवहार करने लगते हैं. ऐसा कहते हैं कि उन पर बाहरी बाधा
है भूत प्रेत या चुड़ैल की छाया है जो उन्हें जीवन जीने नहीं दे रही और अलग तरह से
परेशान कर रही है इनकी वजह से पूरा परिवार और समाज भी त्रस्त रहता है. भूतड़ी
अमावस्या इन्हें ठीक करने का सबसे मुफीद दिन होता है. इसमें कई प्रकार के अनुष्ठान
होते हैं जो भूतड़ी अमावस्या के एक दिन पहले की रात को शुरू होते हैं. जिनको देवता
आते हैं वह नर्मदा के पानी में आकर नीर लेते हैं अर्थात लाल रंग का चोला पहनकर
पानी में खड़े होते हैं, वे इस चोले को धोकर पवित्र पहनते हैं, माँ नर्मदा की आरती
करते हैं. उनके साथ जो लोग जाते हैं उन्हें रजालिया कहते हैं.
नेमावर में इस बार जो भूतड़ी अमावस्या गई, उसमें प्रशासन ने
लगभग डेढ़ लाख की भीड़ को साधने के लिए कई प्रकार के इंतजाम किए थे हर घाट को पुलिस
और तैराकों से तैयार रखा था सी सी टीवी कैमरों से सुसज्जित किया जाकर निगरानी रखी
थी ताकि कोई डूबने न पाए. सिद्धनाथ मंदिर के सामने वाले घाट पर और हंडिया की तरफ से
आने वाले घाट पर ऐसे परिवारों की भीड़ थी जिनके यहाँ बाहरी बाधाएं किसी सदस्य को
परेशान आकर रही थी. पडियार और उनके रजालिये थे जो घाट पर ढोल, झांझ - मजीरे बजाकर
लोगों को आकर्षित कर रहे थे पूरे घाटों पर छोटे-छोटे समूहों में बैठे पडियार फैले
हुए थे. कहीं-कहीं तो तीन या चार पडियार भी थे और उनके अनुयाई अर्थात रजालिये बड़ी
मात्रा में थे. हर समूह में लगभग अथ से दस पीड़ित थे सबसे दुखद यह था कि इन पीड़ितों
में नब्बे प्रतिशत मात्र स्त्रियां थी जो
किसी बाहरी बाधा से परेशान थी. इन पीड़ितों
को उनके परिजनों ने पकड़ कर रखा था, कहीं-कहीं बांध कर रखा था और कहीं-कहीं उन्हें
लिटा कर रखा था ताकि वे इधर उधर भाग न जाए. पडियार देवी की आरती उतारकर उन्हें ठीक
करने का काम कर रहे थे.
यह लोग सीहोर, हरदा, देवास, शाजापुर, उज्जैन, भोपाल, होशंगाबाद,
बैतूल और राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, पाटन आदि जगहों से आए हुए थे.
लगभग सभी लोग समाज के निम्न तबकों से थे दलित लोग थे और देखने से लगता था कि ये या
तो अनपढ़ हैं या अशिक्षित. पूरे डेढ़ लाख लोगों की भीड़ में बहुत कम ही समाज के
उच्च वर्ग से लोग होंगे जो इस मेले में आए होंगे और जो थे भी वे या तो व्यापारी थे
या इस मेले को देखने समझने के लिए आए थे.
बाधा उतारने से पहले पडियार पहले पीड़ित को सामने खड़ा करता है
और उसे उसका नाम पता पूछता है यह देखा गया कि पीड़ित यानी वह महिला कुछ भी बोलने
से मना कर देती है, साथ ही साथ थोड़ी - थोड़ी देर में वह उठकर भागने की कोशिश करती
है तो साथ आए लोग उसे जकड़ कर रखते हैं और कुछ जगहों पर पुरुष उनके बाल भी खींच कर
रखते हैं. जब महिला जवाब नहीं देती है तो पडियार और उसके रजालिए उस महिला पर चावल
के दाने फेंकते हैं, उसके चेहरे पर सिंदूर और कुंकू बड़ी मात्रा में फेंका जाता है.
आरती उतारी जाती है और जोर जोर से उसके सामने झांझ मजीरे बजाए जाते हैं ताकि वह
महिला थोड़ी झूमने लगे. इसके बाद वह महिला की आंखें और चेहरे के भाव बदल जाते हैं,
आंखें फट जाती है, बाल सारे अस्त-व्यस्त हो जाते हैं बहुत भयानक और विद्रूप चेहरा
हो जाता है. वह मुंह से बड़बडाने लगती है और सबको लगता है कि उसके शरीर में भूत
पिशाच आने लगा है. इस समय पडियार का असली खेल चालू होता है और वह उसे सवाल पूछता
है कि वह कौन है, कहां से आया है, क्यों इस महिला को परेशान कर रहा है, क्या कर्जा
बाकी रह गया था, क्या परिवार ने पाप किए हैं और उस महिला को छोड़ने का वह क्या
लेगा. महिला बहुत भौंडी आवाज में जवाब
देने लगती है और कहती है कि वह पिछले जन्म का कोई रिश्तेदार है और उसे पितृ पक्ष
में भोजन नहीं दिया गया या उसका श्राद्ध नहीं किया गया या उसे जमीन का हिस्सा नहीं
दिया गया, उसे या उसके बच्चों को परिजनों ने प्रताड़ित किया है. एक दो महिलाओं पर
आई बाहरी बाधा ने असमय हुई मृत्यु और अधूरी इच्छाओं का भी जिक्र किया, इसलिए
वह इस परिवार की बहू पर तब तक लगा या लगी रहेगी जब तक कि उसके साथ न्याय नहीं होता,
मै शरीर को नहीं छोडूंगा और अपने साथ ही इसके प्राण ले कर जाऊंगा. ये सारे संवाद
जोर जोर से चलते है और फिर पडियार भी खड़ा हो जाता है और हाथों में ढेर सारा
सिंदूर या कुमकुम लेकर चावल लेकर पुन: उस महिला पर बार-बार फेंकने लगता है. आरती
होने लगती है आसपास की भीड़ ताली बजाने लगती है और इस तरह से इस क्रम में शरीक सभी
लोग बेहद रोमांचित होने लगते हैं.
महिला और परिवार के बीच में एक तरह का द्वंद्वात्मक युद्ध की
स्थिति बन जाती है और पडियार पीड़ित महिला को नींबू और मिर्ची लगी तलवार दे देता है. प्रेत
बाधा से ग्रस्त महिला उस तलवार को हाथ में लेकर बुरी तरह से चारों ओर घूमाने लगती
है और भीड़ डरकर पीछे हटते जाती है. पडियार और उसके रजालिए भी डरते तो हैं परंतु
पडियार हिम्मत दिखाते हुए आगे बढ़ता है और उसकी तलवार को पकड़ने की कोशिश करता है,
उसे बार-बार ललकारता है कि वह इस महिला को
छोड़कर जाए. इसके बदले में जो भी पूजा सामग्री, धन-धान्य, या मन्नत होगी. घर के
लोग उस महिला के बाल भी खींचकर रखते हैं जब वह जवाब नहीं देती है तो पडियार और
उसके रजालिये उस महिला पर चावल के दाने फेंकते
रहते हैं . इधर परिजन लगातार पडियार को कुछ न कुछ भेंट करते रहते हैं
जमीन पर रखें जलते दिये, अनेक प्रकार की पूजन सामग्री लगातार उस प्रेत बाधा से
ग्रस्त महिला पर फेंकी जाती है और प्रेत को भगाने के प्रयास किए जाते हैं.
तस्वीर में दिखाई गई यह महिला सीहोर जिले के कुसमानिया के पास की
है जिसने पडियार से तलवार छीनकर बहुत देर तक आसपास घुमाई और अंत में अपनी जीभ पर
लगा कर अपनी जीभ बुरी तरह से घायल कर ली.
जीभ घायल करने के पश्चात उसमें से इतना खून निकला कि लग रहा था कि जीभ टूट कर गिर
पड़ेगी परंतु ऐसा नहीं हुआ, थोड़ी देर के बाद कई प्रकार के अनुष्ठान करने के
पश्चात वह महिला थोड़ी सामान्य हुई और उसके परिजनों ने और भीड़ ने यह माना कि उसके
ऊपर जो प्रेत का साया था वह चला गया. पडियार ने उस महिला को शांत कर बिठाया और फिर
दो हरी मिर्च खाने को दी और वह बहुत सामान्य तरीके से खा गई जिससे ऐसा लगाही नही कि
उसकी जीभ अभी पांच मिनट पहले बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गई थी और उसमें से खून बह
रहा था.
विज्ञान का यह अजूबा शायद समझ से सचमुच परे है परंतु ठीक यहीं
पर कई प्रकार के प्रश्न हैं जो शाश्वत है और उनका जवाब तलाशा जाना बहुत आवश्यक है.
क्या सच में भूतड़ी अमावस्या जैसा त्योहार या प्रसंग हमें इस समय मनाने की जरूरत
है. इस मेले में प्रशासन लाखों रुपया व्यवस्था बनाने के लिए खर्च कर देता है, क्या
जनता की गाड़ी कमाई का इस तरह से दुरुपयोग ठीक है. लोगों के त्यौहार में क्या
प्रशासन को हस्तक्षेप करना चाहिए - यद्यपि लोगों की आस्था और विश्वास पर चोट ना की
जाए, फिर भी जान माल की सुरक्षा के लिए थोड़ा खर्च करके इस तरह के आयोजनों को धीरे
धीरे हतोत्साहित करना चाहिए. इस पूरे प्रसंग में समाज का दलित और हाशिये पर पड़ा हुआ वर्ग ही हिस्सेदारी क्यों
करता है - इसका अर्थ यह है कि ज्यादा रूढ़िवाद और परंपरा बोध क्या सिर्फ दलितों
में बचा है. श्राद्ध पक्ष में मालवा में संझा माता जैसे त्यौहार मनाये जाने की
परंपरा है जिसे बेटियों की भलाई और अच्छे जीवन की कामना में मनाया जाता है, वहीं क्या इस भूतड़ी अमावस्या पर सभी महिलाओं को
जो प्राय: यहां आती है और उन पर बाहरी प्रेत बाधा है यह मानकर इस तरह से क्रूर एवं
मानवीय तरीके से ठीक करना बेहतर है, महिलाओं पर जिस तरह के हथियार और डंडों का
प्रयोग करके उन्हें मारा जाता है, पीटा जाता है और वाहियात सवाल, जिनमे निजी जीवन
के गोपनीय पक्ष भी होते है - एक भीड़ के सामने पूछे जाते हैं - क्या वह वाजिब है?
एक ओर जहां “मीटू” की बहस पूरे देश में इस समय चल रही है - उस प्रसंग में ग्रामीण
क्षेत्र की इन महिलाओं को आवाज को और इस तरह से प्रताड़ित होने की सार्वजनिक रूप
से निंदा नहीं की जानी चाहिए ? वर्तमान में चुनाव आचार संहिता लगी हुई है तो इतनी
बड़ी मात्रा में दर्शक बनी पुलिस और प्रशासन क्यों नहीं इन परिवारों के हथियारों
को, डंडों को जप्त कर लेते हैं - क्योंकि यह सब तो इस समय में बिल्कुल ही वर्जित
होते हैं, फिर आखिर इस नेमावर क्षेत्र और
आसपास के घाटों पर भूतड़ी अमावस्या के दिन लोगों के पास इतनी बड़ी संख्या में देशी
हथियार जैसे तलवार, त्रिशूल, फरसा आदि कहां से आते है और अगर वह लेकर भी आए हैं तो
क्या पुलिस का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वह इन्हें जप्त कर ले ? बल्कि उल्टा हो रहा
है कि पुलिस भी भीड़ के सामने मूकदर्शक बनी है और चुपचाप तमाशा देख रही है. मैंने
कई पुलिस वालों को इन देवियों के सामने हाथ जोड़ते हुए देखा. मध्य रात्री को ठीक
बारह बजे एकदम ठंडे पानी में सिर्फ एक साड़ी या चोले में महिला को उतार दिया जाता
है और घंटी बजाकर आरती की जाती है – नीर लेने के नाम पर इसलिए कि उस पर प्रेत बाधा
है, क्या यह महिला मनुष्य नहीं है, इस सब को देखने वाला कौन है ? और सबसे महत्वपूर्ण
सवाल कि प्रेत और बाहरी बाधाएं सिर्फ महिलाओं को ही क्यों परेशान करती हैं और पडियार
सारे पुरुष क्यों हैं ?
समाज में महिलाओं की स्थिति दिन पर दिन दयनीय होती जा रही है.
मध्यप्रदेश में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सर्वाधिक अत्याचार होते हैं
बलात्कार से लेकर छेड़छाड़ के सर्वाधिक मामले दर्ज हैं. क्या इस तरह के उत्सव में भेदभाव बड़े आयोजन और
संस्कृति परंपरा के नाम पर कूड़ा धोते हम लोग वास्तव में महिलाओं की इज्जत कर रहे
हैं और ठीक इसके दूसरे दिन अपने घरों में मोहल्लों में लाखों रुपया खर्च करके घट
स्थापना करते हैं और नौ दिन तक कन्या पूजन से लेकर महिलाओं की पूजा तक के चोंचले करते
हैं - क्या यह दिखावा नहीं है. वस्तुतः महिलाओं को लेकर हम लोगों की समझ बहुत दोगली
है और हम अभी भी तमाम कानूनी प्रावधानों के बाद भी एक पुरुष प्रधान समाज को
संपोषित करने में लगे हुए हैं. नर्मदा के पांच घाटों की यह कहानी सिर्फ मध्यप्रदेश
की नहीं - बल्कि देश की सभी नदियों – तालाबों पर इस तरह के कुछ न कुछ ऐसे आयोजन
जरूर होते हैं जहां महिलाएं सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित होती है और एक भीड़ है जो
ताली बजाकर उन्माद में इस तरह की संस्कृति को बढ़ावा देती है. यह समस्याएं सरकार
या कानून से हल नहीं हो सकती, इसके लिए हमें व्यापक स्तर पर प्रयास करना होंगे
ताकि हम इन औघड़ और अशिक्षित लोगों से अपनी आधी आबादी को बचा सकें.
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