इस संकलन के आरंभ में अनेक घटनाओं को एक छोटे शहर के आख्यान के कैनवास पर उकेरते कुछ गद्यांश हैं, जो अपनी समग्रता मेंजीवन, मित्रता,विवशता, निर्वासन और पलायन और आत्महत्या के बयान हैं; साथ ही, खुद उस शहर की मजबूरी के बखान भी। फिर हैं कुछ कहानियाँ जो अपनी सहज कहन के कारण अपनी बेचैनी की स्मृतियाँ पाठक के मन में छोड़ जाती हैं। संदीप नाइक की इन बेचैन कथाओं में नर्मदा नदी व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-दु:ख, संघर्षों और स्वप्नों को धारण करती हुई बहती है, और उसकी आवाज हम संदीप के सहज गद्य में सुन सकते हैं।
तेजी से नगरीकरण की ओर बढ़ते समाज में हर तरह की ताकत केन्द्रीकृत होती जा रही है, और छोटे शहर, कस्बे और गाँव सत्ताकेंद्रों की प्रयोगशालाओं और ऐसे अजूबों में बदलते जा रहे हैं, जिनसे सत्ताकेंद्र या तो दया का रिश्ता बनाते हैं, या उपहास का। संकलन की सभी कहानियाँ इस दया और उपहास से उत्पन्न बेचैनी की ही कथाएँ हैं। संदीप की इन कहानियों में आदर्शों की विफल खोज से बेचैन नौजवान हैं, तो फिल्मस्टारों के सपने देखते अपने पागलपन में एकतान जीवन की सीमाएँ लांघ रहे नौजवान भी। इन कहानियों में ‘छोटे शहर का आदमी’ अपने ‘नारायण टाकीज’ को बदलते भी देख रहा है, और किसी अनाम गंध के ठोस आकार ले लेने जैसी घटनाओं को अपनी आँखों के सामने घटते भी। ये कहानियाँ निजी अनुभव की ही हैं, लेकिन संदीप इन्हें विन्यस्त करते हैं, व्यापक अनुभव और सामूहिक स्मृति के ताने-बाने में: इस तरह ये कहानियाँ निजी बेचैनी के साथ ही, सचमुच नदी किनारे की सामूहिक बेचैनी की कथाएँ भी बन जाती हैं।
आशा करता हूँ कि संदीप नाईक और लिखेंगे, शिल्प पर कुछ और ध्यान देते हुए लिखेंगे।
इस नये कथा-स्वर का स्वागत होना ही चाहिए।
पुरुषोतम अग्रवाल, Purushottam Agrawal)
ख्यात साहित्यकार, नई दिल्ली
Comments