दिन भर मजदूरी के बाद रात में यहां होते हैं कबीर भजन, ऐसे मिली दुनिया में प्रसिद्धी - भास्कर.कॉम 28 जनवरी 2015
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भोपाल। गणतंत्र दिवस से राजधानी भोपाल में शुरू हुए लोकरंग महोत्सव में मप्र के साथ-साथ देश और विदेश के लोक नृत्यों और गायनों की पेशकश की जाएगी। बुधवार को भी लाेकराग कार्यक्रम के तहत लाेकवाद्यों की यात्रा और लोकधुनें गाई जाएंगी। लोकरंग इस साल मालवा की संस्कृति पर केंद्रित है। इसी मालवा में कबीर गायन बेहद प्रचलित है और इस गायन की बदौलत दुनिया भर में मालवा को ख्याती मिली है। DAINIKBHASKAR.COM के माध्यम से संदीप नाईक आपको बता रहे है इसी कबीर गायन के बारे में।
रात का समय है, ठण्ड अपने चरम पर है, चारो ओर कुहासा है, खेतों से ठंडी हवाएं आ रही है, बिजली नहीं है परन्तु गाँव के दूर एकांत में कंकड़ पर लोग बैठे है, बीडी के धुएं और अलाव के बीच लगातार भजन जारी है और सिर्फ भजन ही नहीं उन पर जमकर बातचीत भी हो रही है कि क्यों हम परलोक की बात करते है, क्यों कबीर साहब ने आत्मा की बात की या क्यों कहा कि “हिरणा समझ बूझ वन चरना”। लोगों की भीड़ में वृद्ध, युवा और महिलायें बच्चे भी शामिल है. यह है मालवा का एक गांव। यह कहानी एक गांव की नहीं कमोबेश हर गांव की है जहां एक समुदाय विशेषकर दलित लोग रोज दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद शाम को अपने काम निपटाकर बैठते है और सत्संग करते है, कोई आडम्बर नहीं, कोई दिखावा नहीं और कोई खर्च नहीं. ये मेहनतकश लोग कबीर को सिर्फ गाते ही नहीं वरन अपने जीवन में भी उतारते हैं।
सैंकड़ों साल पुरानी परंपरा
पिछले सैंकड़ों बरसों से यह गाने बजाने की परम्परा मालवा में चली आ रही है. कबीर भजनों की इस परम्परा का पता जब एकलव्य संस्था के लोगो को लगा था तो सबसे पहला प्रश्न यह था कि इन लोगों में दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद ऊर्जा कहां से आती है कि रात भर बैठकर भजन गाते है और खुलकर चर्चा करते है? धीरे धीरे अध्ययन किया, मालवा की भजन मंडलियों के कामों का एक दस्तावेज बनाया गया। पहली बार प्रहलाद सिंह टिपान्या का कैसेट बना और काम की शुरुआत हुई। प्रहलाद के कैसेट बनने के बाद मालवी कबीर के भजनों को जिले, प्रदेश और देश में सराहा गया।
बिमारी में सिर्फ कबीर सुनते थे कुमार गंधर्व
साहित्य, ललित कलाओं और गीत संगीत मालवा की खासियत रही है। शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक पंडित कुमार गन्धर्व ने इस शहर को अपने जीवन में जो स्थान दिया वह तो सभी जानते है। टीबी जैसी बीमारी होने के बाद जब उनका एक फेफड़ा निकाल दिया गया तो हवा बदलने के लिए वे इस शहर में यहां आये और फिर यही के होकर रह गए, बीमारी के दौरान जब वे अपना इलाज करवा रहे थे तो अपने आसपास कबीर मंडलियों को इकठ्ठा कर लेते थे और ध्यान से सुनते थे. कालान्तर में उन्होंने बाकी सब छोड़कर कबीर की ऐसी चदरिया बुनी कि सारी दुनिया देखती रह गयी।
ऐसे मिली विश्व प्रसिद्धी
मालवा के भजनों और कबीर की सुवास जब स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया के संस्कृति और भाषा विभाग की हेड प्रोफ़ेसर लिंडा हैज़ तक पहुंची तो उन्हें यह काम बड़ा आश्चर्यजनक लगा कि कैसे सैकड़ों बरसों से लोग वाचिक परम्परा को निभाते चले आ रहे है, बस फिर क्या था लिंडा पहिंच गयी मालवा और गांव-गांव में घूमकर भजन इकठ्ठे किये। भजनों का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया और फिर ऑक्सफ़ोर्ड प्रेस से उनकी किताबें आई। लिंडा यही नहीं रुकी उन्होंने देश में और अमेरिका में भी मालवी भजनों को पहुंचाया। प्रहलाद सिंह तिपान्या और उनकी मंडली को तीन माह तक अमेरिका के दर्जनों विश्वविद्यालयों में घुमाया और उनके कार्यक्रम आयोजित किये।
बनी हैं कई फिल्में
बेंगलुरु की शबनम वीरमनि ने जब यह सुना तो वे भी दौड़ी चली आई और चार फिल्में बना डाली। इस तरह से मालवी कबीर के भजनों की प्रसिद्धी देश-विदेश में पहुंची।
भजनों में सूफी अंदाज
प्रहलाद सिंह टिपान्या को भारत सरकार ने पदमश्री से समानित किया. उनके बेटे अजय ने बताया कि अब वे भजनों के साथ साथ सूफ़ी कव्व्वाली के अंदाज को भी परखने का कार्य कर रहे है ताकि जन मानस में प्रचलित इस विधा को इस्तेमाल करते हुए सौहार्द्र और शान्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सके। मालवा के अंचल में पसरी यह निर्गुणी भजनों की यह वृहद और सशक्त परम्परा इस बात की इस परंपरा के जरिये समाज के निचले तबके से बदलाव की कोशिशें जारी है।
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