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"अपने अवगुणों को ढकते हुए"



"अपने अवगुणों को ढकते हुए"
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फिर रख दूंगा अखबारों में तह करके
यह शाल किसी आलमारी में
अगले बरस तक याद ना आयेगी
और फिर एक दिन ढूंढून्गा किसी
कंपकपा देने वाली सर्दी में अगले बरस
सालों से जारी है सिलसिला शाल का
इस तरह से कितनी ही शालें आती रही
गुमती रही, कभी कोई ले गया और
लौटाई नहीं भलमानसहत में पूछा नहीं
कभी ट्रेन में, कभी शादी में गुम गयी
हर बार एक शाल के लिए दुनिया घूमा
कभी तिब्बती से, कभी रेडीमेड वाले से
पर हर बार झिक झिक करके नई खरीदी
कभी कोई दे गया माँ को तो
हड़प ली झपटकर कि अच्छी है
ओढ़ा तो लगा हर बार गुमने का खटका था
जतन से सम्हालता और सहेजता
कभी एक बार तो कभी दो बार
धो लिया सीजन में शाल को हलके से
कभी शाल को अपने रोज की जिन्दगी में
वह स्थान नहीं दे पाया जिसका हक़
वह रखती थी, एक अदद स्थान जीवन में
शाल के रेशे यहाँ वहाँ गड़ते रहते और
उधड़ते रहते जीवन के ख़्वाबों की तरह
शाल के रंगों की तरह बदलता रहा यार दोस्त
हर बार या तो गुम गए या ले गया कोई
मंजिलों और रास्तों के बीच मेरे सारे अवगुण
छुपाती रही शाल और बचाती रही सर्द हवाओं से
धुल और गुबार से, कोहरे और ओंस की बूंदों से
आज याद करता हूँ फीकी पड़ी हुई शालों को
एक गठरी निकल आती है संसार के कोनों-कोनों से
और शालों के बीच से आवाजें रेंगती है आहिस्ते से
यह अवगुणों की दास्तान है या सदियों की गर्द
अपने आपसे पूछता हूँ तो एक झूठ बोल लेता हूँ
शाल को एक बार फिर से समेटने का वक्त है
और मेरे सामने फिर से यह लाल शाल पड़ी है
एक प्रश्न, एक विचार और एक अवागर्द की भाँती
सवाल यह है कि अब इसे सहेजने की हिम्मत नहीं है
लगता है अब उधेड़ दूं रेशा-रेशा और आने दूं हवाओं को.
यह सही समय है शाल समेटने का क्योकि अब
चिंता नहीं है कि आगे मौसम में शाल कैसे आयेगी
शाल का एक ढेर देख रहा हूँ, देख रहा हूँ ढेर और ढेर
अफसोस यह है कि इतने शालों का इस्तेमाल नहीं होगा.

- संदीप नाईक 
25 जनवरी 2015 


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