किरण बेदी का भाजपा में जाने से अचरज मुझे बिलकुल नहीं हुआ मुझे सिर्फ अंतोव चेखव का नाटक गिरगिट याद आया जिसमे समाज में किस तरह से लोग अपने चेहरे, व्यवहार और चरित्र बदलते है. कालान्तर में इस नाटक के कई प्रकार के पाठ हुए जिसमे ख़ास करके भारत में ब्यूरोक्रेट्स तो इस मामले में बेहद गंभीरता से इस नाटक को अपना कर अपना "वर्ग चरित्र" बनकर जीते है और पुरी सरकारी नौकरी के दौरान सिर्फ और सिर्फ गिरगिट बनकर जीते है और कांग्रेस हो, भाजपा हो, बसपा हो, वामपंथी हो या हाथी, गधे, घोड़े या उल्लूओं की सरकार हो - वे भलीभांति एडजस्ट हो ही जाते है, चाहे वो खादी पहनकर सेवा दल की भाँती दिखें या संघ की खाकी नेकर पहनकर अलसुबह उठकर संघ की शाखा में नमस्ते सदा वत्सले गाये या लाल सलाम /जोहार साथी कहकर चरण वन्दना करें यह कोई नई बात नहीं है और इस पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए.
मुझे सिर्फ आश्चर्य यह लगा कि किरण बेदी की आत्मा अब तक खुलकर क्यों नहीं यह उगल रही थी जो उनके मन में था. और यह भी भरोसा रखे कि यही किरण बेदी मन पसंद पद ना मिलने पर भाजपा को भी लात मारेगी, क्योकि यह सिर्फ और सिर्फ महत्वकांक्षी है इसने कांग्रेस को निशाना इसलिए बनाया कि महिला होने के कारण इसे दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनाया, फिर अन्ना की आड़ में इसने अपनी दबी हुई इच्छाएं उभारी और इसे कुछ नजर आया, अन्ना को निपटाकर अरविंद ने शातिरी से जब पूरा तेरह दिवसीय आन्दोलन हथिया लिया और इसे बाहर किया धक्का मारकर और 49 दिनों के हनीमून में जब अरविंद सरकार में इसे घास नहीं मिली तो इसका संताप हुआ और यह गिरगिट की भाँती रंग बदलने लगी और आखिर आज इसने अपना असली चरित्र दिखा दिया.
यहाँ मै जान बूझकर जेंडर को लेकर सिर्फ किरण बेदी का उदाहरण देकर कह रहा हूँ कि पुरुषों की तुलना में जब कोई महिला अपनी महत्वकांक्षाएं पुरी करने उतरती है तो वह सारी हदें पार कर जाती है, वे घर, परिवार, नैतिकता, चरित्र, नौकरी, सामाजिक प्रतिष्ठा और अपने पति - बच्चों को भी त्यागकर सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीना सीख जाती है जबकि पुरुष भी यह सब करता है पर इस हद तक वह "नवाचार" नहीं करता. माफ़ करिए यह बात मै अपने सामाजिक क्षेत्र में भी देख रहा हूँ. अपना इगो, महत्वकांक्षा और भयानक कुंठा लेकर जो महिलायें आई है वो किसी भी हद तक जा सकती है, या गयी है और उन्होंने कई परिवार बर्बाद किये है, बड़े महत्वपूर्ण काम बर्बाद किये है और अपना जीवन एक मखौल बनाकर समाज में नसीहत देने को उदाहरण बना दिया है. इसे किसी और आलेख में स्पष्ट करूंगा.
अब दिल्ली का चुनाव अरविंद बनाम किरण होकर रह गया है और यह सिर्फ अब दो राजनीतिज्ञों का नही वरन देश की सर्वोच्च सेवा से जुड़े और वही से अघाए दो लोगों की अहम् लड़ाई है, यह चुनाव राजनीती का ना होकर एनजीओ आन्दोलन के उस बुरे और खतरनाक परिणाम की हकीकत है जो जमीनी स्तर पर लड़ने वाले लोगों और हाशिये पर पड़े लोगों के अधिकारों के लिए लड़ा गया था, पर इन दोनों ने इस पुरे आन्दोलन और लड़ाई को आज शून्य कर दिया, यह बात मै पिछले कई बरसों से महसूस कर रहा था कि एनजीओ का स्वैच्छिक संगठनों से एनजीओ सेक्टर हो जाना बहुत घातक है और इसी दिन की परिणिती देखने के लिए हम ज़िंदा थे, यह मुझ जैसे लोगों के लिए बहुत शर्म की बात है कि तीस बरस काम करने के बाद आज यह दिन देखना पड़ रहा है. मै अभी भी पुरी गंभीरता से कह रहा हूँ कि एनजीओ अब इस देश के लोगों के लिए नहीं, सिर्फ और सिर्फ अपने लिए, सरकार के लिए सस्ते - सुलभ एजेंट और विदेशी संस्थाओं के लिए साम्राज्यवादी ताकतों के प्रचार - प्रसार के लिए माध्यम और अब मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद कार्पोरेट्स के तमाम तरह के काले और गोरख धंधों को ढकने के लिए सबसे कारगर शांत और सामाजिक हथियार है. यह एक गंभीर बात है इसे समझने और बुझने के लिए आपको कम से कम जमीनी अनुभव होना चाहिए होगा.
किरण बेदी ने आज पत्रकार वार्ता में आज जिस तरह से ईश्वर को याद करके इस घड़ी में उस "परम पिता द्वारा यह काम करवा लेने" का हवाला दिया वह भी दर्शाता है कि धर्म को इस्तेमाल करके गंदी मानसिकता की सीढ़ी से वो उस तमाम मानसिकता को भी अंधा समर्थन दे रही है जिसमे पीके के साथ रॉंग नंबर के बहाने आम जन मानस की जगी हुई चेतना को दबाने का कुत्सित काम किया गया था, या धर्म अनुसार चार बच्चे पैदा करने का फतवा वो लोग दे रहे है जो शादी ब्याह से दूर है और जेलों से बचने के लिए संन्यास के ढोंग में ऐयाशी कर रहे है और अब संसद में देश का कल्याण(?) कर रहे है.
किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल दोनों हमारे समय के और देश की सत्तर साला राजनीती के दंश है और अब आने वाले समय में उत्तर मोदी काण्ड में यह प्रवृत्ति बढ़ेगी क्योकि अब पढ़े - लिखे और जागृत भारत, 55 % युवाओं के देश में यही ट्रेंड बनेगा क्योकि कल्लू मामा जैसे अघोरी और साक्षी महाराज जैसे नागा साधू अधिक समय तक अपनी राजनीती नहीं चला सकेंगे. मोदी भी कल मिलाकर मन मोहन सिंह से भिन्न नहीं है यह हमने देख ही लिया है किस तरह से वे संघ की कठपुतली है. कुल मिलाकर अब मजा आयेगा.
कमेन्ट सादर आमंत्रित है पर थोड़ा दिमाग खुला रखें और पार्टी से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ दिल्ली, अरविंद और किरण के सन्दर्भ में इस पोस्ट को समझने का प्रयास करें, साथ ही तात्कालिक इतिहास को आधार बनाएं, गड़े मुर्दों के इतिहास में मुझे कोई रूचि नहीं है.
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