एडवर्ड मोरेगोन फास्टर – साहित्य का रंग बिरंगा
चितेरा
ई एम फास्टर अंगरेजी साहित्य के रंग
बिरंगे चितेरे ऐसे कलाकार है जो आलोचना, निबंध और उपन्यास से लेकर जीवन के विविध
पक्षों को अपनी कूची से उकेरते है और इस कूची से समूचे समाज की कमजोरियों और
अच्छाईयों को गढ़ते है इसलिए वे मेरे पसंदीदा साहित्यकार रहे है. उनसे प्रभावित
होने वाला मै ही नहीं वरन यहाँ मालवा में बसे अंगरेजी साहित्य के मुरीद अनेक लोग
है, जो उनसे एक कशिश के साथ गहरा और संजीदा जुड़ाव महसूस करते है. फास्टर का इस
इलाके विशेष में प्रसिद्द होना कोई संयोग नहीं बल्कि एक पूरी गाथा है जो इस मालवा
की जमीन पर तत्कालीन ग्वालियर से धार स्टेट तक फैले मराठा साम्राज्य की सिंधिया, पवार,
होलकर वंशों की लम्बी कहानियाँ है जिसमे किस्से है, दर्द है, पराक्रम है, पलायन
है, युद्ध है, शोषण है, तिकड़मी राजनिती है, देश के दूसरे राज्यों में भागकर या भगाए
जाने पर स्थापित होने की या दूर समुद्र किनारे बसे फ्रांसीसी राज्य के साथ विल्लेन
हो रहे पांडीचेरी में रियासतों की खरीद फरोख्त की कहानियां है साथ ही यहाँ के
लोगों की एषणायें है, अतृप्त इच्छाएं है और स्वाभाविक मानवीय गुणों में आते बदलाव और
बदलते परिवेश के साथ क्रान्ति के लिए फूंके जा रहे प्रजा मंडलों जैसे आन्दोलनों की
परत दर परत खोलते पृष्ठ है, मालवा के आम आदमी के जीवन में
नित प्रतिदिन बदला रहे आरोह अवरोह के प्रतिबिम्ब है.
फास्टर का जन्म 1 जनवरी 1879 को इंग्लैण्ड
के लन्दन शहर में हुआ और थोड़े समय बाद ही उनके पिता की मृत्यु हो गयी उनकी माँ ने
उन्हें अपने दादा दादी के साथ मिलकर पाला पोसा. नन्हे फास्टर पर उनके परिवार का गहरा
असर पडा. उनके पिता एक वास्तुविद थे, जो चर्च और इसाईयत के गहरे अनुयायी थे, वे
गहरे में नैतिकता और इसके अनुसरण में यकीन रखते थे, दूसरी और उनकी माँ बहुत खुले
विचारों की थी, वे चर्च को मानती तो थी पर चर्च की सत्ता को बेहद हलके ढंग से स्वीकारती
थी. इस प्रकार के दो द्वंदों के बीच बड़े होते फास्टर की विचारधारा पर गहरा असर पडा
और इन दो तर्क और अतर्क के बीच में वे कैंट के एक स्कूल में डे स्कालर के रूप में पढ़े,
जो बहुत परम्परागत विचार और शैली का विद्यालय था. पहली बार वे कैम्ब्रिज के
महाविद्यालय में जब पढ़ने गए तो वहाँ के खुले माहौल में उन्होंने चैन की सांस ली और
अपने आपको सम्पूर्ण रूप से व्यक्त करने में सक्षम पाया, जिसमे व्यक्ति की
स्वतंत्रता, किसी भी बात, विचार पर शक या सवाल करने की योग्यता, और उत्तर यूरोपीय
देशों के एशिया, अफ्रीका और यूरोप के बीच पनपी मेडीटेरियन सभ्यता को बारीकी से
देखने समझने का अवसर मिला. टोनब्रिज स्कूल, कैंट से किंग्स कॉलेज की इस यात्रा में
फास्टर ने अपने को एक नए विकसित स्वरुप में पाया और इस स्कूल से कॉलेज की यात्रा
को वे अपने जीवन का स्वर्णिम काल कहते है.
कैम्ब्रिज छोड़ने के बाद फास्टर ने निश्चित
किया कि वे अपना सम्पूर्ण जीवन लेखन में लगा देंगे और इसलिए उन्होंने लेखन में
अपना ध्यान लगाया और संजीदगी से लिखते रहे - छोटी कहानियां, उपन्यास, विभिन्न
विषयों पर टीकाएँ, इस बीच उन्होंने विक्टोरिया युग के सूरज को ध्वस्त होते देखा, यूरोप
बदल रहा था, दुनिया में संघर्ष तेज हो रहे थे, फ्रांस की क्रान्ति का असर अंगरेजी साहित्य
पर नजर आ रहा था, नीग्रो कवियों की एक पूरी पीढी एक नए शब्द संसार और ग्रामीण इलाकों
के शब्दों यानी लोक भाषा के मुहावरों को गढ़ते हुए नई एंथोलोजी रच रही थी, अमेरिकन
साहित्य में भी एक नए प्रकार के मेटाफोर और एन्द्रिकता का जाल बुना जा रहा था.
अपने से पूर्ववर्त्ती उपन्यासकारों की लेखन शैली को छोड़कर उन्होंने खुली और एक आम
भाषा में या बोलचाल की भाषा में लेखन को सामने रखा. जार्ज मेरीडीथ जैसे उपन्यासकार
जो बहुत बारीकी सी क्लिष्ट संरचनात्मक भाषा, बिम्ब और एक वर्ग विशेष द्वारा समझे
जाने वाली भाषा में लेखन कर रहे थे, को छोड़कर फास्टर ने इस लेखन शैली से बगावत
करके आम लोगों को समझ आने वाली खुली, उन्मुक्त भाषा और शैली में लिखा जिसका उदाहरण
उनके पहले उपन्यास में देखने को मिलता है जो उन्होंने मध्यमवर्गीय लोगों को लक्षित
करके लिखा था. मेडीटेरियन सभ्यता में दर्ज मूर्तिपूजा को लेकर उनका झुकाव था और एक
गहरा सरोकार भी इसलिए उन्होंने इस विषय पर लिखा कि यदि महिला और पुरुष को जीवन में
संतुष्टि का एक स्तर प्राप्त करना है तो पृथ्वी से जुड़ाव रखना होगा और अपने स्वप्नों
को, इरादों को इसी पृथ्वी पर बोना होगा. 1907 में आये उपन्यास “द लांगेस्ट जर्नी”
में वे कहते है कि अलगाव से चीजें हल नहीं होंगी, सौहार्द्र से ही सब हल हो सकेगा,
पशुवत व्यवहार आखिरकार धरती को नुकसान पहुंचाएगा. और अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से
देखे गए विकास के दिवास्प्न धरती के लिए भविष्य में घातक साबित होंगे.
इसी तरह की पृष्ठभूमि पर बुना गया अन्य उपन्यास “होवार्ड्स एंड” है, जो उनकी सफलता का पहली बार पैमाना बना. फास्टर के लेखन पर प्रथम विश्व युद्ध का गहरा असर पडा, उन्होंने भारत में दो बार यात्राएं की. पहली बार वे 1912-13 में और दूसरी बार 1921 में, दोनों बार देवास में वे रहे. उन्होंने उत्तर विश्व युद्ध उपन्यासों की विषय वस्तु बदली और “ए पैसेज टू इंडिया” में बहुत बड़े फलक पर फैले कथानक में वे एकदम नकारात्मक स्वरुप में नजर आये. यह उपन्यास भारत में हो रहे आन्दोलनों, परिवर्तनों की कहानी बयान करता है जिसमे हम भारत के साथ देवास और धार के बाग़ की गुफाओं का वर्णन देख सकते है. प्रतिवर्ष जन्माष्टमी पर निकने वाली राज घराने की दिंडी यात्रा का खूबसूरत वर्णन है वही बाग की गुफाओं में एक अंग्रेज महिला के साथ हुए बलात्कार का वीभत्स और जुगुप्सापूर्व कहा गया कथ्य है. देवास में वे तत्कालीन बड़ी पाती के महाराज स्व तुकोजीराव पवार के सचिव थे जिन्हें अंग्रेज बहादुर ने नियुक्त किया था. उन्होंने राज परिवार, आपसी भाई चारे, राजनिती, लड़ाई और तुकोजीराव पवार की व्यक्तिगत जिन्दगी को लेकर “द हिल ऑफ़ देवी” जैसा उपन्यास लिखा है जिसमे उन्होंने तुकोजीराव के पांडीचेरी जाने का जिक्र और फिर वहाँ फ्रांस की सरकार के साथ मिलकर किस तरह से यहाँ की सत्ता पर नियंत्रण किया, वहाँ देवास महाराज की बनी हुई समाधि का जिक्र भी इस उपन्यास में आता है. यह शायद एक संयोग ही है कि तुकोजीराव के सौतेले भाई भोजराज पवार ने विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन से अंगरेजी में एमए किया और बेंगलोर के बिशप कॉटन स्कूल में पढाई के दौरान उन्होंने फासटर को बहुत करीब से देखा परखा था, इसलिए एमए के बाद उन्होंने के पी कॉलेज, देवास में पढ़ाते हुए “द हिल ऑफ़ देवी” को लेकर एक क्रिटिक लिखा. विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में अंगरेजी विभाग के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डा टाटके भी फास्टर के साहित्य के दीवाने थे. उनके रहते उन्होंने पाठ्यक्रम में फास्टर की रचनाओं का समावेश किया.
फास्टर ने सात उपन्यास लिखे, इसके अलावा लघु कथाएं, आलोचना और गद्य लिखा. एक उपन्यास “मौरिस” उनकी मृत्यु पश्चात प्रकाशित हुआ था, जिसमे तत्कालीन देवास रियासत में फ़ैल रही समलैंगिक के बारे में और देवास के समलैंगिक लोगों का जिक्र है. देवास में मीठा तालाब के सामने सागर महल में उन्हें रहने को स्थान दिया गया था, जहां वे रहते थे और राजकाज के साथ अपना लेखन करते थे. कई बरसों तक यह सागर महल अपने अतीत की कहानियां आने जाने वालों को सुनाता रहा परन्तु दुर्भाग्य से अभी तीन वर्ष पूर्व उसे ढहा दिया गया और इस तरह से देवास से अंगरेजी के एक महान साहित्यकार का निशाँ मिट गया. फास्टर अंगरेजी के ही नहीं वरन भारतीय साहित्य के एक महान रचनाकार है जो भारतीयता में रचकर यहाँ के समाज की साहित्य में बारीक बुनावट करते है और यहाँ के लोक, भाषा, मुहावरों, प्रतीकों, बिम्बों, संस्कृति और रीति रिवाजों पर अपनी बात कहते है उनके साहित्य पर विक्टोरिया युग से भारतीय सामंतवाद, आजादी की छटपटाहट के लिए बेचैन लोगों की पीड़ा, महिलाओं के स्वातंत्र्य का जोर स्पष्ट दिखता है. वे अपनी पीढी में एक मात्र ऐसे रचनाकार है जो सिर्फ उपन्यास - कहानी ही नहीं, वरन आलोचना के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करते है और आलोचना में अपनी गहरी पैठ बनाते है. अंगरेजी में वे एक आलोचक के रूप में भी मानी है और उनकी संस्तुतियां विलक्षण और दुर्लभ है रचना को तौलने के पैमाने पर वे उसकी सार्वभौमिकता और स्वीकार्यता पर बात करते है.
भारतीय गणतंत्र के ऐतिहासिक दिवस पर आज ई एम फास्टर को याद करना जरुरी और सामयिक इसलिए भी है कि पैसेज टू इंडिया के समय की प्रवृत्तियाँ फिर अपने को दोहरा रही है, सामंतवाद अपने पैर पसार रहा है, महिला हिंसा इतनी बढ़ गयी है कि बलात्कार एक सामाजिक स्वीकृति में बदल गया है, धर्म स्थलों पर हिंसा एक अनुशासन हो गया है, त्यौहार हंसी खुशी और उल्लास की थाती ना होकर तनाव भरी दास्तानें हो गए है, तामसिक आदतें समाज में एक शिष्टाचार बनकर उभर रही है और धर्म पाखण्ड की जड़ों में धंसता समाज अपनी गिरफ्त धरती, मूल्यों और विरासत पर खोता जा रहा है, राजनिती अपने पतन के शीर्ष पर है और सामाजिक ताने बाने में बिखराव हमारा अक्स बन गया है. जाहिर है अच्छा साहित्य हमें रास्ता दिखाता है और फास्टर उनमे से एक महत्वपूर्ण पाथेय है जो बिखरते समाज को एक दिशा देने का काम करते है.
-संदीप नाईक
मप्र पाठक मंच की एक
गोष्ठी में पढ़ा गया एक पर्चा 26 जनवरी 16
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