Skip to main content

एक जुग बीत गया तुम्हारी याद में -दशरथ मांझी केतन मेहता की नजर से

केतन मेहता ने जरुर सोचा होगा कि यह नेतृत्व विहीन समय है और जब इस समय सारा देश और समूची मानवता एक गहन अन्धकार से गुजर रही है तो वे एक बुलंद नारे के साथ आते है जो सिर्फ शब्द नहीं वरन अपने आप में समूचे बदलाव की ओर इंगित भी करते है, और एक परिवर्तनकामी दिशा भी देते है. इस समय में जब आस्थाएं धुंधला गयी है, रोल मॉडल फेल हो गए है, विखंडित व्यक्तित्व अपने दोमुंहेपनसे लबरेज है और समय के चक्र में पीसता बेबस, लाचार आदमी लगातार हर मोर्चे पर जूझ कर अंततोगत्वा हारकर निढाल हो गया है - तो वे एक नारा ठीक दुष्यंत की तर्ज पर बुलंद करने की कोशिश करते है व्योम में कि कही कोई उठे और फिर ललकार करें कि "शानदार, जबरजस्त और जिंदाबाद". ये तीन शब्द नहीं पर एक खुले आसमान में पत्थर उछालने की अपने तई इमानदाराना कोशिश भी है. इस पुरे संघर्ष में एक जग से छिपी प्रेमाग्नि भी है जो सिर्फ ना पहाड़ को काटती है वरन एक समूची डूब रही सभ्यता और उस जाति  को धिक्कार करने का जज्बा भी पैदा करती है जो अपने आप को बेबीलोन की सभ्यता से आगे सिन्धु घाटी के किनारों से होती हुई जेट युग में प्रवेशकर दुनिया का "जगसिरमोर"  बनने की प्रवृत्ति पर भी गहरी चोट करती है. इस अवसान की बेला में जब सारे नायक यवनिका में छुपे हुए अपनी अस्मिता बचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे है - ऐसे में वे एक ऐसे समुदाय के नायक को सच में परदे पर "परसोनीफाई" करते है जो मुसहर समुदाय से आता है जिसका काम चौपायों के गोबर में पच ना सकें अन्न या गेहूं के दाने बीनकर साफकर खाने के लिए होने वाले रोज के संघर्ष और कठिन जिजीविषा का जीवन है, वे बिहार के उस काल की बात को याद दिलाते है जब सामंतवाद तमाम तरह की आजादी के बाद और 'पूर्व  और उत्तर आपातकाल के दौरान हुए जमीनी मारकाट के दुष्परिणाम भी आमजन के पक्ष में खड़े नहीं दिखाई देते थे, वे दिल्ली की उस अंधी दौड़ को भी लक्षित करते  है जो नार्थ ब्लाक के द्वार पर आये आम आदमी से उसके हक़ के प्रमाणपत्र छिनकर या पायी गयी किसी भी कीर्ति की पताका और यश के सबूत को मिटाकर फाड़कर या छिनकर वापिस खाली हाथ अपने गाँव में जाने को मजबूर कर देते है. 

अपने पुरे केनवास पर केतन का जाल उन काले पीले लोगों की साफगोई से भरा पडा है जिसे हम छूने में या साथ बैठकर थोड़ी दूर जाने में भी सदियों की घृणा को महसूस करते  है, वे परदे पर एक इन वंचितों और  दलितों का और सामंत के मुखौटों का ऐसा तिलिस्म रचते है कि बरबस हमें उस त्रेता युग या द्वापर युग की याद आ जाती है जो सिवाय शोषण भेदभाव और गैरबराबरी वाले समाज को रचने के अलावा कुछ और नहीं कर सकता था. इसके नायक ठीक वो ही थे जो बाद में सदियों तक और बल्कि आजतक पूजे जा रहे है. केतन का दशरथ सिर्फ प्रेम में पगुराया नहीं वर्ना पुख्ता राजनैतिक समझ का भी बाशिंदा है जो आलोक झा से रोज पंगे लेता है और उसी के साथ मिलकर अपना मिशन भी पूरा करता है, केतन निश्चित ही बहुत चालाकी से अपना अंडर लाइन मुद्दा और प्रेस की भूमिका को रेखांकित करना चाहते है कि इस भीषण समय में सिर्फ और सिर्फ एक सही आदमी सही काम सही दिशा में कर ही नहीं सकता बल्कि ऐसी ख़त्म होती आवाजों का प्रतिनिधत्व करके सही जगह पहुंचा भी सकता है पर अफसोस प्रेस इसे एक रुपहले परदे और बॉक्स ऑफिस के व्यवसाय पर टिकाकर दूसरे कामों में मशगुल हो गयी. शायद यह समझना भी जरुरी था कि ये आलोक एक नहीं हजार लाखों चाहिए ताकि दुनिया भर और खासकरके भारत जैसे देश में अकेले संघर्ष करते दशरथ मांझियों को सामने ला सकें. पहाड़ सिर्फ पहाड़ नहीं होता पत्थर का या कठिन डगर का - बल्कि एक छोटा पुर्जा भी कई बार एक बड़े एवरेस्ट से बड़ा होता है. और यह सब कहना लिखना भी एक खुली राजनीती है क्योकि मेरा मानना है कि आप किसके पक्ष में खड़े है और किसके पक्ष में लिख पढ़ रहे है वह भी राजनीती है. इसलिए दशरथ मांझी फिल्म नहीं, प्रेम नहीं, संघर्ष नहीं, प्रेरणा की कहानी नही, अकारण कही गयी दास्ताँ नहीं, दशरथ मांझी जैसे अदने से शख्स - जो मुसहर था. की गाथा नहीं - बल्कि इस खतरनाक समय में और फासिस्ट ताकतों के खिलाफ लड़ने का माद्दा पैदा करने वाली फिल्म होने के साथ - साथ एक पतनशील बना दिए जाने वाले समाज में ऊपर उठने के लिए किसी दर्दनाक कूएं में मौत से लड़ते लोगों के लिए लटकती हुई सीढ़ी है जिसके पाए कमजोर हो चुके है और रस्सी भी जर्जर हो चुकी है - बस किसी तरह से खींचकर बाहर आना है और फिर खड़े होना है इन जमींदारों के खिलाफ, उस प्रशासनिक व्यवस्था के  बीडीओ के खिलाफ जो भ्रष्टतम तरीकों से रुपया खा जाता है, उस वन विभाग के खिलाफ जो जंगल बचाने के नाम पर बड़े उद्योगपतियों से मिला है और नक्सलवाद को बढ़ावा देता है, उस केंद्र सरकार की पुलिस के खिलाफ जो किसी दशरथ से उसके होने के प्रमाण छीनकर फाड़ देती है, उस कमीने नेता के खिलाफ जो अंत में जीप से उतरकर संघर्ष की राह में हमारा हमराह बनकर हमें डंडे खाने के लिए छोड़ देता है. यह फिल्म अपने आपमें एक पुरी पक्षधरता और सम्पूर्ण पारंगतता के साथ मिल् जुलकर  लड़ने के लिए इशारा करती है और आगे बढकर अपने हक़ लेकर अपने नाम दुनिया के सारे रास्ते कर लेने का जोश पैदा करती है. 

तुम्हारी याद में एक जुग बीत गया जैसी बात उस समय उभरती है जब प्रेम अपने सम्पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है और उस अँधेरे में नाचते मानव पुतले उस प्रेम और उस समर्पण को नहीं देख सकते जब तक सफलता अपने प्रेरक से आगे निकलकर शिखर पर बस जाती है और समूची प्रकृति अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के साथ आपके साथ अँधेरे में भी धरती से उछलकर आसमान में एक छेद ही नहीं बनाती बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक रास्ते का निर्माण करती है और गह्लोर के गाँव और पहाड़ से आगे जाता है, जो किसी नवाजुद्दीन को तराश कर राधिका आप्टे को स्थापित करके इतिहास में अमर बनाता है.

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही