अभी एक अध्ययन किया है जिसमे किशोरियों की शिक्षा और पोषण को लेकर काम किया है. स्नेहां की इस रपट ने मेरी बात की पुष्टि की है. मुझे ज्ञात हुआ कि अध्ययन के सेम्पल में से 21% किशोरियां अनपढ़ है, और मात्र 3.5 % ने बारहवीं के ऊपर पढाई की है, और सबसे मजेदार यह है कि ये सब 10 से 20 वर्ष तक की किशोरियां है यानी सर्व शिक्षा अभियान के बराबर इनकी उम्र है और अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष 1990 के बाद जोर शोर से हुए साक्षरता के प्रचार प्रसार और पढ़ना बढना आन्दोलन और फिर तमाम तरह के ढपोरशंखी कार्यक्रमों के बाद भी ये प्राथमिक शिक्षा से वंचित है.
उल्लेखनीय है कि मप्र में मानव संसाधन मंत्रालय से लगभग एक करोड़ का सालाना अनुदान प्राप्त करने वाले दो राज्य संसाधन केंद्र (प्रौढ़ शिक्षा) है - इंदौर और भोपाल में, दोनों का प्रबंधन एनजीओ करते है. इसमे काम करने वाले दक्ष कम जुगाडू ज्यादा है जो कभी लग गए थे सो टिके है और ये लोग है जो सिवाय लिपा- पोती के और कार्यशालों के कुछ नहीं करते. इसमे काम करने वाले लोग या तो लिखाड़ बन गए या दूसरी संस्थाओं में जाकर ज्ञान बांटकर रुपया कमाते है और इंदौर भोपाल कोई छोड़ना नहीं चाहता. सबसे पहले इन्हें बंद किया जाए और यहाँ के कर्मचारियों को दूर दराज के इलाकों में भेजा जाए.
रहा सवाल शिक्षा का तो वो अनिल सदगोपाल से लेकर तमाम तरह के शिक्षाविदों ने नवाचार के नाम पर राज्य प्रायोजित और टाटा बिड़लाओं से प्रचुर मात्रा में अनुदान खाकर शिक्षा के धंधों में सब ख़त्म कर दिया है. और यहाँ से निकले धंधेबाज उप्र से लेकर दूसरे राज्यों में अब रुपया हवस की तरह कमा रहे है और भोपाल, बनारस, दिल्ली में जमीने लेकर पूंजीपति और मठाधीश बन गए है. राजीव गांधी प्राथमिक मिशन का ढोल पीटकर अमिता शर्मा जैसे प्रशासनिक अधिकारी दिल्ली उड़ गए और राज्य और जिलों से लेकर बीआरसी तक के बने हुए शिक्षा के नाम पर ऐयाशी के अड्डे चाहे वो संकुल हो या डाईट, शिक्षा महाविद्यालय हो या बीबीसी जैसे शिक्षा के कुप्रयोग ......अब प्रायः बंद पड़े है.
मप्र में कोई ना लगाम कसने वाला है ना, ना चाहने वाला, इसलिए नवाचार व्याभिचार बन गया है और शिक्षा व्यापार, इसलिए इसका लंबा परिणाम व्यापमं के रूप में देखने को मिलता है.
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